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Showing posts from March, 2013

मेरे वजूद को एक सिरे से स्वीकारता हुआ चला आता है

जानता हूँ कि ये क्षणिक है तनाव, संताप और अवसाद - पर कैसे दिन बीत रहे है यह तुम जान समझ नहीं सकते और लग रहा है कि इन्ही सबके बीच से गुजर तो जाउंगा पर जब तक सब कुछ पा लेने की स्थिति में आउंगा, क्या वो पा सकूंगा मै ...........तुम कहते थे ना कि सबको सब नहीं मिलता और किसी-किसी को तो ज्यादा इंतज़ार करना पडता ,है पर कहाँ सीमा खत्म होती है, कितना समय लगेगा अब और,  इस खोने-पाने की और गर्मजोशी से भरे समय में हम कह तो जाते है, जो दिलासा सा प्रतीत होता है पर जो उथल-पुथल मन में मची रहती है उसे कैसे बताऊँ. यह समय, जो मै बार-बार इंगित कर रहा हूँ कि बिदाई की बेला का है, समय हो रहा है और फ़िर से एक बार इतना लंबा इंतज़ार करने की आदत नहीं रही है. यह बेचैनी है या इंतज़ार, पर जो है वो है !!! बस यही कह सकता हूँ...........तुमने किसी पेड़ पर नन्ही पत्तियों को बरसात की बूंदों का इंतज़ार करते देखा है, या कही गहरी अंधेरी रात में जुगनू की चमक को यहाँ-वहाँ भटकते हुए देखा है, या किसी उजाड किले पर चमगादड़ों के झुण्ड को एकदम से उड़ते हुए देखा है, या किसी गहरे कुएं में सिसकते हुए मेंढकों को बाहर ना निकल पाने की त्रासदी झेलत

मनोज पवार की रांगोली प्रदर्शनी देवास में.......

मनोज ने कहा कि देवास से जब रंगोली की परम्परा खत्म हो रही है, तो यह हम जैसे कलाकारों की ड्यूटी है कि इस महान कला को ज़िंदा रखे............बस रंगोली एक शगुन है जो सुबह हर मराठी घर में बनाई जाती है, दूसरा यह मेरे लिए पेंटिंग के समां है पर जब रंगों को हाथ से पकड़ता हूँ तो सुखद अनुभूति होती है वह ब्रश से रंगों के साथ खेलने में मजा नहीं है.......अफजल साहब ने इसे शुरू किया राजकुमार चन्दन ने इसमे काम किया मै सिर्फ रान्गोलीबाज नहीं बनाना चाहता पर चाहता हूँ कि यह कला जो देवास की पहचान है ज़िंदा रहे........हालांकि इसमे असाध्य श्रम है आर्थिक दिक्कतें है पर ठीक है यही तो एक कलाकार का सरोकार होना चाहिए..........बहरहाल मनोज की बातें हमें आश्वस्त करती है कि कैसे हम अपनी परम्पराओं को बचा सकते है कैसे अपना काम करते हुए और ज्यादा बेहतर काम कर सकते है. जबरदस्त है भाई मनोज का काम इतना बारीक और महीन है कि यकी ही नहीं होता कि ये सब रंगोली से बने चित्र है.............देवास में अफजल साहब की परम्परा को जारी रखते हुए मनोज के ये चित्र आश्वस्त करते है कि अभी कला का संसार बहुत बड़ा वृहद और संभावना भ रा
पाँवों में टायर की चप्पल, कंधे पर झोला, बदन पर खादी, होठो पर सिगरेट, हाथों में लाल किताब, जुबान पर अंग्रेजी, दिमाग में वासना और दिल में बदलाव का स्वप्न लिए ये लोग क्रान्ति की तलाश में आये थे यहाँ बनखेड़ी होशंगाबाद के पिछड़े इलाके में, एंट्री पॉइंट था 'शिक्षा', जी हाँ वही शिक्षा - जिसे स्वीकृती देते समय उस समय के तत्कालीन शिक्षा सचिव ने कहा था कि जितना कबाडा शिक्षा का अभी है उससे ज्यादा ये पढ़े-लिखे विदेश पलट और जेएनयु दक्ष लोग क्या करेंगे ? बस झमाझम काम शुरू हुआ था, संस्था में आने वालीयों को स्थानीय लोंढे भी जब निपटाने लगे तो मामला गडबड होने लगा. (मेरी एक कहानी का अंश)

अभी यह मुकुल के कंठ में हो रहा..."

सीहोर मे, भोपाल में मुकुल दा के साथ रहा हूँ कमोबेश रोज ही मिलना होता था, और खूब लंबी लंबी बातचीत, फ़िर उनका एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था जहां उन्होंने बड़ी तल्लीनता से गया था. जहां वे रहते थे वहाँ शाम की आरती में वो दो तीन निर्गुणी भजन जरुर गाते थे और यह सब सुनना बहुत भाता था. सुना तो उन्हें नेमावर में भी है ठीक हण्डिया के पुल पर या नीचे और हरदा में भी और देवास में दो एक बार............ Anirudh Umat जी ने यह जो लिखा है वो बहुत ही सारगर्भित और सामयिक है. बहुत ही सुन्दर और सहज है मुकुल दादा के बारे में यह विवरण............... :इस आवाज को सुनना कला के गूढ़ को तरल में ग्रहण करना है....इधर जितने नए कंठ सुने उनमे मुकुल जी केवल अपने में एक है. उनके गायन के बारे में कुछ भाषा में सहज...सम्भव नही. शब्द जहां मौन की सीपी में मोती सी नीद सो जाएं तब मुकुल जी का गान अखिल में पसरता है . नीले आकाश में नीली कामना सा...आत्मा में घुलता ...घोलता...प्रकृति के सारे रहस्य यहाँ अपनी देह खोल देते है....नर्तन करने लगते है....इसे शिव और शव दोनों सुनते गाते काल को थाम पल भर को शून्य कर देते

शव एक उठेगा मेरी देह में कलपेगा

रात को अन्धेरा भोग रहा है.शव एक उठेगा मेरी देह में कलपेगा...ओह मेरे प्राण कब से तुम मुझे सिगड़ी पर सेक रहे हो. तरस मत खाना .एक एक पसली की तरह तोड़ना.मुझे चूमना जैसे दीमक पुरानी किताब को चूमे.खाना जैसे सपने भक्षण करते है. मेरे मित्र....जालिम मेरे नाखून जरा बेरहमी से उखाड़ना .लो मुझे निर्वसन कर स्नान करो मेरे साथ.मेरी अर्थी को कंधा नही चुम्बन करो.काली नागिन सी सड़क पर मेरी केंचुल से संवाद करना .जागना कि मेरे परखच्चे तुम्हारे गर्भ पर न पड़ जाए.जागना कि तुम्हे भोगता मै अशुभ देख न लूं.जागना कि मै जाग न जाऊं , देखो हम निर्वसन निश्चल बर्फ पर पड़े दो मृत शब्द है, आओ कि अंधरे में कोई हमारा गुल्लक खाली कर रहा है .जागो कि तिड़कती अस्थियों में हमारा विलाप तुम से आलिंगनबद्ध हो रहा. देखो निर्वसन मुझ में स्वप्न वसन धारण कर रहे. देखो अंतिम साँसों में एक राग किस तरह उतप्त दहला रहा.देखो तुम किस तरह मुझे विलगाती अलगाती संयुक्त हो रही.आओ कि मै जा सकूं.तुम्हारी देह में बेघर हो सकूं.देह मै तुम मुझे खोना ताकि प्राप्त कर अपनी उफनती साँसों में तुम पिघल सको.लो...मेरे शव को . दो अपनी राख.चन्दन सा ब

सब सिमट आओ हम यहाँ से ही अपना नया सफर शुरू करेंगे

ये सड़क कभी खत्म नहीं होती ना ही कोई खम्बा अपनी जगह से हिलता है बस सरकता है तो दर्द, पिघलता है तो दर्प, बुझता है तो एक दिया जो सुबह होने तक ही बमुश्किल जल पा रहा है आज, इन सडकों पर चलते चलते थकने का एहसास जोर पकडते जा रहा है सामने से तेज रोशनी के थपेड़े चले आ रहे है जिसमे कुछ नजर नहीं आ रहा, एक शव इस सडक पर से गुजरता है, शव के पीछे हुजूम में शोर नहीं है, शांति भी नहीं, एक खौफ है सबके चेहरों पर मौत का नंगा नाच देखने को अभिशप्त ये लोग चले जा रहे है सड़क पर और तेज रोशनी में धूल के गुबार उड़ते जा रहे है, एक बवंडर भी इधर से निकला है अभी-अभी सारी यादों को अपने साथ उड़ा ले गया है कह के गया है कि अब सब साफ़ हो जाएगा क्योकि जब स्मृतियाँ नहीं होंगी तो दुःख नहीं सालेगा किसी को और कोई किसी की मौत के सामने खौफजदा नहीं होगा. यह तेज धूप और तेज रोशनी के बीच का समय है, यह साँसों के बीच आरोह-अवरोह को पछाडते हुए एक भभकते हुए सूर्ख गोले में समां जाने का समय है, यह अपनी टींस और दर्द को भूलकर मोह से बिछडने का समय है, यह अपने से अपने को छोड़कर अपने में मिल जाने का समय है, यह वह समय है जो काल से परे होकर काल से भे

जूते - हेमंत देवलेकर

सर्दी की रातों में जूता निर्जन में कोई डाक बंगला है सुबह हमारे पैरों का फ़र्ज़ होना चाहिए किसी के दरवाजे पर दस्तक की तरह अपने जुते को हम हौले-हौले खटखटाएं कड़ी सर्दी से बचने के लिए रात भर झींगुर इसमें सोते हैं और वे कितने बेफिक्र. एक घर में होते हैं हज़ारों घर उन्हें यकीन है कि ये दुनिया साझेदारी से चलती है झींगुर इसमें सोते हैं और उन्हें यकीन है -हेमंत देवलेकर

सरकारी अस्पताल की विश्वसनीयता कायम करना हम सबकी जिम्मेदारी है.

कोई कहेगा कि ये है सरकारी अस्पताल................बेहतरीन विश्व स्तरीय सुविधाएँ.........यह नवजात शिशु कक्ष है जहां बहुत कमजोर और जन्म के समय होने वाले क्रिटिकल बच्चों को रखा जाता है . इस कक्ष में एक वरिष्ठ डाक्टर और चार पी जी मेडिकल ऑफिसर्स होते है इसके अलावा पीजीआई, चंडीगढ में प्रशिक्षित नर्सेस भी रहती है यह कक्ष चौबीस घंटे काम करता है. इसके होने से शिशु मृत्यु दर में बेहद कमी आई है. इस हेतु मप्र शासन, और साथ ही स्वास्थय के क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं को निश्चित रूप से बधाई दी जाना चाहिए. और सबसे अच्छी बात कि यह सबके लिए है पूर्णतया निशुल्क एवं दवाई भी बाजार से नहीं लाना पडती. आज मानूंगा कि यूनिसेफ का यह कार्य बहुत ही सराहनीय है और प्रेरणास्पद भी. Anil Gulati जैसे साथी वहाँ होने से ऐसे कामों में बहुत गति आई है और मप्र से शिशु मृत्यु दर में हाल ही में जारी आंकड़ों से कमी आई है. यह प्रदेश के लिए एक शुभ संकेत भी है और आने वाले समय के लिए एक अच्छा सन्देश भी. यह प्रदेश के अधिकाँश जिलों में है और जहां नहीं है वहाँ स्थापित किये जा रहे है. यकीन मानिए ये एक सरकारी अस्पताल

हें कंसल्टेंट देव सुधर जाओ अब तो

दूरदराज के क्षेत्रों में अब सभी जगह सभी लोगों को समझ में आ गया है कि ये एनजीओ और कंसलटेंसी का धंधा क्या है. सरकारी, गैर-सरकारी और मीडिया के लोग अब खुलकर कहने लगे है कि "हमें फलाने का नाम मत बताओ, उसका क्या काम है हमें मालूम है और भोपाल या दिल्ली में बैठे लोग क्या और किस तरह से पिछड़े इलाकों को टारगेट बनाकर अपनी रोजी रोटी चला रहे है और मीडिया के नाम पर, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, दलित, महिला, विकलांगों, बच्चों, बूढों और वन अधिकारों के नाम पर क्या कैसे कर रहे है हमें सब मालूम है...........इस तरह की बातें आप हमें मत सिखाईये, हमें सब मालूम है, क्या करना है, कैसे करना है और कितना करना है ..........मजेदार यह है कि ये वरिष्ठ अनुभवी लोग भोपाल, दिल्ली के ऐसे घोर कंसल्टेंट्स का नाम लेकर गलियाते है और कहते है अरे वो......बड़ा कमीना है और उसकी वो फलानी संस्था कितना ग्रांट हथियाकर पूंजी बना रही है- हमें मालूम है, साला टुच्चा पहले आता था तो ट्रेन में लटकर आता था और अब यही ससुरा हवाई जहाज में घूम रहा है और फ़िर माँ-भैन भी निकल जाता है मुँह से........ जागो -जागो, लोग समझदार हो रहे

अब ये नरक यात्रा नहीं है

पिछले कई दिनों से मप्र के सरकारी अस्पतालों में जा रहा हूँ तो सरकारी अस्पतालों पर गहरा विश्वास जम रहा है, डाक्टरों की मेहनत, काबिलियत योग्यता और जिस तरह के माहौल में वे काम करते है उससे सर झुकाने को दिल करता है. खासकरके सरकारी अस्पताल के मेटरनिटी वार्ड बहुत अच्छे हो गये है और वहाँ जो सुविधाएँ है वो किसी प्राईवेट अस्पताल से कम नहीं बल्कि NRC & SNCU का जो शिशु मृत्यु दर कम करने में है वो अतुलनीय है . जो लोग भी इसमे काम कर रहे है और शिद्दत से लगे है आमूल-चूल परिवर्तन करने में उनकी मेहनत और जज्बे को सलाम .........इसमे भी बता दू कि सीहोर, सागर, सतना के अस्पताल में जो जच्चा-बच्चा के लिए सुविधाएँ है, वो एक सरकारी सेट अप में जमाने के लिए खून देना पड़ रहा है पर यहाँ की महिला डाक्टर, स्टाफ नर्सेस, पैरा मेडिकल स्टाफ, सिविल सर्जन, मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थय अधिकारी, डीपीएम और NRHM का स्टाफ का जिस टीम भावना से काम कर रहा है वो बेहद प्रशंसनीयऔर सराहनीय है. ये लोग दस से सोलह घंटें काम कर रहे है और इसमे कोई इनका स्वार्थ नहीं है.

सतना के भूले नहीं तुम............

सतना की खुरचन, पन्नीलाल चौक की चाट, सिरमोर चौराहे का आई सी एच, वीनस स्वीट्स, ताजे फल, रेलवे स्कूल, रीवा रोड, भरहुत नगर, मुख्तियार गंज, हनुमान चौक.........मेघा होटल और फ़िर कोठी रोड ........हाय कितनी यादें जुडी है इस शहर से मै मजाक या गंभीरता में हमेशा कहता हूँ कि कभी इतने पाप करने के बाद भी अगला जन्म मनुष्य योनी में मिला और अगर भगवान ने पूछा कि बेटा कहाँ पैदा होना चाहोगे तो जरुर कहूँगा कि प्रभु इस बार सतना में में ही सेट कर दो........इस शहर से मेरी सबसे अच्छी यादें और भावनाएं जुडी है 1991-92 और फ़िर 2005-06.......ना जाने क्यों बघेली बहुत मीठी बोली लगती है, "आई दादा बैठी, अपन पंचा के........या अरे हो गया छोडिये का जुमला हरेक की जुबान पर और फ़िर पान खाने जाओ तो जो अदा से पान पेश किया जाता है ..........कुल मिलाकर यह शहर बहुत अच्छा और बसने लायक है. यह तुम्हारे लिए है, सुन रहे हो ना, कहाँ हो तुम.............

हिन्दुस्तान के विकास की ट्रेन में शनि सिंह

ये है शनि सिंह, कटनी शहडोल रेल्वेमार्ग पर एक छोटा सा गाँव आता है जहां मटके और सुराही बहुत मिलती है "चंदिया" वहाँ के रहने वाले है. इनके पिता की मृत्यु बचपन में हो गई थी. घर में एक अपाहिज बड़ा भाई और माँ है सो ट्रेन में गाना गाकर और माँ शारदा के भजन गाकर पैसा इकठ्ठा करते है और फ़िर देर रात घर पहुंचकर खाने का सामान खरीदते है तब कही जाकर तीनों प्राणी खाना खा पाते है. ये कक्षा छः में पढते है दोपहर ग्यारह बजे तक स्कूल फ़िर ट्रेन का सफर..........इस तरह से जीवन की गाड़ी में अपने साथ दो और लोगों को बिठाकर हिन्दुस्तान के विकास की ट्रेन में जा रहे है. अब इन पर ना नजर पडती है शिवराज सिंह जी की, ना नितीश बाबू की ना युग पुरुष मोदी जी की. मौन मोहन सिंह तो सर्व शिक्षा का फ्लेगशिप चलाकर आशान्वित है कि "सब ठीक है" सही भी है कोई क्यों देखे इन कलंकों को, क्योकि ये ससुरे देशभर में इतने ज्यादा है कि क्या करें और क्यों करे .........पिछले जन्म के पाप है इनके भुगतने दो अपने को क्या और बाकि सब तो शाईनिंग इंडिया में लगे है छोडो ना सुबह सुबह.......कहा गंदे-शंदे बच्चों के फोटो...

शिक्षा में एनजीओ और कारपोरेट - एक स्वस्थ बहस

मुझे तो लगता है शिक्षा से सारे कारपोरेट और एनजीओ हट जाये तो शिक्षा का बड़ा एहसान होगा जितना कबाडा इन नौसिखियों ने नवाचार के नाम पर किया है गत साठ बरसों में और शिक्षा और शिक्षकों के नाम पर गढ़ और मठ बनाकर ससुरे बैठे है. इससे तो बेहतर है कि शिक्षा को शिक्षा के नाम पर छोड़ दो और इन सबको बाहर करो अपनी रोजी रोटी और जिंदगी चलाने के नाम पर प्रयोग और कुत्सित कामनाओं के नाम पर पुरे परिदृश्य का कबाडा कर रखा ह ै. मै बहुत जिम्मेदारी और गंभीरता से यह कह रहा हूँ और फ़िर टुच्चे टुच्चे प्रयोग छोटे स्तर पर करने से कोई हालात नहीं सुधर सकते. जो लोग शिक्षा का क, ख, ग , घ नहीं पढ़े वो शिक्षा के रसूखदार बने बैठे है और लाखों कमा रहे है और हालात यह हो गये है कि इनके घटिया प्रयोगों और नवाचारों से हिन्दुस्तान की पीढियां बर्बाद हो गई है और आज देश ने भ्रष्ट, दुराचारी और दानव ही पैदा किये है और इस सबके लिए ये ही जिम्मेदार है. मै एक सच्ची और क्रूर वास्तविकता कह रहा हूँ. जाकर देखिये ग्रामीण क्षेत्रों में किस तरह से अनपढ़ गंवार और मूर्ख किस्म के एनजीओ कार्यकर्ता स्कूलों में प्रयोग कर रहे है किस तरह क

पुरुषों के लिए भी सेफ्टी स्पॉट रखे जाये. सन्दर्भ सोलह साल में सेक्स के लिए सहमति क़ानून.

सोलह साल वाला क़ानून बन गया है, सारे गुणा-भाग सबके हित में है या अहित में कौन जाने पर इस क़ानून का दुरुपोग ना हो खासकरके पुरुषों के खिलाफ जैसे दहेज क़ानून का या अनुसूचित जाति -जनजाति क़ानून का दुरुपयोग आमतौर पर होता आ रहा है, दूसरा सब कुछ होने के बाद के लिए क़ानून है पर "प्रिवेंटिव मेजर्स" कहाँ है कि ऐसी घटनाएँ ना हो. मै बहुत जिम्मेदार के साथ यह लिख रहा हूँ कि आजकल कई जगहों पर पुरुषों को बहुत चालाक महिलाए दहेज प्रताडना या ऐसे ही मामलों में फंसा रही है, और इस नए क़ानून में ऐसे कई "लूप होल्स" दिख रहे है जो सीधे सीधे पुरुषों को फंसाने के लिए काफी है. कई अतिरेक में डूबी हुई एकल, परित्यक्ता, विधवा, और मानसिक रूप से भयानक फ्रस्ट्रेटेड महिलायें इसका दुरुपयोग करेंगी यह मानकर चलिए और इसमे पुरुष को निशाना बनाया जाएगा. इसलिए अभी से बेहतर है कि कार्यस्थल पर, सार्वजनिक स्थलों पर पुरुषों के लिए भी सेफ्टी स्पॉट रखे जाये. कई संस्थाओं में महिलाओं ने भयानक ड्रामे करके काम करने वाले पुरुषों को हटाने की गंदी और बेहद घटिया राजनीती की है ये वो महिलायें है जो अपने

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद - शिव मंगल सिंह सुमन

जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं, सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं। दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद -- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई, दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई। पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद -- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर? मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर। इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद -- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर? कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर! आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद -- जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद। - शिव मंगल सिंह सुमन 

डफरीन के बहाने से जीवन में प्रेम की पडताल........

हाँ वो डफरीन ही थी , एक सुदूर देश के रहने वाली राजकुमारी नुमा सुन्दर सी प्यारी सी लडकी, जो अब नहीं है चली गई है यहाँ से हमेशा हमेशा के लिए. प्यार और बाकि सब तो नहीं जानती थी पर जीवन को अपनों के साथ जीने की कला में माहिर थी वो........बहुत भावुक, संवेदनशील और एकदम साफ़ नजरिये से जीवन जीने वाली लडकी. डफरीन के पुरखे अंग्रेज और फ्रेंच थे और वो उनका मिला- जुला सम्मिश्रण, बस जीवन वही से शुरू हुआ था जब उन फौजी मैदानों में ऊँचे ऊँचे पेड़ों के बीच से हवाएं सरसराती हुई गुजराती और शाखें झूमती तो लगता कि जैसे कि सब कुछ थम जाये और फ़िर बस सब कुछ यही वही खत्म हो जाये.......आज से डफरीन के बारे में उसके प्यार और जीवन के बारे में फ़िर से सोचना शुरू किया है और यह एक असफल प्रेम की झूठी कहानी है जो मै कई सदियों से लिखना चाहता हूँ......... ये मप्र का रायसेन है और नब्बे के दशक की शुरुआत, डफरीन का भारत में आने का मकसद कुछ खास नहीं पर यहाँ की शिक्षा पर एक गैर जरूरी पडताल करना है वो घूमती है भोपाल के रास्तों पर, असम के ब्रम्हापुत्र नदी पर चलती है, बिहार के पटना में गांधी मैदान पर खड़े होकर बीडी का एक कश खींचती है,

तुम्हारे लिए ..........सुन रहे हो ......कहा हो तुम............

माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं कैसे कहें के तेरे तलबगार हम नहीं.... सींचा था जिस को ख़ूने तमन्ना से रात दिन, गुलशन में उस बहार के हक़दार हम नहीं हमने तो अपने नक़्शे क़दम भी मिटा दिए, लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं यह भी नहीं के उठती नहीं हम पे उँगलियाँ, यह भी नहीं के साहबे किरदार हम नहीं कहते हैं राहे इश्क़ में बढ़ते हुए क़दम, अब तुझसे दूर, मंज़िले दुशवार हम नहीं.......    -नक़्श लायलपुरी

पत्थर - बहादुर पटेल की एक स्मरणीय कविता.

पत्थरों में जीवन खोज पाना बहुधा एक श्रमसाध्य और दुरूह प्रक्रिया है , हमारे दैनंदिन जीवन में और फ़िर बात आये कविता की जो बहुत ही महीन रेशों से बुनी जाती है तो यह दुष्कर भी लगता है,  पत्थर को देखने से एकबारगी में जो  शुष्क पन उभरता है  उस पर हमारी सोच दूर तक जाती है जो दर्शाती है कि हर पत्थर भी एक कहानी कहता है , या कहने का प्रयास करता है , उसका  भी  एक वृहद  इतिहास है, उसमे समाई है एक सभ्यता जो किचिंत प्रयास करने पर सामने आ जाती है. बहादुर पटेल बहुत भिन्न दृष्टि से एक पाषाण को देखते है और फ़िर जो ताना-बाना बुनकर सामने लाते है वो उन्हें कई बातों में मौजूदा कवियों से अलग करता है वे एक पत्थर का बि म्ब रचकर जहां एक ओर पत्थर की बातें करते है वही एक स्त्री को सिल बट्टे पर मसाला पीसते हुए देखकर वे एक भविष्य की ओर भी इशारा करते है कि संगीत और उम्मीदें अंतत पत्थर से ही उपजेगी और ऐसे कठिन समय में जो कवि पत्थर से उम्मीदें लगाएं उस की लय, जीवन के सप्त्सुरों और आरोह-अवरोहों को दाद दी जाना चाहिए. बहरहाल प्रस्तुत है बहादुर की एक अविस्मरणीय कविता. पत्थर एक बूँद पानी उतरा है कई बरसों में पत्थर

ड़ा हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में मुक्तिबोध सृजन पीठ और हिन्दी की दुर्गति

सागर में था पिछले चार दिनों से तो आज थोड़ी फुर्सत मिली सबसे पहले मित्र आशीष के साथ ड़ा हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में जाने का सोचा. उसके पहले इंक मीडिया स्कूल में गया, रजनीकांत और आशीष से मिलने की रूचि थी. पर अफसोस सिर्फ पांच बच्चे बैठकर मीडिया स्कूल के स्टूडियो में बैठे थे एक गुरूजी उन्हें ज्ञान दे रहे थे. खैर फ़िर विश्वविद्यालय में गये, बड़ी सुन्दर सी पहाड़ी पर बसा है सागर में यह विश्वविद्यालय. जब हिन्दी विभाग पहुंचा तो पूरा विभाग खाली था, एक-दो महिला शोधार्थी एक बड़ी सी मेज़ पर सर पकड़कर बैठी थी, कुछ पूछा मैंने तो वे बोली आप आईये हमें कुछ पता नहीं है,  वे सीधे  मुझे एक महिला प्राध्यापक के पास ले गई, जो बैठकर कुछ टेबल वर्क कर रही थी. टेबल पर "बुंदेलखंड वसंत" नामक पत्रिका जनपद पंचायत, छतरपुर की पडी हुई थी. जब मैंने पूछा कि आजकल मुक्तिबोध पीठ पर कौन आसीन है तो पता चला कि उन्हें जानकारी नहीं थी, वे वहाँ एसोसिएट प्रोफ़ेसर थी, पर अनभिज्ञ. मैंने जानबूझकर कहा कि एक जमाने में अज्ञेय यहाँ पीठ पर थे, तो अचानक से बोली अज्ञेय का तो नहीं पता पर ......अरे हाँ, वो त्रिलोचन शास्त्री भी थे, कभी-कभी

अखिलेश यादव को भारत का मुख्य लेखा परीक्षक का निजी पत्र

प्रिय अखिलेश ये तुने ये क्या कर दिया बेटा, आज से ही आज से लेपटॉप बांटना शुरू कर दिया, अरे दो-तीन साल तो रुक जाता, ऐसा भी क्या वायदा निभाना, अब हमें आने वाले समय में इस घोटाले की जांच के लिए एक आयोग बिठाना पडेगा फ़िर जांच समिति की रपट मीडिया में लीक करने के लिए एक अधिकारी को भ्रष्ट करना पडेगा, फ़िर संसद में इसकी जांच और फ़िर अंत में भारी भरकम दस्तावेजों को रखने के लिए दफ्तर लेना पड़ेंगे. सुनो भाई, जिन को भी बाँट रहे हो उनका रेकार्ड सही रखना, हस्ताक्षर ले लेना, विडीओग्राफी करवा लेना, अखबारों की कटिंग रख लेना और बजट, अकोउन्ट्स आदि सही रखना और यदि किसी पर अभी भी शक हो या अपना कमीशन का चक्कर हो तो हिसाब सही कर लो बेटा रजिस्टरों में, ओके; क्योकि बाद में हमें बहुत दिक्कत होती है भाई, तुम्हारे पिता, चाचा लालू, बुआ मायावती, और बड़े पापा मौनमोहन सिंह का हिसाब करते करते मै थक गया हूँ.........हाँ मेरे भी पोते कह रहे थे कि भाईसाहब की मेहरबानी हो जाती तो "एपल की चार ठो मैकबुक" भिजवा दो इतने कही भी खप जायेंगी. घर में सबको यथा अभिवादन और बहू को कहना कि वो आजकल सांसद निध

Alok Ranjan Jha's Blog Lokranjan.blogspot.com

बहुत ही भावुक कर गया मुझे यह छोटा सा आलेख क्योकि मै खुद दो बार तुम्हारे साथ और एक बार तुम्हारी अनुपस्थिति में इस घर वो सब महसूस कर चुका हूँ जो सिर्फ "घर' में ही किया जा सकता है अपनापन, रिश्ते, भावनाएं और मिठास. मकान मालकिन से हम तब और प्रभावित हुए जब अभी हम लोग गिरते पानी में सुबह सुबह पहुंचे थे और उन्होंने हम सबके लिए गर्मागर्म चाय और बिस्किट भिजवा दिए और आते समय बोले जब भी दिल्ली आओ यहाँ जरुर आना और मिलकर जाना...........घर छोड़कर जाने का दुःख अपना ही होता है और उन यादों को बातों को कोई समझ नहीं सकता. मैंने खुद ने पिछले पन्द्रह बरसों में चार शहर बदले है और चार घरों में रहा हूँ तो अपनी दुनिया बसाने और रूम या कमरे को "घर" बनाने की प्रसव पीड़ा से मै वाकिफ हूँ और रिश्ते हर उस दरों दीवार से बनाए है जिन्हें सींचने में पानी नहीं खून लगा था आलोक .......... http://lokranjan.blogspot.in/2013/03/blog-post_9.html?spref=fb

महिला दिवस का एक पक्ष यह भी युवा खूंखार पत्रकार और भाई Navodit Saktawat की ज़ुबानी....

महिला दिवस का एक पक्ष यह भी युवा खूंखार पत्रकार और भाई Navodit Saktawat की ज़ुबानी.... "महिलाओं के बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि वे बरसों से दमित, शोषित थी! दमन, शोषण, अत्याचार सहन कर रही थीं और अब पूरे परिदृश्य का शीर्षासन हो गया है. उन्होंने जो कुछ सहा, अब वे वही सब कुछ कर रही हैं. आज महिलाओं से अधिक अनैतिक, अहंकारी, अमर्यादित कोई और नहीं. वे दमन, शोषण, प्रपंच सब कुछ कर रही हैं. कहा जा सकत ा है कि वे प्रतिशोध ले रही हैं, लेकिन यह प्रतिशोध से अलग, प्रतिक्रिया मालूम होता है, एक कुंठित प्रतिक्रिया, जो उन्हें कहीं नहीं ले जाएगी सिवाय बेहूदगी के. महिलाओं की सारी गरिमा महिला होने में है, लेकिन महिला आज कहीं से कहीं तक महिला नहीं होना चाहती. वे टुच्चा होना चाहती हैं, दुनियादार, दुकानदार होना चाहती हैं, अभद्रता करना चाहती हैं. कभी—कभी तो वे पुरूषों से भी अधिक घटिया नजर आती हैं, यह केवल और केवल पुरूषों की पागल होड के सिवाय कुछ नहीं. नारियों में से नारीत्व विदा हो चुका है. महिला पुरूष जैसे कपडे पहन रही है लेकिन महिलाओं जैसे कपडे नहीं पहन रही. वे पुरूषों की तरह नौकरी

हिज और हर हाईनेस..............प्लीज़ वेलकम, प्लीज़......!!!!

असली भारतीय प्रशासन सेवा तो अब होगी जब अंग्रेजीदां चिकने चुपड़े होनहार युवा गिटिर-पिटिर करते हुए परसासन चलाएंगे और हम आप जैसे ससुरे दो कौड़ी के हिन्दी माध्यम वाले साले टुच्चे लोग उन्हें हैरत भरी निगाहों से देखेंगे ..........अच्छा सिला दिया है राष्ट्रभाषा को हम सबने मिलकर !!! इसे कहते है सौ सुनार की और एक लुहार की सही भी है - ना अंग्रेजी आती है, ना कंप्यूटर और ना बिदेसियों के सामने गरीबी परोसना, साले जो प्रमोटी होते है वे तो नाम ही डुबो देते है इस सेवा का, तो अच्छा है साला पाप ही कटा - इन हिन्दी भाषियों का, क्षेत्रीय भाषावाले काले-कुले लोगों का, कोई स्मार्टनेस नहीं चेहरे पर, ना ही सेक्सी रौब, कटे है तो साले गरीब, रिक्शावालों की औलादे, गरीब गुर्गे, दलित..... चिल्लाते रहे दिलीप मंडल जैसे लोग और करते रहे आकंडों का संजालपरक विश्लेषण अब वही होगा जो ये अंग्रेजीदां चाहेंगे.... आ जाये एफडीआई या कोई और हम सब कर लेंगे, चिल्लाती रहे मेधा पाटकर और माधुरी बेन- ज्यादा चपड़ -चौं की तो जिला बदर कर देंगे, प्रदेश बदर या फ़िर सीधा देश निकाला दे देंगे ....... पधारिये, पधारिये महाराज, स

महिला दिवस 8 मार्च 2013 की शुभकामनाएं

मप्र की राजधानी से बिलकुल सटे जिले के एक सरकारी अस्पताल में बड़ी विचित्र बातें देखने को मिली-दो केस, दो लंबी बहसें और दोनों बार नाकामयाब और लगभग अपमानित महसूस किया मैंने और मेरे एक साथी ने साथ ही बरसों से इमानदारी से काम कर रही तीन वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञों ने. पहले केस में एक आदमी डाक्टर से जिद कर रहा है कि खून का इंतजाम करवा दें बीबी ने हाल ही में पन्द्रहवें बच्ची को जन्म दिया है ग्यारह ज़िंदा है इनमे से एक की शादी हो चुकी है, चार मर गई जन्म के समय जो जमीन में गाड़ दिया. अब कहता है कि नासबदी नहीं करवाउंगा क्योकि जब तक लड़का नहीं होता मै क्यों करवाऊं? ऊपर से तर्क यह कि जनानी साली बारहों महीने बीमार पडी रहती है, घर का काम नहीं करती, पिछले सोलह बरसों से बीमार पडी है. अब इस डिलीवरी में खून कहाँ से लाये ? दूसरा केस, वही सरकारी अस्पताल है आठ लडकियों के बाद नौवीं बार बीबी भर्ती है हीमोग्लोबिन लेवल 3.6 प्रति मिलीग्राम है, रिपोर्ट हमारे सामने है और सरकारी योजना के अनुसार उसकी बीबी को दो बोतल खून दिया जा चुका है अभी और तीन चार बोतलों की जरुरत है पर कहाँ से आएगा. नसबंदी नहीं करवाउंगा आ

सोचना एक कष्टप्रद प्रक्रिया है

जीवन की सडकों पर सपनों के पेड़ लगे थे और पेड़ों के नीचे दुश्कालों की छाँह थी उस घने जंगल में कोई ऐसी राह नहीं थी जो कही जाकर मिलती थी और कही से सूरज की रोशनी उस राह पर दिखती भी नहीं थी, बस सघन पेड़ों के बीच से कुछ किरणें यूँ झाँकती थी मानो तुमने कही से एक सुनसान में आवाज दे दी हो..........और एकाएक पक्षियों का कलरव गान गूँज उठा हो.......... कई दिनों के बाद मिलना ऐसा ही है जैसे अभी-अभी ख़्वाबों से जाग कर उठे और सामने पसरी ज़िंदगी को देखकर बस रो दिए !!! लगता है इस चाँद की रोशनी में लगातार उतार चढ़ाव आने से सूरज की चमक में कई कई परतें चढ गई है जैसे किसी ने उचककर कह दिया हो ले जाओ यहाँ से अपनी तीखी रोशनी नहीं तो दो बाल्टी पानी फेंक देंगे.........और इस सबके बीच धरती तो एकदम अँधेरे में ही रही यहाँ-वहाँ से सच में देखो ज़रा इसे पलटकर..........  लंबे दिनों के बाद एक हल्की सी बहुत छोटी सी रात आई थी और सपनों के पंख उग आये ऐसे जैसे किसी अबाबील के सर पर उग जाये एक झंझाड सोचा कि कहाँ से सोचूँ और फ़िर बंद कर दिया क्योकि सोचना एक कष्टप्रद प्रक्रिया है और फ़िर मिलता कुछ

सौ. कल्याणी खोचे को नमन और अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

फेसबुक नियमित ना देख पाने का आज बड़ा दुःख हुआ जब मी मराठी नामक एक अखबार से मालूम पड़ा कि मेरी मित्र साधना खोचे की माँ का देहांत हो गया सौ. कल्याणी खोचे बेहद जागरूक महिला और ममतामयी माँ थी, शाम को साधना को फोन किया तो बहुत बुरा लग रहा था. उनसे हमेशा मिलना होता था और हमेशा वो समाज में काम करने के लिए प्रोत्साहित करती रहती थी. साधना के पापा नर्मदा बाँध में चीफ इंजिनियर थे पर आई के व्यवहार से कभी नहीं ल गा कि वे इतने बड़े पद वाले व्यक्ति की पत्नी है, हमेशा मुस्कुराती हुई वे सबसे मिलती थी. साधना ने कल्याणी सामाजिक संस्था बनाई थी कठ्ठीवाडा (आलीराजपुर) के कवछा गांव में, तो वे हमेशा हेरविग और साधना को कहती कि गरीब लोगों के लिए काम करो, उन्हें जागरूक बनाओ और सबकी मदद करो. संस्था के दस वर्ष पुरे होने पर देवी अहिल्या विवि, इंदौर के सभागृह में कार्यक्रम रखा था तब मै उनसे मिला था और खूब लंबी बात की थी. जब उनके मंच पर सम्मान का अवसर आया तो वे लजा गई और बोली मैंने किया ही क्या है बड़ी मुश्किल से वे मंच पर चढ कर आई और दो शब्द बोलकर बैठ गई श्रोताओं में एकदम सहज महिला थी वे. आज ऐसे लोग

खूनी शहतीरें और मातम की गहरी आवाजें

कह रही थी तुम ना कुछ..........मुझे सहानुभूति नहीं चाहिए बॉस......जी हाँ, सहानुभूति, आज भी, उस दिन भी और वाट्स अप पर रोज कहती हो तो लगता है युगों से, सदियों से यही कह रही हो पर मै क्या करूँ, लड़ते लड़ते अब भी थका नहीं हूँ और रोज सुबह हर सूर्योदय के साथ एक जद्दोजहद चालू हो जाती है... हर आती-जाती सांस के साथ !!! कोई बहाना नहीं और कोई सार्थकता नहीं चाहिए, बस, अपने होने को बार-बार परिभाषित करता हूँ, शायद इसलिए कि हर बार आईना देखने पर  लगे कि यह मै ही हूँ, यह मेरा ही वजूद है और मै ही हूँ जिसे दो-चार होना है अपने आप से और लड़ना है, जानता हूँ कि यह लड़ाई हारी हुई लड़ाई है, एक ऐसी बाजी जिस पर के सारे मोहरे मात खा चुके है, शह और मात का खेल खत्म, सारे मोहरें अब बंद होकर डिब्बे में बंद है, खूनी शहतीरें और मातम की गहरी आवाजें अंदर से निकालना चाह रही है और जीवन रुक सा गया है, तुम जानती हो यह सब, समझती हो मेरी भाषा, और हर शब्द का अर्थ ???  हर शब्द - जो हजार बार दिल-दिमाग से लड़कर, उँगलियों के पोरों से लिपटता हुआ बेबस सा निकलता है और फ़ैल जाता है एक सूर्ख कागज़ पर या इस फलक पर जहां उसका होना एक अंतिम उदघो