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एक पत्रिका हुआ करती थी "चकमक" जिसे हमने जन्म से देखा

एक पत्रिका हुआ करती थी "चकमक" जिसे हमने जन्म से देखा किशोरावस्था और अब वो अपना ३०० वाँ अंक निकाल कर मुह में पान दबाये खडी है अभी अगले हफ्ते ही उसके इस अंक का विमोचन है भोपाल के भारत भवन में बड़ा जलसा होगा. एक समय था जब वो प्रदेश के सारे स्कूलों में जाती थी बच्चे लिखते थे और खूब हंगामा होता था हमने देवास के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रो में चकमक क्लब बनाए थे जो देश भर में एक माँडल के रूप में उभरे और यह सिद्धांत बना कि बच्चो को स्कूल के अतिरिक्त एक ऐसा अड्डा होना चाहिए जहां वे खुले मन से सीख सके और उस अड्डे पर पूर्ण लोकतंत्र हो ना कि मास्टरों की डाट -डपट, ये चकमक क्लब ऐसे चल निकले कि चकमक और ये एक दूसरे के पूरक बन् गए. संपादक राजेश उत्साही से लड़ झगड कर अपने बच्चो की रचनाएँ छपवाते थे और राजेश भी समझदारी से हमें सिखाते थे और एक नया संसार बन् रहा था. बाल्मेले और पत्रिकाएं पुस्तिकाएं और ना जाने क्या क्या......चकमक दफ्तर से रोज बच्चो को ढेरो चिट्ठियाँ जाती थी और देश भर के बच्चे लिखते थे.....कालान्तर में चकमक का स्वरुप बदला अब उसमे साहित्यकारों का बड़ा कब्जा है बच्चो के लिए मात्र दो तीन पन्ने है बाकी जानकारिया है साहित्य है ज्ञान है विज्ञान है सबको मौका देना है और ऊपर से यह पुख्ता समझ है कि बच्चे बिगड ना जाए इसलिए उन्हें मार्गदर्शन देने की जरूरत है और हमारे बिना बच्चे बिगड जायेंगे. अब सारा ध्यान साहित्यकारों से रचनाएँ जुगाडने में,पेज संवारने में, महंगे और बड़े कलाकारों को स्थान देने में निकल जाता है, आकार, रंग रूप और स्वरुप बिगड जाने से कितना कुछ बदल जाता है यह एक से तीन सौ अंको की यात्रा को देखकर समझा जा सकता है सबसे दुखद यह है कि इस सबके बाद या यूँ कहे कि बाजारीकरण के बाद भी प्रसार संख्या में वृद्धि नहीं हुई है जो कि फक्र से कही या गुनी जा सके . चकमक के जलसे में बड़े बड़े लोग आ रहे है इस बीच प्रयोग के तौर पर स्वयंप्रकाश जैसे लोग भी नवाचार करके चले गए अब सशील शुक्ल जी जी इसे सम्हाल रहे है शशि सबलोक की पैनी नजर भी चकमक पर रहती है एकलव्य की यह शैक्षिक पत्रिका चल तो रही है पर अब सिर्फ और सिर्फ ज्ञान विज्ञान की प्रकाशित दूकान है जहां सब है बस बच्चे नहीं है, टीम तो है पर रस नहीं है, लोग तो है पर दृष्टि नहीं है, मत तो है पर लोकतंत्र नहीं है, और यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण मेरे लिए है कि इसमे साहित्य तो है पर बाल साहित्य नहीं है . बहरहाल ३०० निकालना एक मर्दानगी का काम है और यह कार्य जिस भी टीम ने किया है वो काबिले तारीफ़ तो है जब हंस के २५ बरस पुरे हो सकते है तो चकमक भी २५ बरस पुरे करे यही मनोकामना हम कर सकते है. कहा सुना माफ पर सच तो सच है और जिसको जन्म से देखते है उसके बडे होने पर अपेक्षाएं बढ़ भी जाती है यह सिद्धांत तो सर्व व्यापी है ठीक ना दोस्तों....बुरा भला लगे तो दो रोटी ज्यादा खा लेना ...अगर कार्यक्रम का कोई निमत्रण जैसा कुछ हो तो सबको एक बार मिल जाता या कम से कम पुराने लोगो को बता दिया जाता जिन्होंने खाद पानी देकर इसे किशोर, जवान किया और बड़ी बेसब्री से इसके वटवृक्ष में बदल जाने की राह तक रहे है कम से कम ये अपेक्षा तो जायज है ना ..........

Comments

दादा, सच बोलने के लिए आपको सलाम
भैया बात तो आप सही कह रहे हैं और एक हद तक सहमत भी हूं। बहरहाल दो बातें। एक तो यह कि चकमक 1985 में शुरू हुई थी सो यह उसका 27 वां साल चल रहा है। दूसरी बात 300 अंक निकालने को साहस या दुस्‍साहस कहो तो बेहतर है मर्दानगी तो कुछ जमा नहीं।

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