Skip to main content

Posts

Showing posts from February, 2011

चिड़िया - दो

चिड़िया नहीं जानती है भय, ईर्ष्या, तनाव , भूख, और संघर्ष नहीं जानती समझती है शोषण के पहिये और भेदभाव के जाल को चिड़िया को फिर भी चालाक होना पड़ता है उतना जितना ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है चिड़िया फुदक रही है यहाँ - वहाँ, ऊपर -नीचे , अन्दर -बाहर एक दिन जान जायेगी की चालाकी ही उसे आखिर शाश्वत बनायेगी और जद्दोजहद में वो जीतकर भी बजी हार जायेगी एक दिन........

चिड़िया- एक

एक चिड़िया झांकती है दरवाजे की देह से भीतर और दीवारे झनझना जाती है उसकी चहचहात से चिड़िया कमरे की चौहद्दी से नापती है दुनिया को और चारो और गर्दन घुमाकर उड़ जाती है फुर्र से दुनिया की हदों से बेहतर है उसका खुला उन्मुक्त आकाश जहां आज भी हवा तक निर्भय होकर विचरण करती है...

इसे मत तोड़ो

लेकिन मैं यहां खड़ा होऊंगा छायाओं में-- अंधेरा मुझ से पी सकता है महान रोशनी के तट पर जो झुकती है तुम्हारे बालों के गिर्द। पहर है मेरा, गो कि कड़वा। ... ओ इसे तोड़ दो, इसे मत तोड़ो सब संग मैं खड़ा हूँ और याद करता हूं पहुँच नहीं सकता मैं उस जगह से। पाल ब्रेक्के

वो कमरा याद आता है

मैं जब भी ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तपकर मैं जब भी दूसरों के और अपने झूठ से थक ... कर मैं सबसे लड़के, खुद से हार के...जब भी उस कमरे में जाता था वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का कमरा जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था जैसे कोई मां, बच्चे को आँचल में छुपा ले...प्यार से डांटते ये क्या आदत है जलती दोपहर में मारे-मारे घूमते हो तुम वो कमरा याद आता है... मैं अब जिस घर में रहता हूँ बहुत ही खूबसूरत है मगर अक्सर यहाँ खामोश बैठा...याद करता हूँ वो कमरा बात करता था...वो कमरा याद आता है... *जावेद अख्तर साहब
बड़े बड़े पेड़ और बड़े बड़े पानी के सोत देखता हूँ तो लगता है कि ये सब कहा से जीवन ऊर्जा प्राप्त करते होंगे, और फिर लगता है कि जीवन ऐसे ही स्रोतों से चलता है एक अदृश्य ऊर्जा से और एक अदभुत शक्ति से वरना तो हम सब मन के जीते जीत है और मन के हारे हार........

कुछ फूटकर नोट्स

सत्य की खोज अकेले की खोज होती है..भीड़ की नहीं ,लेखक की खोज सत्य की खोज होती है..अपनी आत्मा को व्यक्त करने की यात्रा अकेले की यात्रा है....इस अकेलेपन और आम आदमी के अकेलेपन में वैसा ही अन्तर है---- जैसा...बुध्द और महाविर के भीखमंगेपन और सड़क पर खड़े भीखारी के भीखमंगेपन में...है। क्या हम अपने में हमेशा होते है या होने भर का नाटक करते रहते है , ये सवाल इसलिए भी अपने आप से पूछता हूँ कि में बहुत भटकता हूँ और ये भटकाव ही मुझे जोडता है और अंदर से बारम्बार तोडता भी है. पता नहीं वो क्या है जो पाना है और क्या है जो छूट जाएगा तो मन मसोजकर रह जायेंगे हम सब और एक आवाज़ भी नहीं आयेगी कही से कि कुछ चटक गया है दरक गया है और बस हम भी टूट ही जायेंगे लगभग........ "शब्दों के शुरू होते ही हम एक दूसरे को खोने लगते है .............." सर्वेश्वर की ये पंक्तिया मुझे याद दिलाती है की अब प्यार का इज़हार करना भी मुश्किल हो जाएगा इस रूखे और बेहद कठिन समय में तो इस प्यार के इज़हार वाले दिन कैसे कोइ भला अपने दिल की बात कहेगा..............????? एक एक दिन बीतते जाते है और हम ज़िंदगी के बहुत कर्रेब भी आते है ब