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Showing posts from November, 2012

प्रदेश टू डे में प्रकाशित आज मेरा व्यंग्य ........

प्रदेश टू डे में प्रकाशित आज मेरा व्यंग्य ........

मिथिलेश राय की एक प्रभावी कविता "हम ही है"

  ‎        Mithilesh Ray की एक प्रभावी कविता. अच्छी बात यह है इस युवा कवि से मेरा बहुत पुराना परिचय है और इसी ने संभवतः मेरा नाम आज से पन्द्रह साल पहले चाचू रखा था, बचपन में इसकी कवितायें हमने चकमक में छापी है लगातार.........एक बार दिल्ली में मुझसे मिलने आया था, आजकल यह प्रभात खबर में संपादन डेस्क पर है और उम्दा काम कर रहा है. बधाई मिथिलेश कि यहाँ -वहाँ छप रहे हो......अब किताब की तैयारी करो. Ashok Kumar Pandey विश्वविद्यालय से असुविधा मिल ही चुकी है बस अब किताब ही आना चाहिए.......बहरहाल...बधाई.... "हम ही है" हम ही तोडते हैं सांप के विष दंत हम ही लडते हैं सांढ से खदेडते हैं उसे खेत से बाहर सूर्य के साथ-साथ हम ही चलते हैं खेत को अगोरते हुये निहारते हैं चांद को रात भर हम ही हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर हम ही रस्सी पर नाचते हैं देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर हम कौन हैं कि करते रहते हैं सबकुछ स

एक आदमी का गुस्सा.....

अगर इस बार संसद में सांसद नहीं बैठे और काम नहीं किया तो इन्हें हम जैसे लोगों को नैतिकता के उपदेश देने का कोई हक नहीं है साथ ही देश के सुप्रीम कोर्ट से निवेदन है कि इनकी सदस्यता सदनो से समाप्त कर दे ......सबके सब चैनलों पर बैठ कर ज्ञान बघार रहे है परन्तु संसद में बैठकर काम नहीं करना चाहते...............हद है मक्कारी और राजनीति की और बकवास करने की चाहे फ़िर वो भाजपा हो कांग्रेस हो या सपा हो या तृणमूल या बसपा.................सारे मक्कार रात में चैनलों पर बैठकर बकवास करते है और एंकर और मीडिया के लोग भी फ़ालतू के सवाल करते है बजाय इन्हें सदन में बिठाने के घेर-घार कर ले आते है. इनका चैनलों पर बहिष्कार किया जाये, मीडिया कवरेज देना बंद कर दे और सुप्रीम कोर्ट इनसे पूछे कि क्या किया, या फ़िर सदन की कार्यवाही में लगे हमारे श्रम के रूपयों को इनसे वसूला जाये ....... सब लाइन पर आ जायेंगें...........माननीय मुफ्तखोर............ एफ डी आई आदि सब चुतियापा है हम ऐसे लोगों को बरगलाने के लिए, साले मुफ्तखोर, काम नहीं करते साल भर और दिल्ली में बैठकर हमपर राज करना चाहते है और जे मीडिया वाले

आओ कसाब को फांसी दे - अंशु मालवीय

उसे चौराहे पर फाँसी दें ! बल्कि उसे उस चौराहे पर फाँसी दें जिस पर फ्लड लाईट लगाकर विधर्मी औरतों से बलात्कार किया गया गाजे-बाजे के साथ कैमरे और करतबों के साथ लोकतंत्र की जय बोलते हुए उसे उस पेड़ की डाल पर फाँसी दें जिस पर कुछ देर पहले खुदकुशी कर रहा था किसान उसे पोखरन में फाँसी दें और मरने से पहले उसके मुंह पर एक मुट्ठी रेडियोएक्टिव धूल मल दें उसे जादूगोड़ा में फाँसी दें उसे अबूझमाड़ में फाँसी दें उसे बाटला हाउस में फाँसी दें उसे फाँसी दें.........कश्मीर में गुमशुदा नौजवानों की कब्रों पर उसे एफ.सी.आई. के गोदाम में फाँसी दें उसे कोयले की खदान में फाँसी दें. आओ कसाब को फाँसी दें !! उसे खैरलांजी में फाँसी दें उसे मानेसर में फाँसी दें उसे बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर फाँसी दें जिससे मजबूत हो हमारी धर्मनिरपेक्षता कानून का राज कायम हो उसे सरहद पर फाँसी दें ताकि तर्पण मिल सके बंटवारे के भटकते प्रेत को उसे खदेड़ते जाएँ माँ की कोख तक......और पूछें जमीनों को चबाते, नस्लों को लीलते अजीयत देने की कोठरी जैसे इन मुल्कों में क्यों भटकता था बेटा तेरा किस घाव का लहू

मैं एक आखिरी गीत अपनी धरती के लिये गाना चाहता हूँ ..अनुज लुगुन

भाई अनुज लुगुन  हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि है और बेहद संभावनाशील भी. उ नकी   कवितायें एक नया मुहावरा और व्यापक संसार लेकर आती है जो हमें अपने आदिम जीवन से ना मात्र जोडती है बल्कि समाज में हो रहे बदलावों से इस पुरे सन्दर्भ पर क्या असर पड रहा है इसकी भी निष्पक्ष परीक्षा करती है. निश्चित ही यह नयापन, नया गढना, नया मुहावरा और नया विचार एक जटिल प्रक्रिया है जिसे स्वीकारने में अभी भी हिन्दी जगत  में कई प्रकार की दिक्कतें है. खासकरके हिन्दी की परम्परागत कविता के फलक पर कविता को तौलने की प्रवृति अभी  बहुत खुली नहीं है. पर समय को लगभग चुनौती देते हुए अनुज काल से होड ले रहे है और सारे दबावों के बावजूद अपनी सशक्त उपस्थिति से हम सबको चमत्कृत कर रहे है इन दिनों. बधाई भाई अनुज.....आपके लिए प्रस्तुत है अनुज लुगुन की एक नई कविता... मैं घायल शिकारी हूँ मेरे साथी मारे जा चुके हैं हमने छापामारी की थी जब हमारी फसलों पर जानवरों ने धावा बोला था हमने कारवाई की उनके खिलाफ जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि फसल हमारी है और हमने ही उसे जोत – कोड कर उपजाया है हमने उन्हें बताया कि कैसे मुश्किल होता है बंजर जम

नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा 16

आज फ़िर वही नदी है वही पानी, वही उद्दाम वेग, वही धाराएं, वही बहाव, वही उठती-गिरती-पडती लहरें ........सब कुछ गुत्थम गुत्था, आपस में और ऐसे बिखरे और उलझे हुए मानो शब्दों का कोई जाल हो जहां हर कोण से एक नया अक्स उभरता हो.........चारों ओर रेत ही रेत है किनारे पर, किनारे पर पसरी आदमियत की गन्दगी और सदियों से बोझानुमा ढोती हुई ये रेवा कहाँ से इतनी शक्ति ले आई है कि इस सबको अपने अंदर समेट कर बहती जा रही है. दूर कही सूरज डूबने की पुरजोर कोशिश कर रहा है...........लालिमा भी कोने में जाकर दुबक गई है झुरमुट में. सब कुछ अँधेरे में होने को है और एक लाश आई है अपने जीवन की पूरी परिक्रमा करने के बाद और अब यह मनुष्य योनी भी खत्म हो गई आज. जो साथ आये है उसके परिजन है एक भाई है जो बेहद अशांत और उद्दीप्त है पता नहीं क्या बडबडा रहा है कह रहा है "बेबी को ऐसा नहीं करना था .............मालूम नहीं पड़ा किसी को, सामने रहता था और यह सब कैसे हो गया, यह घाट के उस छोर का मकान था जहां मोहल्ले की गली का कोना बंद हो जाता था और फ़िर शुरू होता था भय, जुगुप्सा और घृणा का विस्तार.....बस हमारी बेबी वही धंस गई उसके साथ इ

नर्मदा के किनारे आख़िरी कुछ और दिन..............

 ये नर्मदा किनारे के आख़िरी कुछ दिन है और लगता है कि सब कुछ थम गया है...........पानी, रेत, हवा, भीड़, पूजा-पाठ, घाट, यहाँ तक कि भगवान भी ........लगता है एक सर्द सी जिंदगी इन घाटों पर काईनुमा जम गई है जहां पाँव रखते ही फिसल जायेंगे कदम और फ़िर अपरान्ह की इस चला-चली की बेला में सब कुछ शांत हो गया है.....अब पानी में फेंका पत्थर भी लहरों को पसराता नहीं है, कही कोई जादू होता नहीं दिखता......दूर कही रेतघाट पर जब एक स्त्री की लाश जलती है तो धुएं के बादल देर तक पानी के ऊपर छाये रहते है और पूछते है कि ये क्यों........जब एक लाश और किसी दूर किनारे पर जलती है तो हवाएं बेचैन हो जाती है...........पर एक उन्माद में डूबा यह पन्द्रह साल का संतोष शर्मा गुनगुनाता है "चंद्रचूड एक राजा जिसकी विपदा हरी, ओम  सत्यनारायण स्वामी.............."  

नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा 15

जब वह समय आया था और वह भी बिछडने का तो बस एक ऐसा तगड़ा झूठ बोला और नाटक किया कि सब कुछ वैसा ही होता गया जैसा मै चाह रहा था पर आज ना जाने क्यों...............वो सब कह देने को मन करता है और जी करता है कि कह दूँ कि वो सब एक झूठ था, नाटक था, ताकि वो वहाँ जब जाये तो मेरी स्मृतिया विलोपित हो जाये एकदम से और फ़िर दिमाग वही करें जो करने के लिए उसे वहाँ भेजा गया था क्या मै भूल पाया हूँ इन चार महीनों में पांच अगस्त और उसके पहले.............के समय को.......पर आज तो बारह नवंबर है कब तक चलेगा यह झूठ .............किशोरी ताई ने बचपन में सिखाया था कि सारी दुनिया को बेवक़ूफ़ बनाओ पर अपने आप से झूठ मत बोलो और आज यह कन्फेस करता हूँ कि वो सब नाटक था अपने आपको समझाने की झूठी तसल्ली और तुम्हे चैन से रहने देने के लिए एक नाटक.............ताकि उस मायावी दुनिया में रच बस जाओ और सब सीख लों...............नर्मदा में पानी बहुत तेजी से गुजरा है कई बार मैंने बाढ़ देखी है- अपने कमरे ही में, और शहर में चलती नाव भी-- पर जो जीवन का जोखिम मै उठा रहा हूँ तुम्हारे बगैर, वो कैसे किसी बाढ़ में बह जाने देता यह मेरे-तुम्हारे सांझे

देवास के मोहल्ले-3

आज तों गजब हो गया बुला लिया उन्होने फोन करके और फ़िर पुरी दोपहरी निकल गई. हीरा थी हीरा...........वो सात-आठ भाई बहनों में सबसे छोटी और लाडली, पढ़ी लिखी तों खास नहीं थी पर उस जमाने में मेट्रिक पास हुई तों सरकार ने बुलाकर नौकरी दे दी उसे..........बाद में पढाई की एम ए तक पुरे लक्ष्मीपुरे में पहली औरत थी एम ए करने वाली.....पर किस्मत देखो अपना तों जीवन यूँही निकल गया उसका , नौकरी, फ़िर फूटबाल खेलने भाई का परिवार, छोटा बच्ची, बड़े विधुर भाई, मुम्बई और पूना में रह रहे भाई बहनों के बच्चों को यही इसी लक्ष्मीपुरे में पालती रही..... शादी की तों कोई उम्र होती है...... निकलती गई, जिनगी भर वो पास के एक गाँव में आती जाती रही, नजर के टेम्पो पर उसकी उम्र का आधा हिस्सा निकल गया.......नजर टेम्पो वाले का भगवान भला करे.......यही मोहसिन पुरे में रहता था उसके वालिद तों कुछ और काम धंधा करते थे पर नजर ने दो टेम्पो डाल दिए और अल्लाह कसम चल निकले.....हाँ तों वो कह रही थी कि उसने शादी ब्याह किया नहीं, गाँव से जब शहर में आई इसी देवास में, तों जिस स्कूल में बदली हुई थी वहाँ एक खुर्राट माताजी थी जो साधू संतों का भेष ओढ

देवास के मोहल्ले-2

जब जाता था एक नई कहानी और फ़िर कहानी से कहानी निकलती रहती थी, और वो अनथक  कहते रहती आज ही वो सुना रही थी सुहास की बात- जो उसी मोहल्ले के बाड़े में रहती थी, रणदिवे मास्टर की बहन जिसकी शादी इंदौर में एक बेंक वाले से हो गई, बाई ने ही तों बताया था रिश्ता...... हमारी बाई बड़ी मददगार थी सबकी और महाराज साब के ड्राईवर  को हमारी बाई ने ही सुझाया था कि जब महाराज का मूड ठीक हो तब जमीन की बात कर लेना और सच में एक दिन ड्राईवर साब ने महाराज को जमीन की बात में उलझाकर ये मोती बंगले का प्लाट अटका लिया, महाराज साब तों थे ही धूत नशे में, दे दिया प्लाट, पर बाद में जब महाराज साब नहीं रहे तों खूब जमके लड़ाई हुई, अब ड्राईवर साब तों नहीं रहे, छोरे यहाँ-वहाँ  फेक्ट्रियों में काम करते रहे एक दिन मालूम पड़ा कि ये प्लाट अपना है, तों ले देकर अपने नाम करवा लिया -दो पटवारियों को खूब खिलाया और बस रजिस्ट्री अपने नाम करवा ली............वो सुहास......? अरे हाँ वही तों कह रही हूँ............सुहास की शादी में ये दोनों लड़कों ने खूब काम किया था--- बाड़े की लडकी की शादी और ये काम ना करें..... ऐसा हो ही नहीं सकता और ये पूरी रात लग

देवास के मोहल्ले - 1

तराना के बड़े घर को छोड़कर वो आ गई थी यहाँ अपने दोनों लडको और एक बेटी के साथ, धीरे धीरे उसने दोनों बच्चों को पढ़ाया पर क्या हुआ इंटर करके भी नौकरी नहीं मिली, फ़िर उसका बचा-खुचा रूपया भी खत्म हो गया भैया, घर में मरद मर गया था कर्जा था खूब सारा सो घर बेचा और यहाँ माँ चामुंडा के कदमों तले आ गई थी पन्द्रह बरस पहले..............छोटी माई के घर में रही किराए की खोली में पचहत्तर रूपये  देती थी खोली के, ना बिजली ना पानी बस जैसे तैसे जी रही थी............इसी बजरंग पुरे में भिया क्या बताऊँ.......छोरी की शादी की और उस छोरी का भाग देखो बाबू लड़का मंडी में हम्माल था- सो निभा ले गया काली छोरी को भी वरना लडके मिलते कहा है ऐसे चरित्तर वाले और उस बुढिया के दोनों लडके इंटर करके भी कमा नहीं पाए यहाँ - वहाँ सिंधियों और बनियों की दुकानों पर काम करते रहे..... यही एक-डेढ़ हजार कमा लेते थे पर फ़िर भी बुदिया ने शादी कर दी दोनों की, बहुएं आई तों वो पुरे मोहल्ले में रोटी-पानी करने लगी फ़िर एक टिफिन सेंटर पर लग गई दो हजार नगद मिलते थे और खाना अलग.............फिरी में........हाँ बुढिया भी पुरे मोहल्ले में झाडू पोछा करती

हम सबके दूलारे और प्यारे कसाब भैया- कांग्रेस और भाजपा के बीच सही का सेतु

  कोई बताएगा कि हम सबके दूलारे और प्यारे कसाब भैया कैसे है.........मै थोड़ा कन्फ्यूज हो गया कसाब भिया लिखूं या कँवर साहब या जमाई राजा या कुछ और............ मुझे तों लगता है कि देश को इस समय एक तटस्थ और पंथ निरपेक्ष आदमी की जरुरत है जो कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच सही और लक्ष्य आधारित सेतु का काम कर पाए, और सबक्को समां दृष्टि से देखे........ तों क्यों ना ये काम अपने ही देश के रूपयों -पैसों पर पले और तंदुरुस्त हुए कसाब भैया को इतना महत्वपूर्ण दायित्व दे दिया जाये.........और सबसे बढ़िया है कि अन्ना, अरविंद, वी के सिंह, या बहन मायावती, मुलायम, अमर सिंह, राम जेठमलानी या ऐसे किसी भी पार्टी या नेता को आपत्ति नहीं होगी, यहाँ तक कि मीडिया को भी नहीं होगी. और तों और पाक से रिश्ते सुधरेंगे, अमेरिका से सम्बन्ध प्रगाढ़ होंगे और बाकी पूरी दुनिया के सामने एक बढ़िया वाले बोले तों झकास वाली छबि उभरेगी..हमारी... सई है कि नही भाई लोगों और बहन लोगों......??? और फ़िर चीन भी डर जाएगा........क्यों भिया ....... देखो एकदम कूटनीतिक सुझाव एकदम मुफ्त में दे रहा हूँ फ़िर मत कहना कि

जितेन्द्र श्रीवास्तव की ये ताज़ा कवितायेँ

जितेन्द्र श्रीवास्तव की ये ताज़ा कवितायेँ कुछ दिनों पहले मेल से मिलीं. उनकी कविताओं से मेरा नाता पुराना है - गोरखपुर के दिनों का. बहुत जल्दी शुरू करके और लगातार बहुत अच्छा लिखते हुए वह अब उस मुकाम पर हैं जहाँ परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती. स्मृति उनकी कविताओं का हमेशा से एक बड़ा स्रोत रही है. अपने गाँव-क़स्बे को लगातार अपनी कविताओं में संजोते हुए उन्होंने उनसे अपने समय की बड़ी और व्यापक विडम्बनाओं के पर्दाफ़ाश की कोशिश की है. यहाँ भी एक पूर्व राजघराने की कोठी के मैदान के सार्वजनिक स्थल से निजी संपत्ति में तब्दील होने का जो एक दृश्य उन्होंने खींचा है वह हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का एक बड़ा बिम्ब प्रस्तुत करता है.  चुप्पी का समाजशास्त्र उम्मीद थी   मिलोगे तुम इलाहाबाद में पर नहीं मिले गोरखपुर में भी ढूँढा पर नहीं मिले ढूँढा बनारस , जौनपुर , अयोध्या , उज्जैन , मथुरा , हरिद्वार तुम नहीं मिले किसी ने कहा तुम मिल सकते हो ओरछा में मैं वहां भी गया पर तुम कहीं नहीं दिखे मैंने बेतवा के पारदर्शी जल में बार-बार देखा आँखे डुबोकर दे

नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा 14

अकेला ही था वो उस भीड़ में घाट पर......बाकी लोग अपने काम कर रहे थे, दिए जलाकर पानी में बहा रहे थे, अगरबत्ती जलाकर माँ नर्मदा की आरती बुडबुडा रहे थे, सुहागिनें अपने सर पर एक लंबा सा पल्लू खींचकर फूल पत्ती  बहा रही थी, कुछ लडके और लडकियां एक कोने में प्रेम कर रहे थे, एक तरफ बूढी विधवा महिलायें भजन गाते हुए अपने परिजनों को घर से दूर रहकर सुख दे रही थी, पानी अपने निर्बाध वेग से बह रहा था नर्मदा का .........एक दूर कोने में वो जोर- जोर से बडबडा रहा था हाथों में ढोल, फटे कपडे, चेहरे पर बेतरतीब सी बढ़ी हुई दाढी, आँखे धंसी हुई, सर के बाल जो सदियों से सूखे हुए थे, शर्ट जो किसी पंद्रहवीं शताब्दी का वस्त्र होने का सबुत था, आवाज ऐसी थी जो लगता था कि किसी दूर ग्रह के किनारे से गूंजते हुए आई है जो पूरी मशक्कत के बाद भी निकल नहीं पाती थी. कह रहा था कि समाज में सबके लिए भोजन पानी की व्यवस्था है, कन्या पूजा है, लड़कों को ब्राहमण बनाकर भोजन दिया जा सकता है पर एक अकेले आदमी के लिए कही कोई व्यवस्था नहीं, उम्र निकल गई अकेले रहते हुए, एकाकी जीवन की सारी त्रासदियाँ भुगत ली पर कही कोई ठौर ठिकाना नहीं....और तों औ

करवा चौथ के बहाने

बात मजाक की नहीं है बल्कि यह है कि इस दौर में स्त्री शिक्षा और सशक्तिकरण के बावजूद भी आज तक हम करवा चौथ, छठ, हरितालिकातीज जैसे त्यौहार जो घोर अत्याचारी किस्म के है- महिलाओं के लिए,  मना रहे है. आज एक प्रिय मित्र की पत्नी से बातें हुई जो इस समय गर्भवती है और लगभग आठवें माह में है, आज वे भी उपवास पर है जब हम सबने उनसे आग्रह किया कि वे कुछ तो खा लें या फलों का रस पी लें तों उन्होने बहुत श्रद्धा से मना कर दिया उन्होने अपने परिवार के कुलगुरु की बातों को उद्धत करते हुए कहा कि हिन्दू संस्कारों के अनुरूप पेट में पल रहे बच्चे पर माँ के संस्कार बहुत महत्वपूर्ण होते है यदि होने वाली संतान कन्या है तो वह यह महान संस्कृति सीखेगी और अगर यह बालक है तों वह सीखेगा कि स्त्री कितनी महान होती है जो पति को परमेश्वर मानती है. बहुत समझाने के बाद भी वो मान नहीं रही है और अपना पत्नी धर्म निभा रही है. फ़िर मैंने गंभीरता से सोचा कि महिलायें और एक गर्भवती स्त्री कितने उपवास सप्ताह में करती है और खाती पीती नहीं है नतीजा सामने है गंभीर कुपोषण और शिशु मृत्यु और माताओं की जचकी के दौरान मृत्यु. अफसोस तो तब होता है कि

मप्र में षड्यंत्र और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के गिरगिट

मप्र में पिछले पांच बरसों में एक बहुत बड़ा षड्यंत्र हुआ आम लोगों के साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के महामानवों और महामहिलाओं ने प्रशासन में बैठे गधाप्रसादों को देश विदेश घूमने का न्यौता देकर अपने कुत्सित दिमाग की गन्दगी परोसी और आम लोगों को समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को टारगेट बनाकर सरकार को रूपया दिया हर जिले को प्रदेश में प्रति वर्ष पच्चीस लाख रूपये दिए गये जो जिला योजना और सांखियिकी अधिकारी को दिए गये. सोचिये पिछले पांच बरस से यह रूपया दिया गया यानी एक जिले को अभी तक सवा करोड दिया गया जिसे सिर्फ कलेक्टर एवं जिला योजना अधिकारी ने स्व विवेक से खर्च किया सिवाय समुदाय को बेवक़ूफ़ बनाने के और प्रशासन के लोग घूमते फिरे रहे देश विदेश. जन अपेक्षाओं को सही तरीके से वेब पेज पर दर्ज किया गया पर आजतक ये अपेक्षाएं कितनी पूरी हुई कोई भी जिला दम ठोंककर नहीं कह सकता कि एक भी पंचायत या गाँव की जन अपेक्षाएं पूरी हुई हो गत पांच बरसों में हर साल जिला योजना बनाई गई परन्तु राज्य योजना आयोग के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है कि वो बता सके कि इस प्रयोग से जिसमे कुछ सार्थक काम हुआ हो बारह करोड

मिल लेने से मिलना थोड़े ही हो जाता है

गया तों बहुत दूर था कि एक बहुत पुराना सा, बहुत मीठा सा, बहुत भावुक सा रिश्ता बन गया था इन छः बरसों में, कितने-कितने देर तक हम यूँही बोलते रहे थे, फोन पर, चेट पर, सब कुछ बाँट चुके थे... पर कुछ था जो रह गया था बांटने से, कुछ था जो रह गया था सुना-अनसुना, कुछ था जो कह नहीं पाए थे........बस इसलिए चला गया था अपने छोटे से जीवन के पुरे तीन दिन देने, गया तो था कि ये करूँगा, वो करूँगा पर जाकर पता चला कि एक पनौती ही हूँ बस यूँही लौट आया बगैर कुछ बोले, समझे जाने बूझे....अब लग रहा है कि जीवन के तीन दिन व्यर्थ चले गये और बस......खैर अब कुछ हो  नहीं सकता........ यह शरद पूर्णिमा की रात थी और वो असंख्य सुबहों का सूरज सारे वादे करके भी नहीं आया लिहाजा मन मसोज कर लौटना ही था बस सारे रास्ते पटरियों का दर्द देखता रहा और फ़िर सीखा कि साथ-साथ चलने से कोई साथ थोड़े  ही होता है, बात करने से कोई अपना थोड़े ही हो जाता है, भावनाएं बांटने से मन का मीत थोड़े ही हो जाता है, और मिल लेने से मिलना थोड़े ही हो जाता है, दूर तक यात्रा करके जाने से कोई पहुँच थोड़े ही जाता है. बावला है मन भी और मै भी बस- थोड़े ही में बहक जाता है,

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

तुम्हारे लिए.............सुन रहे हो................कहाँ हो तुम..................... अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला -निदा फाजली.