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अभी यह मुकुल के कंठ में हो रहा..."

सीहोर मे, भोपाल में मुकुल दा के साथ रहा हूँ कमोबेश रोज ही मिलना होता था, और खूब लंबी लंबी बातचीत, फ़िर उनका एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था जहां उन्होंने बड़ी तल्लीनता से गया था. जहां वे रहते थे वहाँ शाम की आरती में वो दो तीन निर्गुणी भजन जरुर गाते थे और यह सब सुनना बहुत भाता था. सुना तो उन्हें नेमावर में भी है ठीक हण्डिया के पुल पर या नीचे और हरदा में भी और देवास में दो एक बार............

Anirudh Umat जी ने यह जो लिखा है वो बहुत ही सारगर्भित और सामयिक है. बहुत ही सुन्दर और सहज है मुकुल दादा के बारे में यह विवरण...............

:इस आवाज को सुनना कला के गूढ़ को तरल में ग्रहण करना है....इधर जितने नए कंठ सुने उनमे मुकुल जी केवल अपने में एक है. उनके गायन के बारे में कुछ भाषा में सहज...सम्भव नही. शब्द जहां मौन की सीपी में मोती सी नीद सो जाएं तब मुकुल जी का गान अखिल में पसरता है . नीले आकाश में नीली कामना सा...आत्मा में घुलता ...घोलता...प्रकृति के सारे रहस्य यहाँ अपनी देह खोल देते है....नर्तन करने लगते है....इसे शिव और शव दोनों सुनते गाते काल को थाम पल भर को शून्य कर देते है...हरीतिमा...नीलिमा...कालिमा...पीताभ...रक्ताभ...नाद....गुम्फन...गान में ईश्वर खुद को रूपायित कर कृतार्थ करता ...होता है...अभी यह मुकुल के कंठ में हो रहा..."
 

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