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Showing posts from August, 2011

व्यवस्था के शस्त्रागार का एक नया हथियार(जनपक्ष से साभार)

(समकालीन तीसरी दुनिया का आनंद स्वरूप वर्मा द्वारा लिखा यह सम्पादकीय अन्ना परिघटना पर एक ज़रूरी और बहसतलब हस्तक्षेप है. चारों तरफ फैले समर्थन और विरोध के उन्मादी और कई बार अविवेकी धुंध के बीच यह टिप्पणी पूरी परिघटना के एक जनपक्षधर विवेचना की सार्थक कोशिश करती है) जो लोग यह मानते रहे हैं और लोगों को बताते रहे हैं कि पूंजीवादी और साम्राज्यवादी लूट पर टिकी यह व्यवस्था सड़ गल चुकी है और इसे नष्ट किये बिना आम आदमी की बेहतरी संभव नहीं है उनके बरक्स अण्णा हजारे ने एक हद तक सफलतापूर्वक यह दिखाने की कोशिश की कि यह व्यवस्था ही आम आदमी को बदहाली से बचा सकती है बशर्ते इसमें कुछ सुधार कर दिया जाय। व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र से जिन लोगों का मोहभंग हो रहा था उस पर अण्णा ने एक ब्रेक लगाया है। अण्णा ने सत्ताधारी वर्ग के लिए आक्सीजन का काम किया है और उस आक्सीजन सिलेंडर को ढोने के लिए उन्हीं लोगों के कंधों का इस्तेमाल किया है जो सत्ताधारी वर्ग के शोषण के शिकार हैं। उन्हें नहीं पता है कि वे उसी निजाम को बचाने की कवायद में तन-मन-धन से जुट गये जिसने उनकी जिंदगी को बदहाल किया। देश के

बूढ़े इंतजार नहीं करते

बूढ़े इंतज़ार नहीं करते वे अपनी हड्डियों में बचे रह गए अनुभव के सफ़ेद कैल्सियम से खींच देते हैं एक सफ़ेद और ख़तरनाक लकीर और एक हिदायत कि जो कोई भी पार करेगा उसे वह बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाएगा अपनी ही हथेली की लकीरों की धार से और उसके मन में सदियों से फेंटा मार कर बैठा ईश्वर भी उसे बचा नहीं पाएगा बूढ़े इंतज़ार नहीं करते वे काँपते–हिलते उबाऊ समय को बुनते हैं पूरे विश्वास और अनुभवी तन्मयता के साथ शब्द-दर-शब्द देते हैं समय को आदमीनुमा ईश्वर का आकार खड़ा कर देते हैं उसे नगर के एक चहल-पहल भरे चौराहे पर इस संकल्प और घोषणा के साथ कि उसकी परिक्रमा किए बिना जो क़दम बढ़ाएगा आगे की ओर वह अंधा हो जाएगा एक पारंपरिक और एक रहस्यमय श्राप से यह कर चुकने के बाद उस क्षण उनकी मोतियाबिंदी आँखों के आस-पास थकान के कुछ तारे टिमटिमाते हैं और बूढ़े घर लौट आते हैं कर्तव्य निभा चुकने के सकून से अपने चेहरे की झुर्रियाँ पोंछते बूढ़े इंतज़ार नहीं करते वे धुँधुआते जा रहे खेतों के झुरमुटों को तय करते हैं सधे क़दमों के साथ जागती रातों की आँखों में आँखें डाल बतियाते जाते हैं अँधेरे से

स्त्री की प्रतिभा का लोहा मानने को कोई तैयार नहीं

हाय रे वो दिन क्यों न आये फिल्म अनुराधा का अनमोल गीत आपके लिए ओर "तुम्हारे लिए" सिर्फ फिल्म ही नहीं इसमे एक स्त्री की कुर्बानी ओर समर्पण की कहानी है जो बहुधा पुरुष देख नहीं पाते ओर अपने को सफल करने में वो किस तरह से प्रतिभा का गला घोट देते है ओर एक जीती जागती स्त्री को खत्म कर देते है यह गीत इसका प्रमाण भी है.........अदभुत है यह कथा ओर संसार........बहुत दुखद ओर गंदा स्त्री की प्रतिभा का लोहा मानने को कोई तैयार नहीं .................

लड़ झगडकर ईदी लेते थे

सबको ईद की ढेरो शुभकामनाएं.................... .....देवास की याद आ रही है जब दोस्तों के यहाँ धमाल करते थे ओर फ़िर आख़िरी में नईम जी से लड़ झगडकर ईदी लेते थे वो एक एक रूपये के सिक्के अभी भी सम्हाल कर रखे है मुसीबत के दिनों केलिए पर उनकी बरकत यह है कि इंशा अल्लाह मुसीबत कभी आयी ही नहीं अभी तक ओर खुदा करे कि कभी ना आयें.....आप सबको को भी एसी सुबह कभी ना देखना पड़े यही दुआ है.................. कहते थे "सुल्ताना ये ईदी मांगने आये है दे दो इन्हें पता नहीं क्यों गरीब मास्टर से माँगने आ जाते है ओर खा पीकर चले जाते है ओर फ़िर बहुत प्यार से सिवाई, ओर ना ना प्रकार के व्यंजन लाते ओर अपने हाथो से खिलाते ओर कहते अब पेट भर खा लो घर जाकर खाना मत खाना समीरी ओर ले आ" ओर तनवीर बेचारा किचन से लाते रहता था........फ़िर अपने लखनवी कुर्ते की जेब से एक एक के सिक्के निकाल कर देते थे ओर पूछते कि क्या लिखा पढ़ा इन दिनों........दीदी भी खूब मजेदार खाना बनाती है यह हम ईद पर समझ पाते थे अब देवास में रौनक ही खत्म हो गयी है ना नायीम्जी रहे ना बाबा (कुमार जी) ओर बस.........मन ही उचाट हो जाता है तीज त्यो

जिन जोड़ी तिन तोडी

एक ज़िंदा शख्स जिसके साथ लंबे समय तक काम किया खूब लड़े झगड़े ओर लिखा पढ़ा, अपने ब्राह्मणत्व को छोडकर दलितो के बीच काम किया ओर समाज से भी भिडे वो अचानक कहा कब किधर कैसे चला गया, बिना पूछे बिना बताए एक फोन तो कर देते कि बुलावा आ गया है कहे कबीर सुनो भाई साधो जिन जोड़ी तिन तोडी, ज़रा हलके गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाले इस भजन को दिनेश के साथ प्रहलाद टीपान्या प्रोफ़ेसर लिंडा हेस(स्टेनफोर्ड विवि अमेरिका) कालूराम, नारायणजी के साथ गाते हुए एक उम्र गुजर गयी आज भी दोस्तों की फरमाईश पर यह भजन मैं चाव से गाता हूँ पर यह जिन जोड़ी तिन तोडी इतने जल्दी हो जाएगा पता नहीं था दिनेश

A POLITICALLY CORRECT ALPHABET-Courtesy- Alex M George

A is an Activist itching to fight. B is a Beast with its animal rights. C was a Cripple (now differently abled). D is a Drunk who is “liquor-enabled.” E is an Ecologist who saves spotted owls. F was a Forester, now staffing McDonald’s. G is a Glutton who says he’s “food-centered.’” H is a Hermaphrodite skirting problems of gender. I is an ‘’Ism” (you’d better believe it). J is a Jingoist—love it or leave it! K is a Kettle the pot can’t call black. L is a Lifestyle not bound to the pack. M is a Mindset with bias galore. N was a Negro, but not anymore. O is an Oppressor, devoid of self-love. P is the Patriarchy (see “O” above). Q is a Quip that costs someone a job. R is the Reasoning done by a mob. S is a Sexist, that slobbering menace. T is a Teapot that’s brewing a tempest. U is for Umbrage at the slightest transgression. V is a Valentine, tool of oppression. W is for “Woman,” however it’s spelled. X is a chromosome we share in our cells. Y is a Yogi

दिनेश शर्मा को श्रदांजलि

एकलव्य देवास के साथी जिसके साथ उम्र के लगभग एक दशक तक काम किया साक्षरता से लेकर कबीर ओर अम्बेडकर मंच तक का काम खूब घूमे फिरे ओर नाटक गाना ओर ढेरो काम किये ऐसे साथी दिनेश शर्मा का आज निधन हो गया, दिनेश लंबे समय से बीमार थे ओर आज उनके चले जाने से में बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ ओर रवि से बात करके तो ओर काँप गया हूँ , वो कह रहा था हम सब अब उम्र की ढलान पर है ओर एसी खबर कब किसकी मिल जाए पता नहीं, दिनेश को सच में श्रदांजलि ओर उसके कामो को सलाम.

इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा

भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा ~बशीर बद्र

मन की गांठे

मुझे नहीं पता में सही था या गलत पर आज लग रहा है दोषी जरूर रहा हूँ हर उस कर्म का ओर लगाव का जो मैंने किया, यह माना कि पैदाईशी रिश्तों के अलावा अपने बनाए रिश्ते ज्यादा बड़े ओर निर्मल होते है, उन रिश्तों को बनाने ओर निभाने में एक उम्र गुजार दी पर अब सब पर से विश्वास ही उठ गया है, ओर बस कोसता हूँ अपने आप को कि क्यों किया यह सब, क्यों चलता चला गया में किसी ओर की जिंदगी में ओर फ़िर जब कोई अपना अंश ही नहीं तो कैसा नाता कैसा रिश्ता, इतना छलनी कभी नहीं हुआ, ठगुआ कौन नगरिया लूटल हो, कबीर कहते है, लड़ रहा हूँ अभी भी अपने आप से (मन की गांठे)

मन की गांठे

हम जब अपने आप को खोजने निकलते है तो पाते है कि अकेले है ओर पाते है वो सब भी, जिन्हें हमने सारे द्वंद ओर रिश्ते तोडकर अपना बनाया था, छोडकर चले गए है ओर यह एहसास बहुत ही कटु होता है ओर बस हम सिर्फ कोसते रहते है भाग्य, किस्मत ओर विधाता की लेखनी को पर इस सबमे ओर अकेले रह जाते है, शब्दों के उपयोग ओर हमारा व्यवहार ! हम यह जीवन की नैया से वैतरिणी पार करना तो चाहते है पर डूब जाते है बीच में ओर फ़िर बस खत्म होने लगता है सब, ओरअपने आप से विश्वास उठ जाये तो सबसे ज्यादा तकलीफ होती है(मन की गांठे)

मन की गांठे

जब कुछ खत्म होने लगता है तो आवाजे भी मंद पडने लगती है लगता है हम सिर्फ बोल रहे है ओर सुन नहीं पा रहे है ना खुद को ना अपने परिवेश को ना अपने लोगो को जिनको सुने बिना हम साँसे भी नहीं ले पाते थे पर कई बार अंदर से टूटन ही जोडती है ओर हम फ़िर से टूटते है ओर ज़िंदा रहने का स्वांग करते है जबकि हम मर चुके होते है, हम नहीं जानते कि आवाजो का शोर कहा से आता है कहा से ये भिनभिनाहट एक सुप्त सी जिंदगी में ढल जाती है बिलकुल मौत सी ओर फ़िर.बस अलविदा.......(मन की गांठे)

मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?

अपने हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा सारी दुनिया की नज़र में है मेरी अह्द—ए—वफ़ा इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?

तुम कठिन हो

देख कर मंज़र बहुत हैरान हूँ मैं कुछ परिंदो मे बची अब जान हूँ मैं होगा कैसे अब मिलन मेरा तुम्हारा तुम कठिन हो और बहुत आसान हूँ मैं

प्रशासन पुराण 23

जिला अधिकारी ने पूछा कि विद्युत विभाग को ट्रांसफार्मर लगाने के लिए जमीन देना पड़ेगी माननीय मंत्रीजी के आदेश है तो जमीन कहा से आयेगी, एस डी एम् बोला सर जमीन की तो दिक्कत नहीं है बस चक्कर सिर्फ वन जमीन का है ओर ये साली फोरेस्ट की जमीन लेने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति लेना पडती है, वन अधिकारी जो अब सेवानिवृति के करीब थे बोले ले लो साब ले लो सबै भूमि गोपाल की, में तो निपट रहा हूँ आप दो साल में निकल लोगे यहाँ से जो आएगा भुगतेगा(प्रशासन पुराण 23)

प्रशासन पुराण 22

जिलाधिकारी ने पूछा कि जिले में कितने बच्चे है जिन्हें ह्रदय रोग है ओर जिनका आपरेशन शासकीय खर्च से करवाना पडेगा, जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने जवाब दिया "सर एक काम करते है एक बड़ा नसबंदी शिविर लगा देते है ताकि ना बच्चे पैदा होंगे ना साले ससुरो को ह्रदय रोग होगा" जिलाधिकारी को बात जम गयी बोला अभी तो बच्चे गिनो जिनके हार्ट खराब है ओर प्रदेश में इस जिले में सबसे ज्यादा नसबंदी होना चाहिए सुना सबने. सब बोले जी सर(प्रशासन पुराण 22)

मन की गांठे

सूर्यास्त के बाद दिन खत्म हो गया था ओर सांझ ने अपना आँचल पसराना शुरू कर दिया था जो गहरे तिमिर तक जाकर रूकी, स्तब्धता ओर नीरव सन्नाटे के बीच ये कैसा शोर था ये कैसी आवाजें थी जो बेचैन कर रही थी दूर से कही आता शोर- उथल पुथल मन को बहुत अशांत कर रही थी कही से भी एक पत्ता नहीं खटक रहा था कि उसका सहारा मिल जाए बस एक जुगनू अपनी तीव्र आवाज के साथ व्योम में घूम रहा था जैसे मन के किसी कोने में तुम रहते हो ओर हरदम राह दिखाते रहते हो, रात गहरा रही थी ओर विभावरी तक साँसे कैसे आई यह नहीं जानता(मन की गांठे)

मन की गांठे

ये ना खत्म होने वाली रात थी तुम्हारा फोन आया तो में जूझ रहा था एक गहन सन्नाटे से, अपने आप से ओर पूछ रहा था बार बार कि रात ओर दिन के इस खेल में कितना कुछ होना अभी बाकी है यह भी कि कोख से कब्र के सफर में रास्ता लंबा क्यों है, यह भी कि रास्ता स्थिर क्यों है हमें ही क्यों चलना पडता है ओर हम थक हार क्यों जाते है, तुम कहते हो कि मुश्किल हम ही बनाते है फ़िर क्यों हमें ही अपने दुखो का हल पता नहीं चलता, अब ये लो फ़िर में गूंथ ही रहा हूँ बार बार बिखरने से टूट ही रहा हूँ आखिर क्यों(मन की गांठे)

अन्ना के बहाने कुछ सवाल...............

बच्चे पूछ रहे है कि ये आंदोलन अगले साल इतिहास की किताब में तो नहीं होगा ना ??? ओर अन्ना, प्रशांत भूषण ओर अरविन्द केजरीवाल की जीवनी कोर्स में तो नहीं होगी ना.............???? बच्चो की चिंता भी बहुत वाजिब है दोस्तों............!!!!!!!!!!! !!! भारत माता की जय, जय हिंद, वंदे मातरम ........क्या दक्षिण पंथी नारे है या देशभक्ति नारे क्या इनका इस्तेमाल हर प्रकार के आंदोलनों में किया जा सकता है मुझे नहीं पता दोस्तों मदद करो......., मेरी मोटी अक्ल में कुछ समझ नहीं आ रहा अभी बहस सुनकर भ्रमित हो गया हूँ... फ़िर सारे देशभक्ति गीत भी ओर सारे जनगीत जो हम २५ बरसो से गा रहे है..."इसलिए राह संघर्ष की हम चुने जिंदगी आंसूओ में नहाई ना हो........" लो आखिर जिसका डर था वही हुआ अब अन्ना के आरती चालू हो गयी अब इंतज़ार है अन्ना की मुर्तिया मिलने का, मुझे नहीं पता कि रामलीला मैदान पर अन्ना ताबीज ओर गंडे-नाड़े मिल रहे है कि नहीं......थोड़े दिनों में अन्ना की जगह-जगह मुर्तिया भी स्थापित हो जायेगी......दरअसल आज के हिन्दू में अरुंधती का लेख बहुत सटीक है ओर विचारणीय है मेरे मित्रों को उसे पढना

मैं अन्ना नहीं होना चाहूंगी : अरुंधती राय

अरुंधती राय : अन्ना की मांगें गांधीवादी नहीं हैं अरुंधती राय का यह महत्वपूर्ण आलेख आज 21 अगस्त के हिन्दू में प्रकाशित हुआ है... (अनुवाद : मनोज पटेल) उनके तौर-तरीके भले ही गांधीवादी हों मगर उनकी मांगें निश्चित रूप से गांधीवादी नहीं हैं. जो कुछ भी हम टी. वी. पर देख रहे हैं अगर वह सचमुच क्रान्ति है तो हाल फिलहाल यह सबसे शर्मनाक और समझ में न आने वाली क्रान्ति होगी. इस समय जन लोकपाल बिल के बारे में आपके जो भी सवाल हों उम्मीद है कि आपको ये जवाब मिलेंगे : किसी एक पर निशान लगा लीजिए - (अ) वन्दे मातरम, (ब) भारत माता की जय, (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया, (द) जय हिंद. आप यह कह सकते हैं कि, बिलकुल अलग वजहों से और बिलकुल अलग तरीके से, माओवादियों और जन लोकपाल बिल में एक बात सामान्य है. वे दोनों ही भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. एक नीचे से ऊपर की ओर काम करते हुए, मुख्यतया सबसे गरीब लोगों से गठित आदिवासी सेना द्वारा छेड़े गए सशस्त्र संघर्ष के जरिए, तो दूसरा ऊपर से नीचे की तरफ काम करते हुए ताजा-ताजा गढ़े

I'd rather not be Anna-Arundhati Roy

The Hindu Arundhati Roy. File photo Related NEWS While his means maybe Gandhian, his demands are certainly not. If what we're watching on TV is indeed a revolution, then it has to be one of the more embarrassing and unintelligible ones of recent times. For now, whatever questions you may have about the Jan Lokpal Bill, here are the answers you're likely to get: tick the box — (a) Vande Mataram (b) Bharat Mata ki Jai (c) India is Anna, Anna is India (d) Jai Hind. For completely different reasons, and in completely different ways, you could say that the Maoists and the Jan Lokpal Bill have one thing in common — they both seek the overthrow of the Indian State. One working from the bottom up, by means of an armed struggle, waged by a largely adivasi army, made up of the poorest of the poor. The other, from the top down, by means of a bloodless Gandhian coup, led by a freshly minted saint, and an army of largely urban, and certainly better off people

करार आ जाए

रात यूं दिल में तेरी खोई हुई सी याद आई जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए जैसे सहराओं में हौले से चले बादे नसीम जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए फैज़....

25 Nov 2009 Bhopal station............Platform No 1, 430 AM

तुम्हे विदा करने के बाद तुम्हारे लिए..................... उस दिन में स्टेशन पर इस तरह बैठा रहा कि दुनिया में कही ओर चले जाने की जगह ही नहीं बची कोई............

अवतार सिंह पाश की एक बेहतरीन कविता

जीने का यही सलीका होता है प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नहीं जिन्हें जिन्दगी ने हिसाबी बना दिया जिस्मों का रिश्ता समझ सकना- ख़ुशी और नफरत में कभी लीक ना खींचना जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना सहम को चीर कर मिलना और विदा होना बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त मैं अब विदा होता हूं तू भूल जाना मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया तेरे नक्शों की धार बांधने में कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था मेरे भी हिस्से का जी लेना मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना।

प्रशासन पुराण 21

आज का दिन सदभावना दिवस के रूप में मनाया गया सबने राज्यशासन की मंशानुरूप शपथ ली कि जाति द्वेष को न मानकर साम्प्रदायिक सौहार्द्र से काम करेंगे सबको शपथ दिलाकर बड़े "साब" गाड़ी में उड़ गए अपने दौरे पर ओर बाकी बचे कर्मचारी बडबडाते हुए काम के लिए लौटने लगे कह रहे थे साला है तो आदिवासी पर ब्राहमणों सा व्यवहार करता है मुसलमानों को माल वाले चार्ज नहीं दिए ओर बलाइयो चमारों को सब माल वाले चार्ज दे रखे है अब हमारी जाति का अधिकारी आने दो तब बताएँगे इनको, साले सदभावना दिवस की माँ......(प्रशासन पुराण 21)

मन की गांठे

देखा यहाँ वहा और फ़िर लौट आया और उस संसार में रमता जोगी क्या करता नेह के दिए लेकर निकला एक अवधू बांटता रहा आलोक और ढूंढता रहा बाती बाती और फ़िर लो जलाकर करता रहा इश्क एक दरवेश लंबे समय तक, फ़िर देखा कि छूट रहा है टूट रहा है कतरा कतरा जीवन, अपनी इहलीला खत्म कर भी नहीं मिल रहा प्रतिसाद, अपने अंदर के प्रेम को सूखाकर जिया नहीं जा सकता और फ़िर लौटना तो है ही जीवन की सांध्य बेला पुकार ही रही है चल पडो उस ओर जहा उड़ जाएगा हंस अकेला जग दर्शन का मेला/जैसे पाख गिरे तरूवर के (मन की गांठे)

मन की गांठे

मन की आवारगी को समझते हुए कितनी दूर आ पहुंचा हूँ पर आज भी यह समझ नहीं आया कि ये सब क्या और कैसे हो गया, ऐसा सोचा तो नहीं था कभी सपने में भी फ़िर हकीकत का जिक्र करना तो पाप जैसा है जितना सोचता हूँ मवाद भरता जाता है दिल दिमाग में और लगता है कानो से टपकने लगेगा. मन उन्मुक्त आवारा की तरह सोचता है और फ़िर विचित्र से अपराधबोध, गुबार, संताप निकलने लगते है व्याकुलता इतनी बढ़ जाती है कि शरीर पर ज्वर का प्रकोप चढ जाता है हाथ पाँव निर्जीव होकर निढाल हो जाते है समझ का फेर क्या से क्या कर देता है और पूछता हूँ बार बार खुद से "तेरा मेरा मनवा कैसे एक होए रे.."(मन की गांठे)

संविधान काग़ज़ी फूल है-नागार्जुन

इसके लेखे संसद फंसद सब फ़िजूल है इसके लेखे संविधान काग़ज़ी फूल है इसके लेखे सत्य-अंहिसा-क्षमा-शांति-करुणा- मानवता बूढ़ों की बकवास मात्र है इसके लेखे गांधी-नेहरू-तिलक आदि परिहास-पात्र हैं इसके लेखे दंडनीति ही परम सत्य है, ठोस हक़ीक़त इसके लेखे बन्दूकें ही चरम सत्य है, ठोस हक़ीक़त जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो! जय हो, जय हो, बाघों की रानी की जय हो! जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो! -नागार्जुन

मोडून पडला संसार जरी

ओळखलत का सर मला ! पावसात आला कोणी ? कपडे होते कर्दमलेले, केसावरती पाणी. क्षणभर बसला नंतर हसला , बोलला वरती पाहून गंगामाई पाहुनी आली गेली घरट्यात राहून माहेरवाशिन पोरीन सारखी चार भिंतीत नाचली मोकळ्या हाती जाईल कशी बायको मात्र वाचली भिंत खचली चूल विझली होते नव्हते नेले प्रसाद म्हणुनी पापण्यान मध्ये पाणी थोडे ठेवले कारभारनीला घेउनी संगे सर आता लढतो आहे पडकी भिंत बांधतो आहे , चिखल गाळ काढतो आहे खिशा कडे हात जाताच हसत हसत उठला पैसे नकोत सर मला जरा एकटे पण वाटला मोडून पडला संसार जरी मोडला नाही कणा पाठी वरती हाथ ठ्ठेऊन नुसते लढ म्हणा ! - कुसुमाग्रज

हाथ रखिए पीठ पर

घर तो टूटा रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी हाथ रखिए पीठ पर और इतना कहिए की लड़ो... बस!!! कुसुमाग्रज (मोडून पडला संसार जरी मोडला नाही कणा पाठी वरती हाथ ठ्ठेऊन नुसते लढ म्हणा !!)

मन की गांठे

कहा तो उसने कुछ नहीं था पर अबोले ही सब कुछ स्पष्ट था यह भी कि एक खत्म हो चुके और भावुक के साथ रहना बहुत मुश्किल है यह भी कि जीवन में जब सामने प्रगति के सोपान राह देख रहे हो तो पीछे पलटकर कोई मुसीबत अपने साथ नहीं रख सकता यह भी कि जीवन से थके हारे और ऊबे हुए लोग उसे पसंद नहीं थे, पर उसने तो तुम्हे जीवन से ज्यादा चाहा था ये तर्क अब मुझपर तीर नहीं चला सकते अब तो सामने हरियाली है और विरासत में मिला एश्वर्य यह तंगहाली और भोथरी लिजलिजी भावनाए मुझपर असर नहीं डालती और एक इत्र के मानिंद उड़ गया था वो उसके जीवन से-काहे का ताना...कौन तार से जब जोड़ी चदरिया(मन की गांठे)

मन की गांठे

विचित्र है यह मोह माया जिसने ज्यादा प्रेम सम्मान लिया / दिया वो सबसे ज्यादा नाकारा और मूर्ख साबित कर दिया गया और बेहद उपेक्षित, बस यही उपेक्षित और दीन-हीन लाचारगी से भरा जीवन जीते हुए घसीटते हुए एक अनजानी राह पर ऐसे चलता रहा वो जैसे किसी अपने ने उसे सबसे ज्यादा धोखा दे दिया और बस हार गया एक दिन सब कुछ छोडकर रम गया वो अपने राम में और फ़िर साँसों की वीणा को ऐसा स्वर दिया कि उस पार जाकर ही रूका-माया महाठगिनी हम जानी(मन की गांठे)

कोई नहीं बचा था-पास्टिर निमोलर

यह लोकतान्त्रिक अधिकारों की लड़ाई है..याद रहे: “..पहले वे आए यहूदियों के लिए ...और मैं कुछ नहीं बोला क्योकि मैं यहूदी नहीं था। फिर वे आए कम्युनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला मैं कम्यु निस्ट नहीं था। फिर वे आए मजदूरों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला क्योकि मैं मज़दूर नहीं था। फिर वे आए मेरे लिए और कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता।...” -पास्टिर निमोलर (हिटलर काल के जर्मन कवि)

जन गण मन की कहानी ..............................​.

सन 1911 तक भारत की राजधानी बंग ाल हुआ करता था। सन 1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये। इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया। रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा। उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे, उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director) रहे। उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था। और खुद रविन्द्र नाथ टैगोर की बहुत सहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए। रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा उसके बोल है &qu

Dr Rakesh Agrawal with his wife Rani and Kids

One of my oldest & best friends Dr Rakesh Agrawal with his wife Rani and Kids. Wow!!! nice to see you Rakesh after almost 23 years। Thanx to IT guys who made FB type of thing had it nt been there we would nt have met and seen each other as well. Rakesh is an Expert Doctor in US for last 23 years.............

लिपटा और गुमा हुआ...दिन

कल तक अन्ना के नाम की धूम मचाने वाले फेसबुक के लोग कहा है यहाँ पूरी वाल खाली पडी है सब ठंडा.............अशोक वाजपेयी की एक अश्लील कविता याद आ रही है.......... "स्खलन के बाद जब कुछ अच्छा नहीं लगता।" खैर .........एक नया दिन और सब वही सर्द सुबह और ओंस के बीच लिपटा और गुमा हुआ...दिन को कहा तलाश करू...रात तो गुजर ही गयी थी जैसे तैसे...अब यह चक्र भी हो ही जाएगा अपनी धुरी पर पूरा।

उल्लू सीधा करना

एक लंबी छुट्टी के बाद आज ही लौटा हूँ कर्मस्थली पर देखना है कि ठीक से काम कर पाता हूँ या नहीं अब मन नहीं है कि फ़ालतू के चक्करों में पडू और अपना ध्यान और अपना मन व्यथित करू वो भी उस सब के लिए जो अपना था ही नहीं जैसे एक साये को पकडने के लिए देह की समिधा देकर भी साये को पकड़ा नहीं जा सकता तो क्या मोह क्या माया और क्या रिश्ता क्या नाता बस सब माया है, अपना उल्लू सीधा करना में भी जानता हूँ और बाकी सब तो माहिर होते ही है...

एक काले दिन के फूटकर नोट्स

देश में लगभग आपातकाल जैसे हालात बन् रहे है आज संसद तय करेगी और सुप्रीम कोर्ट के आदेश इस देश की दशा और दिशा तय करेंगे......कल का भाषण और मौन मोहन सिंह का नजरिया यदि ठीक होता तो शायद आज ये स्थिति नहीं बनती. जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगो को संयम बरतना कितना जरूरी है यह ६५ वी साल गिरह का सबसे बड़ा पाठ है. खैर, अब यह देखना है कि ऊंट किस करवट बैठता है, अब विपक्ष को पानी भूमिका ठीक से निभाना होगी ना कि टालमटोल वाली. Govt is feeling guilty and now in dilemma what to do...........Session of Parliament is on, they are talking seriously, in the mean time why cant Hon Supreme Court take Su- Motto action and instruct Govt to release all activists of India Against Corruption. But best part is Delhi Police has acted with lot of passions, it must be appreciated, in the way all behaved it shows that they are also in favor of this group. Its a BLACK DAY in the country, may be these people are wrong but in the way govt is acting this is ridiculous and embarrassing।

सात कारण अन्ना हजारे को देश के लिए सात दिन देने के

सात कारण अन्ना हजारे को देश के लिए सात दिन देने के पहला कारण है श्री अन्ना हजारे खुद. भ्रष्टाचारी को सज़ा नहीं मिल पाती क्यूंकि उसकी जांच करने वाला भी भ्रष्ट होता है. घूस लेने वाला जानता है की पकड़े जाने पर वह घूस देकर छूट जायेगा. करोड़ों की संपत्ति एकत्र कर चुका प्रवचनकार लाखों की गाड़ी से उतर कर जनता को ज्ञान बांटता है की माया-मोह त्यागो, तो आमजन इस बात को केवल उसकी आदत मानकर दूसरे कान से निकाल देती है. लेकिनं दशकों बाद देश को एक ऐसा नेतृत्वकर्ता मिला है, जिसकी निजी आवश्यकताएं और संपत्ति वाकई लगभग शून्य हैं. अहमदनगर, महाराष्ट्र के मंदिर के एक छोटे से कमरे में रहने वाले किशन बाबूराव हजारे यानी अन्ना हजारे के नाम कोई संपत्ति, कार, मकान-खेत-उद्योग या फार्म हॉउस नहीं है. एक बिस्तर और खाने की थाली यही निजी संपत्ति के नाम पर अन्ना की चीज़ें हैं. न्यूनतम आवश्यकताएं ही इस संत व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति है और किसी धन-पद-नाम-पुरूस्कार आदि की अपेक्षा न होना ही उन्हें अजेय बना देता है. वर्षों तक जनकल्याण और न्याय के लिए किये गए संघर्ष का तप उनके सामान्य से चेहरे को सम्मोहक बना दे

मन की गांठे

जीवन में दो चीजें पाना बहुत मुश्किल होता है उसे लगता था कि अपनो को जिसे वो बेहद प्यार करता था उन्हें बता पाना प्रेम के बारे में और दूसरा अपने आप को समझाना कि अपनो को प्यार करना बेहद खतरनाक है यह दवंड यह नैराश्य उसे हर पल कोसता और प्रेरित करता था कि एक लंबी लड़ाई जीवन में अन्तोत्गत्वा हारना ही पडती है सबसे मुश्किल काम अपनो को अपने आप से जोड़े रखना है और यह जुडना और टूटना ही आरोह अवरोह के समान हर पल उसे जीवन के अनंतिम सत्य के पास ले आते है मौत तुझसे एक वादा है(मन की गांठे)

मन की गांठे

अपना क्या होता है और किसे अपना कहे जिसने सब छोड़ कर सब अपना लिया वो या जिसने सब अपनाकर सब छोड़ दिया एक ही झटके में तोड़ दिया वो ? मन का फेर है यह तो पता था पर जब आज मैंने अपने सामने जिंदगी को अपने से दूर रहकर मौन देखा, तो लगा कि में पस्त हो गया हूँ और अब हांफते हुए इस उहापोह में कुछ कर नहीं पाउँगा जीने का माद्दा ही जब खत्म हो जाए तो क्या जीवन और क्या मरण सब एक समान होता है और फ़िर हम जीते ही क्यों है और मरना भी क्या होता है जीते हुए सब सामने देखना कि कैसे कोइ रूठकर चला जाता है(मन की गांठे)

मन की गांठे

जाते तो सब है पर ऐसे कोइ नहीं जाता जैसे चला गया जीवन से साँसों का रिश्ता, जीवन से सुखद स्वप्न, जीवन से एकाएक निकल जाना कौतुहल का और फ़िर एक स्थायी मौन के रूप में बस जाना दूर कही व्योम में, देखते रहना टूकुर टूकुर और सिर्फ न महसूस करना उस सबको जो दे चुका है अपनी समिधा और कर चुका है तर्पण अपने जीते जी.जाते तो सब है पर ऐसे कोइ नहीं जाता यूँ छोडकर अपने आप से छूटना भी क्या दर्द होता है यह सवाल ही आता है जेहन में इस सबके बाद(मन की गांठे)

मन की गांठे

लगता था कि सब कुछ ठीक हो गया है अब ये सब रिश्ते नाते मौत की अंतिम सांस तक जुड़े है और फ़िर सब कुछ तो दे दिया उसे जीवन की हर खुशी, धडकनों का स्पंदन, सारे मौसम, सारे पारितोष, या यूँ कहे कि जीवन डोर पर जब भी इस डोर को उसने देखा वो कही उलझती सी नजर आयी एक बारगी तो लगा कि रूतुपर्ण के बाद बयार होगी पर आज महसूस कर लिया कि जीवन तो चला गया और अब कुछ होने वाला नहीं तो उसने बस डोर को काट दिया हमेशा के लिए और फ़िर एक विश्राम ले लिया चिरस्थायी (मन की गांठे)

फेसबुक मेनिया

लगता था कि सब मेरा था सब मेरा है पर जब एक बड़ा जाला साफ़ हुआ तो लगा कि कुछ नहीं मेरा है जो मेरा अंश ही नहीं वो कैसे अपना हो सकता है जब मोह के पाश से छूटकर जाते हुए जिंदगी ने पलटकर नहीं देखा तब तक में एक भ्रम में जीते रहा और जैसे ही यह भ्रम टूटता है तो लगता है सब कुछ खत्म हो गया दो लोगो का मौन भी कितनी बड़ा शून्य पैदा कर देता है यह जानकार हैरानी होती है कैसे हम ज़िंदा रह लेते है एक गहरी चुप के साथ (फेसबुक मेनिया)

प्रशासन पुराण 20

जिंदगी में सुकून बड़ी चीज है साब, अब इतने साल काम कर लिया तो क्या निहाल कर दिया बस दो तीन साल बचे है, बस घूमते फिरते घर आ गए है बीवी भी यही है बेटे नोकरी में बेटियों को ब्याह दिया है, अब काम होता नहीं बस तनख्वाह के अलावा जो भी कोइ कुछ दे जाता है ले लेते है क्या किसी गरीब से मांगे, बस इतना तो मिल जाता है कि पति पत्नी की तनख्वाह बेंक से निकालना नहीं पडती और एक दो एफडी बना लेते है पांच लाख की हर तीसरे माह, प्रलाप जारी था(प्रशासन पुराण20)

एक पहिया ढोता है

‎20 साल बाद मैं अपने आप से सवाल करता हूं क्‍या आजादी तीन थके हुए रंगों का नाम है जिनको एक पहिया ढोता है या इसका कुछ खास मतलब होता है। -धूमिल आज भी सवाल वही है और उत्तर व्योम में है दोस्तों......