Skip to main content

Posts

Showing posts from February, 2013

आधी धरती अँधेरे में थी वहाँ

लगा तो नहीं था कि ये तुम हो  लगा तो यह था कि यह तुम ही हो अपनी आवारगी पर मैंने कभी सोचा ही नहीं और सहजता से कह दिया  तुमने  कि जो अपना नहीं हो सकता  वो किसी का नहीं हो सकता  और फ़िर तुमने वो सब याद दिलाया  जो घटित हुआ था किसी कोने में  इसी धरती के एक कोने में  नि:शब्द था मै और भोथरा गया  बेबस सा सोचता रहा क्या कहूँ  यह एक प्रेम की शुरुआत थी या अंत  मुझे नहीं पता पर उस सबको याद  करते हुए मुझे सिर्फ यही लगता है  जीवन में प्रेम कभी पूरा नहीं होता,  होता तो प्रेम भी नहीं कभी पूरा  पर एक आदत सी पड़ जाती है  धरती, चाँद और सितारों के बीच से  जिंदगी को निकालने की बगैर  यह जाने कि सबकी अपनी अपनी  कहानी होती है बगैर यह जाने कि अक्सर वहाँ धरती आधी अँधेरे में थी (जानती हो ना आज ये कविता तुम्हारे लिए है)

आपने सिक्कों की खनक सुनी है ?

वो सिक्के ही थे दस, पांच, तीन और दो पैसों के जिन से दो चार होकर बड़ा हुआ मै जवाहर चौक पे खडा होकर दिया था भाषण जब तुतलाती जुबान से तो माँ ने हाथ में धर दिया था तीन पैसे का सिक्का सड़क पर जाते मैयत से उठाया था एक पांच पैसे का सिक्का उस्ताद रज्जब अली खां साहब मार्ग, देवास  के किसी सेठ के मरने पर तो बहुत मार खाई थी पिता से महेश टाकीज़ में पतिता फिल्म के गाने पर भी भर गई थी जेब सिक्कों से जिन्हें बीन लिया था जमीन से उस भीड़ भरे टाकीज़ में और फ़िर घर आकर गर्व से बताया तो फ़िर मार खाई पिता से कितना कुछ आ जाता था उन छोटे सिक्कों में चाय की पुड़िया, मीठा तेल, मेहमानों के लिए पर्याप्त शक्कर दूध, हर इतवार की जलेबियाँ, एक पॉलिश की डिब्बी, बुखार की गोली, भगवान के लिए हार शायद पूरा संसार उन दिनों  इन्ही छोटे सिक्कों से खरीदा जा सकता था बात पुरानी तो जरुर है पर सच है धीरे धीरे बड़े सिक्के आये  चार आने, आठ आने के तो भाषा ने  भी अपने अर्थ बदले और सिक्कों में ढली   कहावतें बनी कि सोलह आना सच चवन्नी की औकात वाला आदमी आमदनी अठन्नी खर्चा रूपया खरे सिक्के वाला आदमी  खोटा सिक्का और ना जाने क्या-क्या आज स

नदी किनारे से अनन्तिम कथा ना बेचैनी की ना जीवन की..... फरवरी 26, 2013

                                                ज़िंदगी में निर्णय लेना जरूरी हो जाता है कई बार खासकरके तब जब आपको कोई छल, प्रपंचना से बरगलाते हुए अपने स्वार्थ को पूरा करना चाहता हो बुरी तरह से तनाव देते हुए और जिद पर आकर आपको मजबूर करने की कोशिश करें, बेहतर है ठोस निर्णय ले और जवाब दें ना कि घिघियाते हुए कुछ क्षणिक तनावों की वजह से हर कुछ स्वीकार ले. इस सुबह में हल्की-हल्की हवा चल रही है- इसमे कही फाग की आगत है, कही एक चुलबुलाहट और दिलों-दिमाग को मदहोश कर देने वाली खुश्बू......... और अब समय आ गया है कि पुनः घर लौटा जाये......पन्द्रह साल की आवारगी के बाद एक अनुशासन में फ़िर लौटा जाये.........इन पन्द्रह सालों में बहुत कुछ देख लिया, कर लिया, जी लिया और सारी यारी दोस्ती देख,कर और भुगत ली. याद आ रहा है चल खुसरो घर आपने रैन भई चहूँ देस जाना तो कही से कभी भी नहीं चाहा, परन्तु ना जाने क्यों अपने ही जाये दुःख आड़े आये हमेशा से, और बदलता रहा शहर दर शहर, सामान का बोझ ढोते हुए घूमता रहा दुनिया में और फ़िर एक दिन याद आया कि अब बहुत हो गया अपना साम्राज्य और

किस्सागोई करती आँखें - प्रदीप कान्त के पहले संग्रह पर बहादुर पटेल की टिपण्णी.

जैसा की प्रदीप कान्त का व्यक्तित्व सरल सहज है तथा वे अपने व्यवहार सभी का दिल जीत लेने में माहिर हैं. बेहद संवेदनशील हैं वे कविता में जीते है. उनका जीवन व्यवहार ही काव्य व्यवहार है यह उनकी कविताओं में सहज ही देखा जा सकता है. उन्होंने अपने अंदाजे बयां से एक अलग तरह की पहचान बनाई. जो उनकी गजलों को एक तरह की विशिष्टता प्रदान करती हैं. लम्बे समय से गजल कहते रहे प्रदीप ने धेर्य से अपनी गजलों की पहली किताब परिपक्वता के साथ हमारे सामने प्रस्तुत की. जबकि हम लम्बे समय से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी गजलें पढ़ते रहे हैं. उनकी यह गजलों की किताब “किस्सागोई करती आँखें” आश्वस्त करती हैं. इस संग्रह की रचनाएँ हमें बहुत गहरे में ले जाती है एवं नए अर्थों, जीवनानुभवों और विषयो को परत दर परत खोलती है. तब हम स्थानीयता से जुड़ते हुए इस संसार से निस्पृह नहीं रह पाते हैं. प्रदीप की इन गजलों को पढ़ते हुए हम इनमे कविताओं का आस्वाद पाते हैं. शायद इसीलिए यश मालवीय उनको किताब की भूमिका में कवि से ही संबोधित करते हैं. कविता और गजल के फार्म से बहार निकलकर हम देखें तो पाएंगे कि उनका सोंदर्य बोध क

आधी रात यह पदचाप सड़क पर- आशुतोष दुबे

इसमें किसी विजेता की धमक नहीं किसी चोर की सतर्कता भी नहीं-- इसमें एक आकुलता है वापसी की एक संकोच सा है और एक उत्साह भी यह सोचना भी कितनी राहत देता है कि कहीं कोई लौट रहा है और कोई दरवाज़ा उसके लिए खुलने का इंतज़ार कर रहा है - आशुतोष दुबे 

वीणा वादिनी वर दे, प्रिय स्वतंत्र भारत में ...........

भारत के उच्चतम न्यायालय में कुल छब्बीस जज साहेबान कार्यरत है हाल फिलहाल और उनमे से मात्र दो महिला जज है श्रीमती ज्ञान सुधा मिश्रा और श्रीमती रंजना प्रकाश देसाई. अब कहिये कि महिला मुद्दों को लेकर महिला जज होना चाहिए, हर थाने में महिला पुलिस होना चाहिए, हर अस्पताल में महिला डाक्टर होना चाहिए और देश में महिलाओं को बराबरी मिलना चाहिए. दरअसल में पंचायतों में कुछ दम नहीं है जो थोड़ा बहुत था वो सरकारों ने कबाडा करके बर्बाद कर दिया इसलिए वहाँ पचास प्रतिशत आरक्षण देने से कुछ भला बुरा होने वाला नहीं है. पर जहां निर्णय है, जहां रणनिती बननी है, जहां योजना बननी है, जहां पैरोकारी होनी है, जहां बिल पास होने है या क़ानून बनने है वहाँ महिलाए क्यों हो??? होगी बुद्धिमान तो होगी पढ़ी लिखी या विदुषी- हमारे ठेंगे से, रहे घर - ड्योढी में रहे, चूल्हा चौका सम्हाले और बच्चे पैदा करके सम्हालें उन्हें. इन ससुरियों को यहाँ-वहाँ लाकर कलह ही बढ़ाना है, इससे बेहतर है पंचायत आदि में आरक्षण देकर लालीपॉप पकड़ा दो, सारे महिला संगठन और वृंदा करात जैसे कामरेड शांत हो जायेंगे और फ़िर सारा जहां हमारा है ही. वीणा वादिनी वर दे

शिक्षा का क़ानून-एनजीओ, संस्थाएं और कार्पोरेट्स - मप्र में एक सवाल

मित्रों, शिक्षा का अधिकार क़ानून बन गया है सभी जगह इसे लागू  करने के भरसक प्रयास किये जा रहे है. नया सत्र चालू होने वाला है. शासन स्तर पर अतिरिक्त राशि जुटाकर माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये निर्देशों के पालन हेतु भी राज्य दृढ संकल्पित है. सर्व शिक्षा अभियान के तहत सरकारें स्कूलों में कई प्रावधान कर रही है. शिक्षकों की भर्ती में बीएड की अनिवार्यता की जा रही है, छोटे-मोटे निजी विद्यालयों पर भी इसके शिकंजे कसे जा रहे है ताकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किये जा सके. जो शिक्षक शासन में प्रशिक्षित नहीं है उन्हें सरकार क्रम से प्रशिक्षित कर रही है, और यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले तीन वर्षों में पुराने सभी शिक्षक प्रशिक्षित हो जायेंगे. इस पुरे परिदृश्य में जो छोटे-मोटे एनजीओ, संस्थाएं और बड़े कार्पोरेट्स शिक्षा में काम कर रहे है यानी सरकारों के साथ विद्यालयों में एमओयु साईन करके शिक्षक प्रशिक्षण से लेकर पाठ्यक्रम बनाना, इसे पाईलेट स्तर पर देखना-परखना, फ़िर लागू करवाना, मूल्यांकन, अनुश्रवण, कक्षा में बच्चो के साथ गतिविधियाँ करना, समुदाय को शिक्षा से जोड़ना, पालक शिक्षा संघ के लिए
जब अशोक कलिंग युद्ध के बाद व्यथित था, तो उसने सबसे पूछा कि जीवन का क्या उद्देश्य है और कौन विजेता है ? एक भिक्षु ने उत्तर दिया "हे राजन सफल वो है जिसने अपनी यात्रा पूरी करली ..." साभार Prakalpa Sharma शायद समय आ गया है हम राजनों का और यात्राओं को पूरा करने का , यही शाश्वत सत्य है !!!

नदी किनारे से बेचैनी की कथा

जानता तो मै नहीं था उसे, बस कल रात में डेढ़ बजे के आसपास मुझे वैभव ने एक एसएमएस किया था कि मेरे करीबी दोस्त पंकज अग्रवाल ने आत्महत्या कर ली. मैंने कोई जवाब नहीं दिया रात में और फ़िर सुबह भी- क्योकि सुबह से क्या मौत की बात सोचनी. दिन धीरे- धीरे जब चढ़ा और ठंडी हवाओं से बचने मै जब छत पर चढ़ा तो लगा कि एक बार फोन लगाकर पूछूं तो सही. कई बार वैभव को फोन लगाया दोनों नंबर पर, वो उठा नहीं रहा, फ़िर सिद्धार्थ को लगाया तो उसने कहा कि बस हम लोग आ ही रहे है. जब मैंने और खोदकर पूछा तो बोला कि भैया एम्बुलेंस में हूँ लाश के साथ, पंकज के परिजन भी है, सिर्फ बाईस साल का था, कर्जा हो गया था नौकरी थी नहीं और भोपाल में एक दूकान खोल ली थी, बस जब सब कुछ करने के बाद भी कुछ जमा नहीं तो जहर खा लिया थोड़ी देर में पहुँच रहे है, आप आ जाओ, वही नदी के किनारे अंतिम क्रिया होगी. बस बहुत ठन्डे भाव से सिद्धार्थ ने फोन काट दिया था. मै समझ सकता हूँ एक करीबी दोस्त की मौत खबर, संत्रास, और फ़िर उस दोस्त की लाश को दूर शहर से अपने उस शहर में लाना वहाँ - जहां साथ पढ़े, बड़े हुए, चुहलबाजियां की, साथ किशोरावस्था पार करके जवान हुए, सपन

वृद्धाश्रम में नई भर्ती

आजकल वृद्धाश्रम में नई भर्ती चल रही है अपरिपक्व कौशल और दक्षताओं की जरुरत है. जल, जंगल, जमीन और पर्यावरण पर काम करने वाले, फ्रॉड शिक्षा, समाज कार्य पर काम करके चुके हुए लोग, रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स और घर बैठे लोग इसमे अप्लाय कर सकते है........काम जरुर शिक्षा का है आप इसमे हाथ साफ़ कर सकते है और अगर आप में ज्यादा प्रतिभा हो तो आप कोई भी कुत्सित प्रयास कर इसमे घूस सकते है. बस दो चार लोगों को आपको जानना चाहिए और थोड़ी चाटुकारिता !!! यदि आपको जरुरत हो तो कहिये. ये देश की उभरती हुई शिक्षा की मंडी है और जम के बिक रही है माँ सरस्वती और विकास गाथाएं......बड़ा नाम, बड़ा रूपया और बड़े बाजीगर है इस मंडी में यकीन ना हो तो एक बार साईट देखिये वृद्धाश्रम की !!! क्या कहा काम क्या करना है जी वही जिसे हमारे श्रीलाल शुक्ल कहते थे भारतीय शिक्षा, जी हाँ ये कमबख्त अभी तक सड़क पर ही पडी है और देश में शिक्षा का क़ानून बनाने के बाद भी उसी कुतिया की तरह मिमिया रही है जिसे 1947 में मैकाले छोड़ गया था. तो तैयार है आप........देश में बेरोजगारी बहुत है. आप क्यों चूक रहे है जनाब, आईये देश में सड़क पर

रिश्ते बस रिश्ते होते है -गुलज़ार

तुम्हारे लिए.......... सुन रहे हो.................. कहाँ हो तुम..... रिश्ते बस रिश्ते होते है कुछ एक पल के कुछ दो पल के कुछ परों से हलके होते है बरसों के तले चलते चलते भारी भरकम हो जाते है कुछ भारी भरकम बर्फ के से बरसों के तले गलते गलते हलके फुल्के हो जाते है नाम होते है रिश्तों के कुछ रिश्ते नाम के होते है रिश्ता वह अगर मर भी जाए तो बस नाम से जीना होता है बस नाम से जीना होता है रिश्ते बस रिश्ते होते है -गुलज़ार मोहित ढोली और अपूर्व दुबे के लिए
आ जा री निंदिया ले चल मोहे ऐसे देस जहां वीराने हो डरावने डेरे हो सपने हो अधमूंदे जीवन हो निस्तार और फ़िर कहू एक बार अपने आप से, धीमें से हौले हौले से शब्बा खैर
"कभी-कभी मुझे अपने आप से बड़ा डर लगता है, जब वे मुझमें झाँकते हैं और अपने जीवन का मतलब मुझसे पूछते हैं। हालांकि उन्होंने ही मेरा आकार तय किया है , मेरी क़ीमत तय की है। मुझ पर मोहर लगायी है और उस पर एक वादा अंकित किया है, और उसे एक सलीब की तरह समाज के गले में टाँग दिया है। और गोकि मेरा रंग-रूप, चेहरा-मोहरा, नाक-नक़्श , क़द-क़ीमत सब तय हैं, फिर भी वे मुझे देखते ही सबकुछ भूल जाते हैं। वे भूल जाते हैं तमाम नियम जो पुरानी बाइबिल के कड़े आदेशों की तरह उन्होंने ख़ुद ही मेरे माथे पर लिख दिए हैं और फिर भी तलाश करते हैं अपने जीवन के तमाम सपनों को काग़ज़ की छोटी-सी सीमा में, अपनी छोटी-बड़ी अभिलाषाओं के अनुसार वे कभी मेरी क़ीमत को घटाते हैं, कभी बढ़ाते हैं और एक मजहबी किताब की तरह मुझ में से अपने मतलब के मानी निकालने की हर कोशिश करते रहते हैं। शायद मैं काग़ज़ का एक पुर्जा नहीं हूँ। मैं इस युग का सबसे महान ग्रन्थ हूँ।" -काग़ज़ की नाव , कृश्न चंदर साभार - Dheeraj Kumar

नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा

यह तो हुआ ही नहीं था... सिर्फ तुम ही दोषी थे, वरना मै क्या..करती. तुमने कभी किसी से प्यार किया ही नहीं, तुम डरपोक हो,  एक कावर्ड, पक्के डरपोक. कभी पलट के नहीं देखा मुझे और अब कहने से क्या होगा. इस बीच मुझे एक और छोटी बेटी हो गई है, बेटा तो था ही, सात मार्च को मै देर तक काम करती रही थी, फ़िर रात में डाक्टर को दिखाने गई तो उन्होने  वही एडमिट कर लिया, ये थे नहीं दौरे पर थे आठ दिन के, तुम मुम्बई में थे फ़िर मै क्या करती ?? भर्ती हो गई, अगली सुबह यह बेटी पैदा हुई. दर्द तो हुआ था, पर, क्या बस खुशी यह थी कि एक बेटा था पहले से,  और तुम आज यह सब प्रेम की बातें क्यों कर रहे हो, ज्यादा पी ली क्या? देखो तुम वैसे ही बीमार रहते हो- इतनी शुगर है, बीपी है और मै यह भी जानती हूँ कि तुम्हारी नौकरी छूट गई है. असल में वही बात है कि तुम डरपोक हो, एक भी जिम्मेदारी ठीक से कभी निभाई ही नहीं, हमेशा भागते रहते हो -अपने आपसे, नौकरी से, घर परिवार से और मुझसे भी भाग गये.....कितने साल मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया, फ़िर शादी करना ही पडी, मै तो कभी नहीं भागी. सब किया और आज भी कर रही हूँ.........तुम्हारे पास मेरा मोबाईल

An interesting discussion between me and Jitesh Rath on a Post I wrote today.

An interesting discussion between me and Jitesh Rath on a Post I wrote today. Jitesh- I don't feel any problem in this,Frankly I appreciate the idea & innovation.As because ...1. more opportunity for dev professional 2.Its an art 3. fund raising should be specific dept for support for org and if it is systematically proposed better result will come ...And we can't denied the fact How much Fund is Imp to facilitate the program or Project I-असली बात आ गई ना कि सोशल वर्क वालों को "काम" के ज्यादा मौके मिलेंगे, मेरे पूर्ववर्ती संस्थान में, जो एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान था और कई गिरगिट नुमा सोशल वर्कर काम करते थे वहाँ, एक माताजी को इसी काम के लिए रखा था उन्होंने साल भर में छः लाख इकठ्ठे किये और उनकी तनख्वाह बारह लाख प्रति वर्ष थी और उस पर से वो हवाई जहाज के नीचे कदम नहीं रखती थी और सौभाग्य या दुर्भाग्य से वो ISSW इंदौर की ही "प्रोडक्ट" थी तो कहते है "वा सोना का जारिये जा सो टूटे कान" Jitesh- Dada bilkul........I am Professional social Worker,Really
बादलों की गर्जन कह रही है तुम यही कही हो एकदम मेरे पास ये पानी की बूँदें और ये कारे-कारे मेघा जो पानी की बूँदें भर लाये है आँचल में खेतों में फसलें खड़ी है और सब चिंतित है कहाँ हो तुम आ जाओ सामने और फ़िर थम जाओ मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए........... मत गरजो मत बरसो अभी समय नहीं है ठहरो थोड़ा तो ठहरो .....

अदनान कफील की कवितायें - सरोकार और समय का जीवंत समावेश

अदनान कफील यही नाम था जब एक फेस बुक मित्र ने मुझे कहा कि इसे अपनी सूची में जोड़ ले और उसकी एक-दो गजल और कवितायें भी उन्होंने पोस्ट की थी. यह बात होगी तीन चार माह पूर्व की. मैंने कवितायें पढ़ी और लगभग हतप्रद रह गया था क्योकि सिर्फ अठारह साल का यह लड़का जो उत्तर प्रदेश के बलिया से दिल्ली आया है कंप्यूटर विज्ञान में पढाई कर रहा है और इतनी समझ और बहुत स्पष्ट विचारधारा कि क्या है समाज और क्या है कविता और क्या है अपना रोल. यह लगभग अचंभित करने वाला मामला था. फ़िर धीरे से अदनान से दोस्ती हुई और उसके संकोची स्वभाव को धीरे धीरे तोड़ा और फ़िर फेस बुक पर ही उसकी कवितायें पढ़ी बातचीत की और जब दिल्ली पुस्तक मेले में मिलने का तय किया तो यह बन्दा पुरे दो दिन हम लोगों के साथ रहा. आख़िरी दिन उसने अपनी कवितायें पढ़ी हम सबके सामने तो लगा कि इसकी कवितायें एकदम अलग जमीन पर व्यापक सरोकारों को इंगित ही नहीं करती बल्कि एक साफगोई के साथ समाज की हलचल को अपने सामने रखती है. अदनान की कवितायें ज्यादा प्रभाव डालती है सिर्फ इसलिए नहीं कि वे बेहद युवा है और एक सुलझी हुई कशिश के साथ अपनी बात रखते है बल्कि इसलिए कि व