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Showing posts from October, 2012

तेजिंदर के उपन्यास "काला पादरी" का हीरो- फादर प्रसाद

आपको क्या लगता है कि आंध्रा में सब ठीक है नहीं जी यह तूफ़ान से पहले की शान्ति जैसा है..........यहाँ से अस्सी किलोमीटर तक तेलंगाना है और फ़िर आन्ध्र है, यहाँ आंध्रा के लोग है सभी लोग आंध्रा के है और वे हमें यानी तेलंगाना के लोगों को थर्ड ग्रेड का नागरिक मानते है, हाँ हम लोग एडामेंट और स्टबर्ण है , है तों है, कम पढ़े लिखे है तों है............तों क्या इंसान नहीं है हमारे साथ सदियों से भेदभाव हो रहा है. जबसे आपणे एम पी को छत्तीसगढ़ में बांटा तों क्या छत्तीसगढ़ के लोग खुश नहीं है ? ये तों मीडिया के लोग है जो नक्सलवाद का डर दिखाकर छग को बदनाम कर रहे है, आज छग में सड़क है हर गाँव में सुविधा है नेता लोग अंदर गांवों में पहुँच रहे है, हमें भी तेलंगाना चाहिए हम कब तक बेवक़ूफ़ बनते रहेंगे. बल्कि मुझे तों लगता है कि महाराष्ट्र को भी अब समय आ गया है कि दो तीन हिस्सों में बाँट दिया जाये कब तक मुम्बई राज करती रहेगी, मुम्बई कभी भी विदर्भ को नहीं समझ सकती, हम आदिवासी है तों क्या ये हमारा गुनाह है............अब आपको हकीकत बताता हूँ कि मै भंडारा के एक चर्च में प्रिस्ट हूँ. पर हर जगह भेदभाव है..........मेरे प्रि

देवास के "ओटले" की महत्वकांक्षी योजनाएं

देवास के ओटले का जिक्र कई बार हुआ है और कई लोग इस पूरी प्रक्रिया को बहुत महत्वपूर्ण मानते है. कल जब Sunil Chaturvedi के घर पर हम लोग बैठकर Manish Vaidya की कहानी सुन रहे थे तों मनीष ने और सुनील ने कहा कि ओटले पर उनकी रचना प्रक्रिया मजबूत हुई है. लगातार पढाना, लिखना और बेबाकी से अपनी राय व्यक्त करना किसी भी रचना के आगाज़ और मुकम्मल स्तर पर पहुँचाने के लिए बेहद जरूरी है. राजस्थान से आये चरण सिंह पथिक ने अपनी कहानी "यात्रा' का वाचन किया और कहा कि आज से दस- पन्द्रह साल पहले जयपुर में ऐसे दोस्तों का जमावडा था जो इसी तरह से कहानी-कविता और दीगर विधाओं के लिखने- पढने वालों का जमावडा होता था और इसी प्रक्रिया में सशक्त रचनाएँ उभर कर आती थी पर अब यह मिलने-जुलने की परम्परा बंद सी हो गई है और अपने-अपने खेमों में बंद रचनाकार भी अपनी लेखनी की धार को कुंद करते जा रहे है. अगर देवास में ओटला ने यह परम्परा निभाई है और इसे जारी रख रहा है तों यह प्रशंसनीय है बस यही है कि इसे लंबे समय तक आगे बढाते रहना होगा. मित्रों देवास के आँगन में लिखने- पढने वालों का मिला-जुला प्रयास है ओटल

तुम गिर चुके हो मेरी ही नहीं, इस संसार में सबकी नज़रों से भी

यह जंग थी दो लोगों की और परिणाम पता नहीं किसी और भुगतना पडेगा................कब, कहाँ, कैसे, यह तों नहीं पता पर हालात और खराब हो रहे है यह बात सोलह आना सच है.............. इस जंग का पूरा मुकम्मल प्लान था, आज भी है और हमेशा रहेगा.............पर इस जंग के मायने मेरे लिए और उसके लिए अलग हो सकते है................वो तों खैर आपस में खून का एक सम्बन्ध भी रखते थे, जमीन की हद से जद तक जुड़े थे और हम.............हम तों बस यूँही साथ-साथ चले और जुडते गये ....गाहे-बगाहे..............पर हालात ऐसे हो जायेंगे यह तों कभी सोचा नहीं था..........इस तरह से षडयंत्र और ऐसे घातक वार वो भी निहत्थे आदमी पर..... आप विचार को मार नहीं सकते, आप एक कीड़े को कुचल सकते हो पर उसकी कुतरने की कला को नहीं मार सकते...........जीवन ऐसा होता है यह पता तों था पर हम तुम और वो इतने गिर जायेंगे वो भी ऐसे ऐसे..........यह तों असंभव था, शर्म भी नहीं आती अब..............यह जंग जीत कर ही हारी जा सकती है अब सिर्फ अपना जमीर बेचकर और सब कुछ जीत-हारकर बस........ तुम गिर चुके हो मेरी ही नहीं, इस संसार में सबकी नज़रों से भी......अब इस जंग को

राजस्थान के कथाकार चरण सिंह पथिक और अपनी उजबक की तरह आदत

कल रात राजस्थान के कथाकार चरण सिंह पथिक को सत्यनारायण देवास लेकर आया था, जो यहाँ तीन चार दिन रहेंगे, रात में उनसे डा प्रकाशकांत जी के यहाँ खूब गप्प की और समझा की हिन्दी कहानी में खासकरके ग्रामीण पृष्ठ भूमि की कहानियों के सामने क्या चुनौतियां है . बात ही बात में मैंने एक सवाल पूछा की यदि बूढ़ी काकी, चीफ की दावत , बूढ़े का उत्सव और पीली छतरी जैसी कहानियों को आज के सन्दर्भ में ग्रामीण चरित्र या आंचल िक बातों के परिपेक्ष्य में आंका जाए तो क्या निकलेगा.....और क्या आज का कथाकार क्या उसी नजरिये से ग्राम जीवन को देखता है जो प्रेमचंद देखते थे .......या आज की अधिकाँश कहानियों में दलित, वंचित और उपेक्षित लोग काफी आ रहे है जैसे सत्यनारायण की कहानी में पर आज भी गाँव की आधे से ज्यादा बातें छूट रही है , तरुण भटनागर की कहानी का भी जिक्र हुआ और विनोद कुमार शुक्ल का भी जो एक नए तरह के फ्रेमवर्क लेकर आते है पर क्या इनमे भी सम्पूर्ण ग्राम जीवन है.....................सवाल तो बहुत है बस सिलसिलेवार इमानदारी से जवाब खोजने वाला चाहिए.....चर्चा में बहादुर पटेल, दिनेश पटेल, सत्यनारायण, प्रकाशकांत जी, सुनील

तुम्हारे लिए...........सुन रहे हो.............................कहाँ हो तुम..........

क्या जीवन ऐसा हो सकता है की हम, हम ना रहे, मै, मै ना रहूँ और तू , तू ना रहे...........  तो फिर क्या होगा यह तय करना है मुझे, तुम्हे, उसे, इसे और हम सबको............ और फिर निकल पड़ना है एक अनंत आकाश की ओर, एक अथक निर्जीव देह के साथ नितांत अकेले ........ निष्णात होकर, निसंग होकर, निस्तब्ध होकर और निस्तेज सा.......... ताकि वो सब पा सके जो निरंतरता बनाए रखता है जीवन की इस आपाधापी में ....... क्योकि जीवन एक प्यास का गहरा कुआ है जिसकी झिरें बूझ चुकी है यहाँ तक आते-आते...... इस बियाबान में.....

भारतीय प्रशासनिक अधिकारी बनाम गधाप्रसाद

भारत में हम सब लोग लोकतंत्र में रहते है और यह सब जानते है कि सारे बड़े निर्णय और काम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते है और वे ही संसद और विधानसभाओं में बैठकर सारे फैसले लेते है और कार्यपालिका उन पर अमल करती है. परन्तु भारत में अभी भी कुछ क्षेत्र ऐसे है जहां इन जन प्रतिनिधियों को दर किनार करके भारतीय प्रशासनिक सेवा के गधाप्रसाद नामक अफसरान सारे निर्णय अपनी तुनकमिजाजी और लगभग तानाशाही भरे अंदाज में करते है. जमीन अधिग्रहण और आवंटन, हथियारों के लायसेंस, खनिजों की खदानों के आवंटन और लायसेंस, मदिरा लायसेंस, जंगल जमीन से जुड़े मुद्दें, ये सब क्यों इनके एकाधिकार में है??? इनका सारा समय जो काम के लिए होता है सिर्फ और सिर्फ इन्ही मुद्दों पर खर्च करते है. अपने समय का निन्यानवे प्रतिशत समय ये समाज के उच्च वर्ग यानी उद्योगपति, रसूखदार, गाँव देहात के जमींदार, नेता, विधायक, हथियारबंद लोगों, खनिज खदानों के मालिक यानी कुल मिलाकर उन लोगों के लिए देते है जो सीधे सीधे इनका फायदा पहुंचाने वाले होते है. और गरीबों के लिए इनके पास ना तों समय है ना कोई सहानुभूति.......मेरे एक मित्र के अनुसार भारत

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कौन तार से जोड़ी चदरिया, झीनी झीनी चदरिया - होशंगाबाद के रेशम केन्द्र की साहसी महिलाएं

प्राकृत यह एक रेशम केंद्र ही नहीं वरन डेढ़ सौ महिलाओं के लिए जीवन रेखा है जो रोज- रोज उनके घरों में जीवन में और साँसों में सैकड़ों बार धडकती है और यही कारण है कि वे हफ्ते में बमुश्किल एकाध छुट्टी लेती हो और साल भर में बहुत ही किसी महत्वपूर्ण त्यौहार पर. रोज सुबह नौ बजे से इन डेढ़ सौ महिलाओं की चहल-पहल शुरू होती है तों सूर्यास्त तक जारी रहती है, मशीनों की घरघराहट, बदबू जिसकी अब उन्हें आदत पड़ गई है, से जी नहीं उकताता बस सूर्योदय के साथ ही घर के जरूरी काम निपटाकर वे दौड़ी चली आती है इस प्राकृत में जहां ना मात्र सिर्फ वे काम करती है बल्कि अपने सुख-दुःख आपस में बांटकर, मदद कर, बतियाकर हलके हो लेती है. रेशम केन्द्र में लाखों कीड़े रोज मारे जाते है ताकि एक बेहतर किस्म के घागे का निर्माण किया जा सके जो ना सिर्फ सुन्दर हो, ना सिर्फ टिकाऊ और उपयोगी हो, बल्कि गुणवत्ता में जिसका कोई सानी ना हो. यह रेशम केन्द्र इन्ही डेढ़ सौ महिलाओं के जीवन में बिलकुल उस कोकून की तरह है जहां ये रोज-रोज आती है

"अंतिम फैसला"- अदनान कफील

""अंतिम फैसला"   हमारी मेहनत हमारे गहने हैं, हम अपना श्रम बेचते हैं, अपनी आत्मा नहीं, और तुम क्या लगा पाओगे हमारी कीमत? तुम हमें अपना हक़ नहीं देते, क्योंकि तुम डरते हो, तुम डरते हो हम निहत्थों से, तुम मुफ्त खाने वाले हो, तुम हमें लाठी और, बन्दूक की नोक पे, रखते हो- लेकिन याद रक्खो, हम अगर असलहे उठायें, तो हम दमन नहीं, फैसला करेंगे..........    -अदनान कफील अदनान कफील 17 साल के है और दिल्ली विश्वविधालय में बी.एस. सी. कंप्यूटर साइंस के छात्र है। इनके युवा तेवर देखकर लगता है कि कविता में आग है और एक दिन अपनी परिपक्व समझ से जलजला पैदा करेंगे.....बहुत उम्मीद और अपेक्षाओं के साथ ढेरो शुभकामनाएं ...लिखते रहो अदनान कफील साभार Yadav Shambhu

कठिन समय में जब सब तरफ से सिवाय निराशा के कुछ नजर नहीं आ रहा है

अभी कुछ दिन और रहूंगा तुम्हारे साथ, तुम्हारी खबरों के साथ अभी कुछ दिन और बुढा और धूमिल होउंगा और इधर के उजाले को ओट देकर देखना होगा अभी और इंतज़ार करना होगा, नफ़रत को झेलना और गुस्से को दबाने की कला सीखनी होगी. अभी और धूल गिरेगी गोधुली में उतरना होगा गुम होने तक ठण्ड से राहत का इंतज़ाम करना होगा आग जलानी होगी अभी और धीमे चलना होगा एक छड़ी खरीदनी होगी पुराने कपड़ों की गंध अभी और झेलना होगी कुछ लोगों से कहना होगा, आपको पहचानता हूँ मै थोड़ा थोड़ा, दुनिया से दुनिया का अर्थ पूछना ही पडेगा........... -दूधनाथ सिंह (साभार -अशोक वाजपेयी- जनसत्ता "कभी-कभार" रविवार 14 अक्टूबर 2012)

प्रशासन पुराण 61

साहब ने पूछा कि प्रदेश का जन्म दिन मनाना है, वो क्या कहते है स्थापना दिवस,  शासन के सख्त आदेश है कि कोई भी विभाग इससे छूट ना पाए और सभी को इसमे भाग लेना है, यह ध्यान रहे कि शहर के नागरिकों को इसमे लाना है,  सी एम ओ यह ध्यान रहे..........!!! एक बोला सर पिछले साल कुर्सियां खाली रह गई थी और तत्कालीन जिलाधीश ने जब यह तस्वीर अखबार में देखी तों भड़क गये थे, इस बार क्या करे छोटा बोला.  तों अबकी बार सारे फोटोग्राफरों को कहना कि तस्वीर ऐसी खींचे कि सभागृह भरा- भरा नजर आये, हाँ कोई खास पहल......जी सर वो सरकार का मानना है कि बेटी बचाओ को ज्यादा तवज्जो दे और हरियाली कार्यक्रम को भी .......ठीक, महिला बाल विकास ध्यान रहे एक- दो बेटी वालों को सम्मानित कर दो, झुग्गियों से पकड़ लाना और ढंग के कपडे पहनना उन्हें पहले स्टेज पर लाने के ओके......वन विभाग पेड़ लगाओ..........सर अभी इस मौसम में .........जी हाँ, शासन की मंशा का निरादर मत करो, पेड़ लगाओ और सुनो वो गर्ल्स कालेज की प्राचार्य आई है क्या .............जी सर, अचानक एक चहकती सी आवाज सुनाई दी, और सबका ध्यान उधर ही रह गया. .........देखिये आपकी सारी लडकियां

महिला शौचालय और बराबरी का स्वप्न

भाई Sidharath Jha ने एक दुखद खबर शेयर की है कि दिल्ली आकाशवाणी पर चार सौ रूपये दैनिक वेतन पर काम करने वाले एक लडकी / महिला कर्मचारी जब शौचालय में गई थी तों वहाँ सीट धंस गई और उसके प्राईवेट पार्ट्स पर गंभीर चोटें आई है उसे इसके लिए टाँके लगवाने पड़े और हद तों तब हो गई जब उसके साथ इलाज करवाने के लिए कोई साथ भी नहीं गया. यह हाल है इस देश की राजधानी का और महिलाओं के लिए सुविधाओं का. जब दिल्ली आकाशवाणी के ये हाल है तों हमारे प्रदेश के पिछड़े छतरपुर या रीवा जैसे केन्द्रों की हालत क्या होगी, एक तरफ तों दिल्ली योजना आयोग में पैंतीस लाख के शौचालय बने है दूसरी ओर ये ज्वलंत उदाहरण है कि हम महिला मुद्दों के प्रति कितने संवेदशील है. यहाँ होशंगाबाद कलेक्टर कार्यालय में जो बाहर शौचालय बना है उसमे बारहों महीने पानी टपकता रहता है और महिलाओं के लिए, जो उसके ठीक बगल में बना है, वहाँ दरवाजा भी नहीं है. असल में महिला बराबरी की बात तों हम बहुत करते है पर महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर एक अदद शौचालय की व्यवस्था नहीं कर सकते. मैंने अपने काम के दौरान देखा है जब ये महिलाए अपडाउन करके किसी गाँ

मालगाड़ी - हेमंत देवलेकर की एक अप्रतिम कविता

हेमंत देवलेकर की एक अप्रतिम कविता, जो कविता नहीं वरन उन सभी चीजों और बातों को रेखांकित करती है जो हमारे जीवन में चुपचाप से गुजर जाती है और कही दूर कोलाहल भी नहीं होता, ना ही कोई बेचैन- बस यही कही दूर सवेर हम अपने आपसे गुत्थम-गुत्था होते रहते है बहुत अंदर कही खामोशी में और बीतते समय के साथ जीवन भी यूँही गुजर जाता है एकदम से .............यह मालगाड़ी के प्रतीक है एक तरह की अवचेतन अवस्था है जो कही अंतर्मन में घटित होती रहती है और एक विक्षिप्त की तरह से हम बस सब देखते रहते है और इस पीड़ा को व्यक्त भी नहीं कर पाते है. मालगाड़ी रेल्वे स्टेशनों की समय सारिणी में कहीं नहीं होतीं वे नामज़द। प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं। स्टेशन के बाहर खड़े सायकल रिक्शा, आटो, तांगेवालों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनके आने या जाने से। चाय-नमकीन की पहिएदार गुमठियाँ कहीं कोने में उदास बैठी रह जाती हैं वज़न बताने की मशीनों के लट्टू भी क्या उन्हें देख धड़का करते हैं? आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा बुकस्टाल वाला अचानक चौंक नहीं पड़ता किताबों  पर जमी धूल हटाने के लिये। मालगाड़ियों के आने जाने

अथ: सलमान खुर्शीद कथा और मीडिया के युवा तुर्क.........

वैसे धृतराष्ट्र तों कोई और है, हम सब रोज उन्हें देखते है और झेल रहे है, और ये सलमान तो बेचारे मुझे दुर्योधन से गुस्सैल और निहायत मूर्ख लगते है........ इस सारे खेल में अरविंद और अन्ना का क्या................ Ashish Maharishi ने जो पांच सवाल आज पूछे है उंके जवाब कौन देगा................और राबर्ट वाड्रा को तों ये सलमान ले डूबे कही यह तों नहीं कि सोनिया जी जान देने की बात करने वाले सलमान यहाँ इस कुए में डूब रहे है ताकि बची रहे इज्जत घर की और दामाद रहे सुरक्षित.........फ़िर बन् जायेंगे कही राज्यपाल और लुईस बन् जायेगी राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ...............???? आज मीडिया के युवा तुर्कों को देखा. जहां तक इनमे दम की बात है वो तों बहुत है पर जो धैर्य और समझ होना चाहिए वो कही कम दिखती है, सजी संवरी मीडिया की दुनिया और बार- बार अपने बालों को सहलाती युवतियां, सजे सवरे युवा, ब्रांडेड कपडे, होठों पर अंगरेजी का नशा और हाथों में कागजों का पुलिंदा हिलाते जोश और गुस्से से भरे पत्रकार वाह क्या भविष्य है इस देश के मीडिया का, मुझे प्रोढ या परिपक्व पत्रकार इस पूरी बात

नमन और श्रद्धांजलि डा श्रीप्रसाद जी को

अभी राजेश उत्साही से बातचीत हुई और उन्हें यह दुखद समाचार दिया और अनुरोध भी किया कि वे अपने शब्दों में हमें बताए कि डा श्रीप्रसाद जी का बच्चों के साहित्य में क्या योगदान है.......क्योकि राजेश ने उनके साथ लंबे समय तक चकमक में रहते बच्चों के साहित्य पर काम किया और श्रीप्रसाद जी जैसे कवियों के साथ बच्चों के लिए नए सृजन किये...........हिन्दी ने देश के तमाम बच्चों ने अपने लिए लिखे जानेवाले साहित्य और बाल साहित्य का सच्चा पुरोधा खो दिया ............नमन और श्रद्धांजलि डा श्रीप्रसाद जी को    

प्रशासन पुराण 60

आम तौर पर सरकारी विभागों में पांच हजार रूपये से ज्यादा की राशि के स्वीकृती जिला कलेक्टर करते है और हर प्रकार के चेक पर हस्ताक्षर, चाहे वो पांच हजार के हो या उससे कम के हो, सम्बंधित विभाग के प्रमुख और जिला कलेक्टर ही करते है. परन्तु ग्राम पंचायतों में लाखों के चेक सरपंच और सचिव करते है ना कोई स्वीकृती ना ना कोई नास्ति ना कोई और कागज़ी कार्यवाही बस सीधा चेक बेंक और फ़िर जेब........यह भी भ्रष्टाचार का एक सबसे बड़ा कारण है कि गाँवों का विकास नहीं हो रहा. सचिव जो अमूमन दसवी या बारहवी पास है और सरपंच जो सिर्फ नाम मात्र को पढ़े है व्यापक तौर पर...लाखो का ट्राजेक्शन करते है नरेगा आने के बाद पंचायतों में राशि की बाढ़ आई हुई है इसके अलावा विधायक, सांसद और जन भागीदारी के काम कुल मिलाकर ढेर रूपया पर कही कोई प्रक्रिया नहीं है ना मूल्यान्कन है बस आडिट नाम का चुतियापा है जिसमे सरकारी आडिटर बहुत कुछ जिम जाते है सरपंचों से .....अब कोई कैसे ये बताए कि ये बदलेगा कैसे.........चेक पर हस्ताक्षर के पावर किसे दिए जाये ताकि प्रक्रिया सुनिश्चित की जा सके और सही आहरण हो युक्तियुक्त ढंग से राशि का सदुप

कहाँ जाओगी ,दुर्गा - कैलाश वानखेडे...........

(संदीप नाईक की खबर फोटो को देखते हुए और उदय प्रकाश की कविता पढ़कर ,बैतूल की महिला कुली ,दुर्गा पर अपनी प्रतिक्रिया इस शक्ल में आई है .) जल रही है  आँख अभी जबकि पढ़ नहीं पाया पूरा अखबार कि फेसबुक के सारे अपडेट पढ़ देख नहीं पाया बस दिखी तस्वीर दुर्गा की संदीप की वाल से उदय प्रकाश की  कविता तक आते आते मेरी आँखों में धुंधलका आ गया इनकार कर रहा है कोई भीतर से चल गोली खा और सो जा . सो रहा हूँ ढाई हजार से ज्यादा सालों से उनकी अफीम बेहद कारगर है सुला देती है भुला देती है चुपके से बेटी को देकर नाम. पिटती है ढिंढोरा कि बलशाली है कि नाम होने से इतनी ताकत है कि चमकीले चमचमाते बैग को उठाते हुए कन्धा झुकता है कि पता ही नहीं चलता कि ,इतना भारी होगा. बोलने वाला बोलता है चार बेग के साठ रुपे...? चल छोड़ मै ही उठता हु  तेरको देख के लगा चार पेसे ईमानदारी के कमा लेगी इधर उधर गुंडों के चंगुल से बच जाएगी वरना...तुम्हारी उमर मासूमियत भारी पड जाएगी ...देखती नहीं टीवी कितने रेप .... तभी तो केते हे पन्द्रह की उमर में कन्या दान कर मौज मस्ती करो और भड़वों से

दुर्गा और उदय प्रकाश की कविता...........

मेरी दुर्गा वाली कल की छोटी सी कहानी से मैंने जीवन में इतना सम्मान कभी नहीं पाया , आज उदय प्रकाश  जी ने इस पोस्ट पर एक अदभुत कविता लिखी है और कहा है कि " और आभार अफलातून भाई और संदीप के सरोकारों को, जिसकी ज़रुरत हमारी किसी भी महत्वाकांक्षा से बहु बहुत बड़ी है...." मेरे लिए यह सबसे बड़ा सम्मान है. आपके लिए यह कविता साझा कर रहा हूँ..... (अभी-अभी प्रिय अफलातून जी के वाल पर देखा संदीप नाईक की पोस्ट 'दुर्गा', जो कुली है, बैतूल के रेलवे प्लेटफार्म पर, का चित्र. उसी की प्रतिक्रया में ये कुछ शब्द...) एक सौ नब्बे किलो का असबाब सिर पर उठाए प्लेटफार्म पर चल रही है इक्कीस साल की सांवली दुर्गा.... दुर्गा क्या किसी भील या संथाल, कोल, बैगा या पनिका की बेटी है ? क्या उसके मोटे सुन्दर होठों, चपटी मासूम नाक और समूची सभ्यता को संदेह की नज़र से देखती भेदती आँखों की मुक्ति के लिए ही अफ्रीका में लड़े थे नेल्सन मंडेला और बैरिस्टर मोहनदास करमचंद क्या इसी दुर्गा के लिए गाया था जूनियर मार्टिन लूथर किंग ने : 'हम होंगे कामयाब ....होंगे कामयाब एक दिन ...' 'वेंसेर

बैतुल की दुर्गा को सलाम

बैतुल से लौट ही रहा था कि स्टेशन पर एक युवा लडकी को ढेर सारा सामान ढोते हुए देखा तों हैरत में पड़ गया मैंने उसे पास बुलाया और पूछा कि क्या मै दो मिनिट बात कर सकता हूँ और तस्वीर ले सकता हूँ तों बहुत जोश और खुशी से बोली ...जी, जरुर, मेरा नाम दुर्गा है, पिताजी के किसी घटना में पाँव खराब हो गये, घर में सात भाई-बहन है और कमाने वाला कोई नहीं, सो, मैंने यह कूली काम ले लिया  और अब बैतुल स्टेशन पर काम करती हूँ. अपनी उम्र इक्कीस बरस बताते हुए थोड़ा अचकचा गई वो दुर्गा. दसवी में फेल हो गई थी साहब सो पढना छोड़ दिया, अब घर में काम करना पडता है पर दस साल बाद मै ऐसी नहीं रहूंगी, ओपन से पढ़ रही हूँ और जल्दी ही सब पढाई पूरी करके अच्छा काम करूंगी, स्टेशन पर सब मदद करते है, कोई छेडछाड नहीं करता, यात्री भी जो मांगती हूँ -दे देते है. हाँ पर आप मुझे कमजोर ना समझे- मै पैंसठ से सत्तर किलो तक का बोझ उठा लेती हूँ मै किसी मर्द कूली से कम नहीं हूँ. सुबह आठ बजे आती हूँ देर रात नौ बजे तक रहती हूँ- स्टेशन मेरा घर है साहब. आप क्या कह रहे है लाडली लक्ष्मी योजना........अरे साहब वो तों इक्कीस साल पूरा होने पर लडकी क