हाँ वो डफरीन ही थी , एक सुदूर देश के रहने वाली राजकुमारी नुमा सुन्दर सी प्यारी सी लडकी, जो अब नहीं है चली गई है यहाँ से हमेशा हमेशा के लिए. प्यार और बाकि सब तो नहीं जानती थी पर जीवन को अपनों के साथ जीने की कला में माहिर थी वो........बहुत भावुक, संवेदनशील और एकदम साफ़ नजरिये से जीवन जीने वाली लडकी. डफरीन के पुरखे अंग्रेज और फ्रेंच थे और वो उनका मिला- जुला सम्मिश्रण, बस जीवन वही से शुरू हुआ था जब उन फौजी मैदानों में ऊँचे ऊँचे पेड़ों के बीच से हवाएं सरसराती हुई गुजराती और शाखें झूमती तो लगता कि जैसे कि सब कुछ थम जाये और फ़िर बस सब कुछ यही वही खत्म हो जाये.......आज से डफरीन के बारे में उसके प्यार और जीवन के बारे में फ़िर से सोचना शुरू किया है और यह एक असफल प्रेम की झूठी कहानी है जो मै कई सदियों से लिखना चाहता हूँ.........
ये मप्र का रायसेन है और नब्बे के दशक की शुरुआत, डफरीन का भारत में आने का मकसद कुछ खास नहीं पर यहाँ की शिक्षा पर एक गैर जरूरी पडताल करना है वो घूमती है भोपाल के रास्तों पर, असम के ब्रम्हापुत्र नदी पर चलती है, बिहार के पटना में गांधी मैदान पर खड़े होकर बीडी का एक कश खींचती है, मुम्बई में खड़े होकर ताज को निहारती है और कबुतरों के पीछे दौडती है, जयपुर में हवा महल में खड़े होकर चिल्लाती है अपना नाम, दिल्ली में जाकर क़ुतुब पर से कूद जाना चाहती है पर रायसेन में आकर वो शहर में घूमती है, वो शहर के बाहर जाकर बेडनियों के साथ नाचती है और इसी रायसेन की नवनिर्मित डाईट की बिल्डिंग में रहती है रात को निर्जन पडी बिल्डिंग रोशन हो उठती है डफरीन के कारण, यहाँ कोई शोर नहीं है कोई हलचल नहीं - बस वो है और मै हूँ........इतने सवाल पूछती है कि मै तंग आ जाता हूँ उसकी बकबक सुनकर पर उसे कोई चिंता नहीं है लहंगा और साड़ी सीख ली है उसने पहनना किसी से और बस फ़िर क्या है सर पर पल्ला ओढ़े वो भटक रही है और मै किसी अज्ञात भय से उसके पीछे चल पडता हूँ. वो किला चढ जाती है और फ़िर दौड़ कर मेरे गले लगती है पूछती है कि क्या यहाँ के नवाब हाथी पर बैठकर भोपाल जाते थे, क्या यहाँ की मजार पर कुछ भी माँगने से इच्छा पूरी हो जाती है. मै कुछ नहीं कहता कुएँ की मुंडेर पर बैठकर एक अदद बाल्टी पानी उलीचता हूँ और फ़िर उसे ओक से पिलाता हूँ और वो अपनी साड़ी के पल्लू से मुँह पोछकर हंस देती है मेरी डरावनी सूरत देखकर .रायसेन का मेरे जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है डफरीन, और तुम्हारे जाने के बाद यह शहर मेरे अंदर बस गया है, मै आज भी सपनों में हाथी पर बैठकर कुएँ की मुंडेर से पाने उलीच रहा हूँ कहा हो तुम लौट आओ डफरीन !!!
ये मप्र का रायसेन है और नब्बे के दशक की शुरुआत, डफरीन का भारत में आने का मकसद कुछ खास नहीं पर यहाँ की शिक्षा पर एक गैर जरूरी पडताल करना है वो घूमती है भोपाल के रास्तों पर, असम के ब्रम्हापुत्र नदी पर चलती है, बिहार के पटना में गांधी मैदान पर खड़े होकर बीडी का एक कश खींचती है, मुम्बई में खड़े होकर ताज को निहारती है और कबुतरों के पीछे दौडती है, जयपुर में हवा महल में खड़े होकर चिल्लाती है अपना नाम, दिल्ली में जाकर क़ुतुब पर से कूद जाना चाहती है पर रायसेन में आकर वो शहर में घूमती है, वो शहर के बाहर जाकर बेडनियों के साथ नाचती है और इसी रायसेन की नवनिर्मित डाईट की बिल्डिंग में रहती है रात को निर्जन पडी बिल्डिंग रोशन हो उठती है डफरीन के कारण, यहाँ कोई शोर नहीं है कोई हलचल नहीं - बस वो है और मै हूँ........इतने सवाल पूछती है कि मै तंग आ जाता हूँ उसकी बकबक सुनकर पर उसे कोई चिंता नहीं है लहंगा और साड़ी सीख ली है उसने पहनना किसी से और बस फ़िर क्या है सर पर पल्ला ओढ़े वो भटक रही है और मै किसी अज्ञात भय से उसके पीछे चल पडता हूँ. वो किला चढ जाती है और फ़िर दौड़ कर मेरे गले लगती है पूछती है कि क्या यहाँ के नवाब हाथी पर बैठकर भोपाल जाते थे, क्या यहाँ की मजार पर कुछ भी माँगने से इच्छा पूरी हो जाती है. मै कुछ नहीं कहता कुएँ की मुंडेर पर बैठकर एक अदद बाल्टी पानी उलीचता हूँ और फ़िर उसे ओक से पिलाता हूँ और वो अपनी साड़ी के पल्लू से मुँह पोछकर हंस देती है मेरी डरावनी सूरत देखकर .रायसेन का मेरे जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है डफरीन, और तुम्हारे जाने के बाद यह शहर मेरे अंदर बस गया है, मै आज भी सपनों में हाथी पर बैठकर कुएँ की मुंडेर से पाने उलीच रहा हूँ कहा हो तुम लौट आओ डफरीन !!!
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