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Showing posts from September, 2011
अकेलापन क्या होता है. एक हथौड़ा ही न, जो पत्थर पर गिरता है, तो पत्थर टूटकर बिखर जाता है. लोहे पर गिरता है, तो लोहा और मज़बूत हो जाता है. किस घड़ी अकेले होते हैं हम ? स्मृतियां अकेला होने देती हैं क्या?

महेश वर्मा की नई कविताएं (सबद से साभार)

पुराना दिन तुम वहाँ कैसे हो गुज़रे हुए दिन और साल? यह पूछते हुए पुरानी एलबम के भुरभुरे पन्ने नहीं पलट रहा हूँ तुम्हारी आवाज़ आज के नए घर में गूंजती है और हमारी आज की भाषा को बदल देती है एक समकालीन वाक्य उतना भी तो समकालीन नहीं है वह पुरानी लय का विस्तार है और इतिहास की शिराओं का हमारी ओर खुलता घाव वह तुम्हारे विचारों का निष्कर्ष है हमारी आज की मौलिकता पुराने आंसुओं का नमक आज की हंसी का सौंदर्य मरा नहीं है वह कोई भी पुराना दिन राख, धूल और कुहासे के नीचे वह प्रतीक्षा की धडकन है गवाही के दिन वह उठ खड़ा होगा और खिलाफ गवाही के दस्तावेज के नीचे दस्तखत करेगा. **** बाहर ...फिर क्या होता है कि तुम प्रतीक्षा के भ्रामक विचार से धीरे धीरे दूर होते जाते हो . यह दूर जाना इतने धीमे तुम्हारे अवचेतन में घटित होता है कि दांतों के क्षरण और त्वचा के ह्रास की तरह इसका पता ही नहीं चलता. किसी एक रोज थोड़ा दूर हटकर तुम संदेह करते हो कि वाकई तुम्हें प्रतीक्षा थी भी या नहीं . फिर होता यह है कि तुम प्रेम की घटना और अंततः प्रेम के विचार से

मरम अल-मसरी : आज शाम मिलेंगे शिकार और शिकारी

मरम अल-मसरी की दो कविताएँ... मरम अल-मसरी की दो कविताएँ (अनुवाद : मनोज पटेल) सिर्फ इतना ही चाहता था वह : एक घर, बच्चे और प्यार करने वाली एक पत्नी. मगर एक दिन जब वह जागा तो पाया कि बूढ़ी हो गई है है उसकी आत्मा. सिर्फ इतना ही चाहती थी वह : एक घर, बच्चे और प्यार करने वाला एक पति. एक दिन वह जागी और पाया कि एक खिड़की खोलकर भाग निकली है उसकी आत्मा. :: :: :: आज शाम एक पुरुष बाहर निकलेगा शिकार की तलाश में अपनी दमित कामनाओं को शांत करने के लिए. आज शाम एक स्त्री बाहर निकलेगी किसी पुरुष की तलाश में जो उसे हमबिस्तर बना सके. आज शाम मिलेंगे शिकार और शिकारी और एक हो जाएंगे और शायद शायद बदल लेंगे अपनी भूमिकाए
तुम्हारे लिए................सुन रहे हो..............कहाँ हो.............?????????? मुझे कौन पूछता था तेरी बंदगी से पहले में बुझा हुआ दिया था तेरी रोशनी के पहले...........

तुम्हे याद करते हुए यहाँ

तुम्हे याद करते हुए यहाँ ये झील का ठहरा हुआ पानी और डूबता सूरज और एक प्रतिमा जोह रही है बाट अपने होने की............. तुम्हे याद करते हुए जीवन बीत रहा है यहाँ वहाँ अस्त व्यस्त और बदहाल.......लौट आओ बस अब नही होता इंतज़ार और अकेला........रहना मानो पानी के जैसा है बस बहते रहो....................लौट आओ अब लौट आओ...............

सुशील कृष्णेत के सौजन्य से

Had Sushil Krishnet would nt have published I would nt have been able to read such a nice work. Thanx a ton Sushil............. तुम्हारी आंखों में कभी नहीं पड़ते आसक्ति के लाल डोरे फूंकते हुए चूल्हा, दहकाती हुई आग तुम सीने में भर लेती हो दो मुट्ठी चिंगारी और सांसों में राख... जलाकर अपना जीवन हर दिन परोसती हो तुम चार रोटियां नयनों में भरे आंसुओं से शायद सान लेती हो आटा ... तुम्हें नहीं चाहिए कभी कोई प्रेमगीत नहीं कोई गवाही प्रेम के सच्चे होने की कहां मांगी तुमने करधन या पायल कमर में बंधे हाथों को ही जेवर समझ होती रहीं धन्य स्त्री, तुम्हारे होने में न वसंत है, न कविता न ही कोई ललक पर तुम्हारे बिना कोई मौसम हुआ है कभी मुकम्मल पत्नी का प्रेयसी न होना और प्रेमिका का पत्नी न बन पाना नियति है इसी तरह की, जैसे--अनिवार्य सत्य हमेशा फांसी झूलता है और झूला झूलते हुए हम भुला देते हैं हर बार दंगों को ... होने वाली पत्नी या न हो सकी प्रेमिका को याद करते हुए कविता गढ़ना धूप में खटाई सुखाने की तरह है या फिर बारिशों के डर से आनन-फानन लाज बिछाते हुए नंगे पैर सारे पैरहन समेटना... घर की औरत में अलंकार

प्रशासनिक पुराण 33

ये छोटी सी नगर पंचायत थी जो प्रदेश के बड़े आदमी की विधानसभा में आती थी इसलिए ये बड़ी महत्वपूर्ण थी यहाँ के मुख्य अधिकारी बड़े लोच वाले सज्जन थे प्रोटोकाल के तहत जो भी वीआईपी आते थे उनका बाकायदा फल फुल और काजू पिश्तो से स्वागत करते थे, बदले में सालो से टिके थे छोटी जगह पर ऐसा दफ्तर कि साला जिला शरमा जाए और पंचायत में चमचमाती गाडिया चाहे अग्निशमन वाहन हो या एम्बुलेंस या अपनी खुद की गाड़ी, सब सेट था. काम यही कि कोई भी मरे खपे या पैदा हो सबकी सेवा सुश्रुआ करना, ऊपर तक से लाभ दिला देना और चुने हुए प्रतिनिधियों के भी खास थे क्योकि कहा ना कि रीढ़ की हड्डी ही नहीं, खूब पुण्य कमा रहे थे बाकी तो सब जाहिर ही है और ऊपर से तुर्रा यह कि जिले के अधिकारियों के जेब में रखते थे क्योकि बड़े आदमी के छोटे से कारिंदे है (प्रशासनिक पुराण 33)

प्रशासनिक पुराण 32

जनपदों में इतना काम है कि एक मुख्य कार्यपालन अधिकारी नहीं ध्यान नहीं दे पाता खासकरके रोज़गार ग्यारंटी का काम.....प्रतिदिन उसे २०० से ३०० खतो आदेशो को पढना पडता है अब बताइये ऐसे में वो क्या तो गंभीरता से पढ़ता होगा और क्या उनका पालन करता होगा ऊपर से बहुत ही निठल्ले किस्म के अज्ञानी बाबूओ की फौज, कंप्यूटर से पूर्णतः अनभिज्ञ, रूपयों की लालसा में लगे ये अकर्मण्यो की टुकड़ी क्या पचायती राज को समझेगी और जनता जनार्दन को लाभ देगी. कल एक वरिष्ठ CEO जो प्रदेश के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के इलाके में कार्यरत है की कार्यशैली को देखा और समझा कि ये भी मानव है और कितना करेंगे अकुशल लोगो के साथ. मुझे लगता है कि जनपदों पर प्रशासनिक ढाँचे को पुनः स्वरुप देने की आवश्यकता है.

एर्नेस्तो कार्देनाल : तुम्हें इस तरह कोई नहीं प्यार करेगा

एर्नेस्तो कार्देनाल की 'सुभाषित' श्रृंखला से कुछ कविताएँ... एर्नेस्तो कार्देनाल की कविताएँ (अनुवाद : मनोज पटेल) हम दोनों ही हार गए जब मैनें खो दिया तुम्हें : मैं इसलिए हारा क्यूंकि तुम ही थी जिसे मैं सबसे ज्यादा प्यार करता था और तुम इसलिए हारी क्यूंकि मैं ही था तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करने वाला. मगर हम दोनों में से तुमने, मुझसे ज्यादा खोया है : क्यूंकि मैं किसी और को वैसे ही प्यार कर सकता हूँ जिस तरह तुम्हें किया करता था. मगर तुम्हें उस तरह कोई नहीं प्यार करेगा जिस तरह मैं किया करता था. :: :: :: लड़कियों, तुम लोग जो किसी दिन पढ़ोगी इन कविताओं को आंदोलित होकर और सपने देखोगी किसी कवि के : जानना कि मैनें लिखा था इन्हें तुम्हारे जैसी ही एक लड़की के लिए और व्यर्थ ही गया यह सब. :: :: :: यही प्रतिशोध होगा मेरा : कि एक दिन तुम्हारे हाथों में होगा एक प्रसिद्द कवि का कविता-संग्रह और तुम पढ़ोगी इन पंक्तियों को जिन्हें कवि ने तुम्हारे लिए लिक्खा था और तुम इसे जान भी नहीं पाओगी. :: :: ::

कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं

कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं
मप्र में पंचायती राज को मुझे लगता है दरकिनार किया जा रहा है सारी योजनाएं सरकार मूलक होती जा रही है और नियम कायदों को ताक में रखकर काम किये जा रहे है. लोगो की अपेक्षाओं को केंद्र में ना रखकर बहुत सारी गैरजरूरत की बातें थोपी जा रही है. आज एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि मसलन गाँव में कीचड है पर हम उन्हें जलाभिषेक करने को कह रहे है, पंचायते अपनी अस्मिता खो रही है साथ ही लोगो का विश्वास इस महत्वपूर्ण व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है ऐसे में विकेंद्रीकरण और जनता का राज या लोकसभा ना राज्यसभा सबसे बड़ी ग्राम सभा का क्या अर्थ रह जाता है.......?

जनभागीदारी के नाम पर ढेर सारा रूपया

आशीष कुमार अंशु की पोस्ट पर प्रतिक्रया मेरा एनजीओ पुराण पढाने से बहुत जाले साफ़ हो सकते है और यह बिलकुल सच है कि विदेशी रूपयों का जितना बेदर्दी से इस्तेमाल हो रहा है और सिर्फ सुविधाएँ भकोसने में. आज ही में सीहोर जिले के नस्रुल्लाह्गंज ब्लाक में गया था वहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ५-६ लोग राज्य सरकार के बगैर अंग्रेजीदां लोगो को और नगर के चुने हुए मात्र ४ प्रतिनिधियों को "ज्ञान" बाँट रहे थे वो भी पावर पॉइंट पर और लोग कौतुहल से उस अंगरेजी भाषण को सुन रहे थे जो उनके नगर का भविष्य तय करेगा, बाहर कीचड में उनकी ऐसी गाडियों के ड्राईवर इस विकास की माँ भैन कर रहे थे .............अब कोई क्या बताएं इन अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ५-६ लोगो को कि भैया कुछ भी पल्ले नहीं पडा पर हाँ आपका बढ़िया टी ए और डी ए बन् गया .....और काम भी निपट गया अब जनभागीदारी के नाम पर ढेर सारा रूपया और एंठ लेंगे फ़िर प्रशिक्षण और ना जाने क्या क्या और आख़िरी में IEC सामग्री के नाम पर गलत सलत हिन्दी में प्रकाशन फ़िर अनुवाद.........अंशु लिस्ट बहुत लंबी है सरकार को शीघ्र ही कार्यवाही करना चाहिए........
वो तेरा शहर और तुम् बहुत याद आते हो......................मेरा शहर तो मेरी नसों में दौडता है और रह रहकर कौंधता है ..बस फर्क इतना है कि इसे नसों में तुम ज़िंदा रहते हो !!! तुम्हारी याद और क्षणिक जुदाई कपकपा देती है...........इन सर्द होती सुबहो में बस अब.............यही तो है मेरे पास......

मालवे का ओटला मनीष शर्मा की ज़ुबानी............

Manish Sharma की ज़ुबानी ओटला ओटला`यानि वह ठोस धरातल वह संगम जो जोड़ता है घर को बाहर से ओटला जहाँ बच्चे खेलते अनेकों खेल यानि वह उनका नदी और पहाड़ जिस पर बैठ कोई भूखा खा लेता भिक्षा में मिला खाना जिस पर दोनों पैर आगे रख गाय भी बाट जोहती रोटी की तपती गर्मी की दोपहर जहाँ सुस्ता लेता कुत्ता भी ओटले पर शाम को जाजम पर बैठे बुजुर्ग वो दोस्तों का जमघट बे साख्ता ठहाके , वो ज्ञान चर्चा वो जिस पर बैठ कर लेते सर्दी की गुनगुनी धूप का मजा बरसात में तैरातें नाव जहाँ से गर्मी की शाम करते जहाँ हंसी -ठट्ठा पता है तुम्हे ..अपने मोहल्ले में अब ओटले दिए जाते है ..किराये पर बिकते है जहाँ गणपति ,पटाखे और होली के रंग .. इन्ही त्योहारों पर जो होते थे आबाद अब बिके-बिके नजर आते है .. ये ओटले जीवन के अर्थ -शास्त्र में समाजवाद व पूंजीवाद का अंतर बतलाते है
कहने वालों का कुछ नहीं जाता सहने वाले कमाल करते हैं कौन ढूंढे जवाब ज़ख्मों के लोग तो बस सवाल करते हैं! -गुलज़ार साब
कहने वालों का कुछ नहीं जाता सहने वाले कमाल करते हैं कौन ढूंढे जवाब ज़ख्मों के लोग तो बस सवाल करते हैं! -गुलज़ार साब
तुम्हारे लिए सुन रहे हो.....................कहाँ हो................??? तुम इतने सीधे लगे,जितने सीधे बांस.. रोम-रोम में फांस है और जोड़-जोड़ में गांठ......

Interesting Discussion on Face Book ref Modi Mullaa and Topi

हम कब आदिम युग के प्रतीकों को इस्तेमाल करते रहेंगे कितने ब्राहमण जनेऊ पहनते है या कितने मुस्लिम टोपी पहनते है अब जबकि हमारे सामने और भी मुद्दे लड़ाई के है तो ये छोडकर आगे बढे कुछ और करे उस आदमी की चिंता करे जो मात्र ३२ या २५ रूपये में जिंदगी से दो चार हो रहा है और जिसकी फिक्र ना मोदी को है ना मौलवी मुल्ला को है इनके पेट भरे हुए है और खा खाक्रर ये मदमस्त हो गए है इसलिए उपवास करना पड रहा है इनको ........... Sanjay Jothe बिलकुल सही दादा... जिनके लिए मज़हब को थोड़ी देर भूल कर नयी दुनिया से रास्ता जोड़ने की जरूरत है वे जान बुझकर खुद को और अपने गरीब लोगों को टोपी और जनेऊ में उलझाए हुए हैं... इस सबमे सबसे ज्यादा नुक्सान बेशक टोपी को ही होता आया है और होता रहेगा... जनेऊ तो 'अन्दर की बात' है इसलिए खामोश है, टोपी जगजाहिर होती है इसलिए अनावश्यक रूप से मुखर है, इसीलिए राजनेताओं की पहली टार्गेट है, न सिर्फ इस मुल्क में बल्कि पूरी दुनिया में... Vishal Pandit I oppose...Janeu or cap are the symbols....and without these symbols we are nothing..........this is not a matter of relig
दुःख को कविता में रो देना यह कविता की रात है दुःख से लड़कर कविता लिखना गुरिल्ला शुरुआत है. -- कुमार विकल

बेटियाँ कब माँ की भूमिका निभाना शुरु कर देती हैं

बिटिया दिवस पर पुरुषोत्तम अग्रवाल की एक अदभुत कविता........ "बारह बज गये, अब सो जाओ. सुबह छह बजे मुझे सोते नजर आना. यह नहीं कि मैं नीचे आऊं तो चार बजे सुबह पढ़ रहे हैं..... कोई बात हो तो मुझे बुला लेना, और हाँ, यह जो ली है, होम्योपैथिक दवा है, अब न कुछ खाना, न कुछ पीना....और सिगरेट तो....खबरदार..." पता ही नहीं लगता, बेटियाँ कब माँ की भूमिका निभाना शुरु कर देती हैं.... Purushottam Agrawal धन्यवाद संदीप जी Sandip Naik Sam आपकी कविता है या जीवन पुरुषोत्तम जी....................इतना सरल और सीधा अर्थ कि बस युही गुजर जाती दिल से कि बस!!!! Purushottam Agrawal यह वाक्य जरूर कविता है- 'आपकी कविता है या जीवन...इतना सरल और सीधा अर्थ कि बस यूंही गुजर जाती दिल से...' एक बार फिर शुक्रिया संदीप ज

सब ठीक-ठाक ही दीखता है इस अल्लसुबह...

अपर्णा मनोज की कविताओं का मुहावरा एकदम अलग से पहचान में आता है. दुःख और उद्दाम भावनाओं के साथ एक गहरी बौद्धिकता उनकी कविताओं का एक अलग ही मुकाम बनाती हैं. कई-कई सवाल उठाने वाली ये कविताएँ मन में एक गहरी टीस छोड़ जाती हैं. आज प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएँ- जानकी पुल. सब ठीक ही है : कहाँ कुछ बिगड़ा है ? यूँ तो सब ठीक ही लगता है. पड़ोस से उठने वाला मर्सिया कनेर के गुलाबी फूलों के बीच से गुज़रा है ज्यादा फर्क कहाँ पड़ा है ? हवाएं कई पनडुब्बियों में समुद्र को भेद रही हैं थोड़े जहाज़ों का मलबा दबा है इतिहास के सन्निपात में रोते हुए बेदम हो गया है बचा हुआ वर्तमान. भविष्य तो पाला हुआ हरा तोता है रट लेगा तुम्हारी पुरा -कथाओं के अक्षर चोंच में जो भरोगे वही कहेगा. गले में बाँध लेगा लाल पट्टी सुन्दर और जनतंत्र की जय कहेगा. कुछ अधिक नहीं घटा है. एक छोटा -सा ईश्वर है अभी आँख भी नहीं सधी है उसकी माँ के स्तन को टटोल रहा है हाथ पर लगा दिठौना उसने काबिज़ करने से पहले जान लिया है कि कभी भी हो सकता है उसका क़त्ल