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Showing posts from June, 2012

Interesting Discussion on Water Problem of Dewas and Award

संयुक्त राष्ट्र ने मध्य प्रदेश के देवास जिले को इस साल सामुदायिक जल प्रबंधन के काम के लिए दुनियां के बेहतरीन तीन कामों में से एक माना है. बधाई हो देवास. Sandip Naik अरे वाह मेरा जिला महान और पानी के ये हाल वहाँ कि बारह दिनों में एक बार मिलता है इंदौर से उधार ले-लेकर गुजारा चल रहा है.............हमें तो दशकों से पानी नसीब नहीं हुआ..........घर के ट्यूबवेल पर ज़िंदा है वरना सरकारी पानी तो सपने भी नहीं आता ब............ये कहा से खबर या गप्प उडाई है तुमने भाई...........हाँ पानी के नाम पर बड़ी दुकाने जरूर है देवास से लेकर बागली तक....   Dear Sandip Naik ji, Indore has been started to learn Water Management from the farmers of Dewas. I challenge you to prove ground report written by me at http:// www.thegroundreportindia.co m/2011/12/ miracle-achieved-by-the-joi nt-efforts-of- a-local-community-and-a-go vernment-administration-an -economy-of-water-by-a-vis ionary-crusader-umakant-um rao/ Maybe for you Dewas means the city of Dewas not the village areas. All photos

बाबा नागार्जुन की एक कविता- अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद धुंआ उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद ।

फ़िर एक बार फराज़.............

कुछ मुहब्बत का नशा था पहले हम को फराज़, दिल जो टूटा तो नशे से मुहब्बत हो गयी...!! हम जमाने में यूंही बेवफ़ा मशहूर हो गए फराज़, हज़ारों चाहने वाले थे किस किस से वफा करते...!! उसे तराश के हीरा बना दिया हम ने फराज़, मगर अब सोचते हैं उसे खरीदें कैसे...!! आँसू हंसी हंसी में निकल आए क्यों फराज़, बैठे बैठे यह कौन से गम याद आ गए...!! काट कर जुबां मेरी कह रहा था वो फराज़, अब तुम्हे इजाज़त है हाल-ए-दिल सुनाने की...!! “फराज़” वो आँखें झील सी गहरी तो हैं मगर, उनमें कोई अक्स मेरे नाम का नहीं, आशिक़ी से उसकी उसे बेवफ़ा न जान, आदत की बात और है वो दिल का बुरा नहीं...!! तुम मुझे ख़ाक भी समझो तो कोई बात नहीं, यह भी उड़ती है तो आँखों में समा जाती है...!! किसी के एक आँसू पर हजारों दिल तड़पते हैं, किसी का उम्र भर का रोना यूंही बेकार जाता है...!! उसने मोहब्बत की कसम दी है, और प्यार का वास्ता भी लिखा है, उसने न आने को कहा है और, साफ साफ लफ्जों में रास्ता भी लिखा है...! तुम तक्क़लुफ़ को भी इख्लास समझते हो फराज़, दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला...!!   कुछ

सभी की दुआएं कबुल हो

कल का स्टेटस था.......... "आज से पेट्रोल सिर्फ २० रूपये प्रति लीटर, डीज़ल १० रूपये लीटर, इनकम टेक्स माफ, वेट खत्म, गेस की टंकी मात्र १०० रूपये, रेल किराए में ६० % की कमी, सरकार ने एक मुश्त सातवे वेतन आयोग का गठन कर नवीन वेतनमान १ जुलाई से देने की घोषणा, सभी राज्यों में तनख्वाहों में ४०% की वृद्धि, टेलीफोन फ्री, राशन की दुकानों पर अमीर गरीब सबको साल में छ माह का राशन मुफ्त क्योकि गेंहू का रिकॉर्ड तो ड़ उत्पादन हुआ है, मनोरंजन कर हटा, बैंकों में ब्याज की दरों में १६० % की बढ़त, मकान - दूकान और वाहनों के लिए लोन निशुल्क, और हवाई यात्राएं बसों की दरों पर ये आज की प्रमुख सुर्खियाँ है क्योकि दादा नामांकन भर रहे है और मौन मोहन सिंह वित्त मंत्री का " चार्ज" लेंगे और पहली बार स्वतंत्र रूप से बगैर मेडम से पूछे देश हित में निर्णय लेंगे ............क्योकि अब सरकार को २०१४ में जिताने की जिम्मेदारी उनकी है और वे इतिहास में भी अमर होना चाहते है..... यकीन ना हो तो शाम को ख़बरों का इंतज़ार करिये.............और दिन भर दुआ............" और लों पेट्रोल सस्ता हो गया कल ही

हिन्दी वर्णमाला

हिन्दी वर्णमाला  अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ए ऐ ओ औ अं अः ऌ ॡ क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण ड़ ढ़ त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व स श ष ह क्ष त्र ज देवनागरी वर्णमाला को दो भागो में विभाजित किया गया है, स्वर व व्यंजन, फिर व्यंजन के भी दो प्रकार होते है, वर्ग युक्त व्यंजन और वर्गेतर व्यंजन (वर्ग से अलग) और साथ में होते है संयुक्ताक्षर, अनुस्वर और विसर्ग इये देखे कैसे वर्णमाला को और अच्छे से समझा जा सकता है| १४ स्वर:- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ ऌ ॡ ऋ ॠ २५ वर्ग युक्त व्यंजन:- क ख ग घ ङ {कवर्ग} च छ ज झ ञ {चवर्ग} ट ठ ड ढ ण ढ़ {टवर्ग} त थ द ध न {तवर्ग} प फ ब भ म {पवर्ग} ८ वर्गेतर व्यंजन:- य र ल व स श ष ह ३ संयुक्ताक्षर:- क्ष त्र ज्ञ १ अनुस्वर :- अं १ विसर्ग :- अः इस प्रकार १४+२५+८+३+१+१ = ५२   सहयोग अनिमेष जैन, शिवपुरी

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...!!! - रामधारी सिंह ''दिनकर''

रामधारी सिंह ''दिनकर'' जी की ये कविता 1974 की संपूर्ण-क्रांति का भी नारा बनी...आज आपातकाल के जन्मदिन पर फिर दोहराते हैं : सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...! जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे, तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली...! जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है...।" "सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है...?" मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के, जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में...! लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...! हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा मे

सावधान होशियार खबरदार..............II

आओ महाराज इस पिछड़े परदेस में आपका स्वागत है............ए पोरया जा रे हाथ धोके साब को कट पिला और मेम साब के लिए कुर्सी पर फटका मार चल जा........अरे मास्टर सुना नहीं ये वही है जिनकी इस देश में सबसे बड़ी फेक्ट्री है शोषण की, इन्होने देश के पढ़े लिखे युवाओं को अपने डिब्बे चलाने दिए फ़िर अमेरिका में माल बेचा वहाँ से भगाया तो देश के नामचीन शहर में एयरपोर्ट की राजनीती में लग गये, जब टेक्स बढ़ने लगा तो कुछ बूढ़े नापाक रिटायर्ड आय ए एस अफसरों की रणजीत सेना बनाकर शिक्षा के क्षेत्र में दुदुम्भी बजा दी और सरकारों के आला अधिकारियों को टुकड़े डालकर अपना झोला फैलाया और अब ये आका है देश के समाजसेवी और बड़े कारपोरेट जगत के महामहिम!!! रोज ये गलियाते है राजनीति को, नेताओं को और देश को जेब में रखते है, इनकी बीबियाँ एनजीओ चलाती है और बहुत महंगे अखबारों में रोज एक लेख लिखती है बालिका शिक्षा पर, ए सरपंच इधर आ, जा दो पोया लेके आ देखता नहीं तेरी पंचायत में साब आये है अब तेरे गाँव  के बच्चों का भला इनके गुर्गे करेंगे और फ़िर देखना बारहवीं के बाद इन्ही के विश्व विद्यालय में भेज देना जहां जाने माने लोग जो अपनी अंतरात्मा

सावधान होशियार खबरदार

म् प्र में अब एक बड़े मैनेजर और सबसे ज्यादा रसूख वाले कारपोरेट का शिक्षा में दखल हो रहा है अब आप समझ लीजिए कि अगले पांच बरसों में शिक्षा का और भी ज्यादा कबाडा होगा क्योकि ये लोग ना तो शिक्षा की समझ रखते है, ना कोई विचार , ना कोई विकल्प है, ना कोई अवसर- बस करोडो रूपयों का दाना पानी है और बूढ़े रिटायर्ड लोग जो रूपये पानी और विदेशों की चाहत में मौत की राह तक रहे है लाचार निकाले गये कर्मचारी ........जी हाँ आप अभी भी नहीं पहचान पा रहे है ये वही है जो स्कूल से लेकर विश्व विद्यालय तक बना बैठे है और इनके कार्यकर्ताओं के नाम से उत्तरांचल की शालाओं में दीवारों पर नील से "अनमोल वचन" लिखे गये है. एक समय था जब म् प्र में शिक्षा के नाम पर प्रयोग, नवाचार और काम करने की छूट थी और अब इनके प्रवेश से सब "प्रोफेशनल" हो जाएगा और चंद टुकडों की खातिर सारे जमीनी एनजीओ भी इनके इशारों पर नाचने लगेंगे और यही नहीं ये कारपोरेट राजस्थान, गुजरात, उत्तरांचल के कई संस्थाओं और लोगों को निगल गया है क्योकि ये सिर्फ मेनेज करना जानते है और कुछ नहीं. मुझे मप्र के शिक्षा परिदृश्य की बहुत

प्रशासन पुराण 50

उस दिन की बात थी दफ्तर प्रमुख ने लेनदेन के मसले पर एक अधीनस्थ को पेपरवेट उठाकर निपटा दिया था सेवाभावी था अफसर, सो उसने आव ना देखा ताव और लगा दिया पेपरवेट, खून निकला और टाँके लगे और फ़िर थाने में रपट भी लिखी गयी. जिले के सूचना अधिकारी ने अखबार वालो को ले देकर मामला रफा-दफा कर दिया, एक दो साले चेनल वाले रह गये- दारू समय पर पहुँच नहीं पाई तो उन्होंने इस घटिया सी खबर की प्रादेशिक सुर्खियाँ बटोरी,  बस पी एस सी से आया युवा सूचना अधिकारी हतप्रद था उसने इस सेवाराम से रूपया खा लिया था सो इन दोनों में भी ठन गयी. खैर, पुलिस तो जाहिर है खाने के लिए ही पैदा हुई है. दफ्तर में सबको अपना हिस्सा नहीं मिल रहा था सो लोगों ने राजधानी जाकर बूढ़े कमजोर लाचार आयुक्त से शिकायत की कि भैया हम सबको या तो रूपया खाने दो या हम उस सेवाराम के साथ काम नहीं कर सकते, जिसे मारा गया था वो भी इस जत्थे में शामिल था. बस फ़िर क्या था दफ्तर में एक अबोला था और लगभग तीन माह के बाद शासन की कुम्भकर्णी नींद टूटी और नए वित्तीय साल के शुरू होने के दो माह बाद पीटने वाले और मार खाने वाले अफसरों के तबादले के ऑर्डर आ गये. खुशी की लहर तो दौ

प्रशासन पुराण 49

सरकारी दफ्तर था सो जाहिर है लोग भी सरकारी होंगे और वे भी असरकारी, सबका सबसे सम्बन्ध था सबकी सबसे प्रीति थी और सबने सब सांठ गाँठ रखा था सो कही कोई दिक्कत नहीं आती थी ठीक एनजीओ वालों की तरह जो एक तरह की भाषा बोलते थे और एक जैसा ही व्यवहार करते थे. इस पुरे दफ्तर में पुरे समय धुएं के बादल छाये रहते थे कोई भी आता तो चपरासी से लेकर बाबू और बड़े साहब भी बीडी की मांग करते थे बस अकाउन्टेंट था जो ससुरा सिगरेट मांगता था उसके अनुशासन और मूल्य बहुत ही अलग थे. जब किसी नए ज्वाइन हुए आदमी से लगने वाले कर्मचारी ने कहा कि घूम्रपान तो निषेध है तो सारा दफ्तर मानो नींद से जाग गया और उस नए से आदमी को काटने को दौड़ा और बोला कि नियम कायदे हमें ना सिखाओ मियाँ, यहाँ तो सालों से यही होता आया है और होता रहेगा. अब सवाल यह था कि बात तो सही थी पर कैसे रोके सो सबने मिलकर एक नियम तय कर लिया कि हर आने वाले से एक बीडी बण्डल और सिगरेट के पैकेट के रूपये मांग लिए जाए और फ़िर शाम को इकट्ठा करके आपस में बाँट लिए जाए ताकि जिसको जब पीना हो पी ले- बाहर खुले प्रांगण  में, संडास में या इस बंगले से नुमा दफ्तर के किचन में,  बस तकलीफ

बिछड़े सभी बारी बारी.........................."

कितने आदमी थे ............. सरकार छत्तीस..................... और अब कितने है यहाँ.......... बस आठ................ क्यों सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय दबाव थे ना सरकार........काम भी अलबेला था सरकार धीरे धीरे सब बिछड गये और चले गये ............. तो तुम क्या कर रहे हो............... जी गुनगुना रहे है गुरुदत्त की तर्ज पर "बिछड़े सभी बारी बारी.........................." और लों एक और आउट ................ Vishal Pandit अच्छा लगा कि जीवन के सफर में और भागती दौडती ज़िंदगी में कुछ पल ठहर कर एक निर्णय लिया और अब और बेहतर करने का जज्बा लेकर यहाँ से वृहद अनुभवों की बिसात पर जा रहे हो. ढेर सारी शुभकामनाएं और दुआएं कि जो करो बेहतर करो, सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ करो, साथ ही अपने हूनर और दक्षताओं को बढाते रहो. जयपुर आने पर निश्चित ही डेरा तुम्हारे घर लगेगा और फ़िर तुलजापुर जीवंत हो उठेगा और ढेर सारी यादें............ शुभकामनाएं......  

ये अमेरिका की पढाई इतनी महंगी और महत्वपूर्ण क्यों

ये अमेरिका की पढाई इतनी महंगी और महत्वपूर्ण क्यों है कि जो जा रहे है वो जाने के पहले गधों जैसे हो जाते है वीसा, जी आर ई , टोफेल और आखिर में बेंक के लोन चक्कर में.............. सबसे ज्यादा बुरा लगता है जो विद्यार्थी जा रहे है वो सर पर लोन का बोझ और सदियों की थकान लेकर जाते है फ़िर वहाँ जाकर क्या ऐसा मिल जाता है कि उनका सारा किया धरा धूल जाएगा...........पाप पुण्य और वगैरहा वगैराह, और अब तो अमेरिका की एम्बेसी यह सूंघ ले कि गुरु आप नौकरी के भी जुगाड में रहोगे पढाई के बाद, अपने लोन को चुकाने के धत करम भी करने की मंशा पाल रहे हो, तो बस भैया वो तो वीसा पे ही कुंडली मार के बैठ जायेंगे .............. जहां तक मेरा ज्ञान है भारत ज्ञान का केन्द्र रहा है फ़िर ये हाय तौबा क्यों............और फ़िर ये सारा दर्द झेलकर जाने की जरूरत क्यों..................... गौतम बुद्ध कहते है लंबी दूरी तय करना हो तो सर पर कम वजन रखकर चलो...............पर हमारे ये युवा सर पर अरबों टन का तनाव और पुश्तों के कर्ज रखकर जा रहे है जबकि मियाँ ओबामा ने आउटसोर्सिंग बंद करने का भी फैसला कर दिया है और वो क्या क

एक अशोक के पेड़ को लगाने से सौ पुत्रों का सुख

सुना था कि एक अशोक के पेड़ को लगाने से सौ पुत्रों का सुख मिलता है, बहुत साल पहले यानी कि सन १९८२ में जब यह मकान बना ही था और इसके फेंसिंग भी नहीं खीची गयी थी तब मैंने बाल्गढ़ की नर्सरी से लाकर एक नहीं, दो नहीं, पुरे सात अशोक के पेड़ लगाए थे........कालान्तर में वे बड़े होते गये और उनकी पत्तियाँ इस तरह से जगह घेर लेती थी कि हमें गाहे- बहाहे उन्हें छांटने के लिए एक आदमी बुलाना पडता था जो उन डालियों को क ाटकर सड़क पर फेंक देता था, कई दिनों तक उन पत्तियों को सूखता हुआ देखकर दुःख होता था कि उन्हें गाय जानवर भी नहीं खाते थे. धीरे धीरे समझ आया कि संसार में सब ऐसा ही होता है कहावतों और मिथकों में जीने वाले हम लोग अचानक कही से कुछ सुन लेते है फ़िर अंधानुकरण करने लगते है और मन की भ्रांतियों को गुत्थम गुत्था करके अपने लिए दुःख पाल लेते है जैसे यह सौ पुत्रों का सुख ............हा हा हा...........एक या दो पुत्र ही आदमी को इतना दुःख दे देते है कि वो सारे उम्र उनसे ही निजात नहीं पा सकता तो तो सौ पुत्रों का दुःख कैसे छुडवायेगा............मिथक, जीवन और सच्चाई कितने अलग होते है ना..........

RIP- Shrikant Suryvanshi the only Best Chemistry Teacher

Shrikant Suryvanshi the only Best Chemistry Teacher of the world and Dewas passed away today.............. Oh So sad ..............its a sad news indeed he was nt only a Chemistry teacher but one the best persons whom I met in life. I remember he was almost like our educational father and gave us all the learning of life. I know him since 1979, fortunately he was my class teacher in X "G", Very often he would meet us.......and ask about each one of us, he would know all my batch mates by name and keep him self up dated with our jobs, places and life. He was active till his last breath if i say it wont be wrong. Shrikant Suryvanshi was the name of Teaching Field in Dewas, Dr Upadhyay, Yatish kanungo, PD Saxena and Shrikant Suryvanshi are the four major pillars of educational field who taught 90 % of present Dewas and made them such human beings that they all are doing jobs nicely and running family. One of the pillars among these four has gone today. He was

तुम जज्बात बनकर हमारे बीच जिंदा रहोगे तरुण

22 साल का तरुण. तरुण सहरावत, तहलका का फोटो पत्रकार. हम सबके बीच से चला गया,हमेशा के लिए. हमारे आदि पत्रकार, हम सबके आदर्श भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से भी बहुत पहले. सोचिए तो,पत्रकारिता के पेशे में 22 की उम्र क्या होती है ? इस उम्र में और अक्सर इससे ज्यादा ही में मोटी रकम झोंककर कोर्स करनेवाले मीडिया के हजारों छात्र इन्टर्नशिप के लिए इधर-उधर कूद-फांद मचाते रहते हैं. कायदे से दो स्टोरी किए बिना ही बरखा दत्त,राजदीप, अर्णव गोस्वामी जैसी एटीट्यूड पाल लेते हैं या फिर तथाकथित अनुभवी पत्रकारों की चमचई के शिकार हो जाते हैं. कल आधी रात गए जब मैं तरुण की खींची तस्वीरों के बीच डूबता-उतरता जा रहा था और एफबी चैट बॉक्स पर एक के बाद एक ऐसे ही मीडिया कोर्स करनेवाले के सवाल आ रहे थे कि सर आइआइएमसी में जाने का सपना था, नहीं हुआ, अब आजतक वाले इन्सटीट्यूट में जाउं या विद्या भवन तो मन झन्ना गया. एक तरफ तरुण के गुजर जाने का सदमा था, इतनी छोटी सी उम्र में की गई उसकी बेहतरीन और खोए हुए अर्थ की पत्रकारिता थी और दूसरी तरफ चैटबॉक्स में उनलोगों के संदेश थे जिनका सपना प

तुम्हे याद हो कि ना याद हो........

कहा तो था कि आउंगा आज ही वो भी जानने के बाद मेरे बताने के बाद................फ़िर कहा अटक गये...........सामने से गुजरा तो इतने मशगुल थे कि पहचाना भी नहीं या मुझसे बात करने में दोस्तों को छोडना पडता.........जो भी हो मै तो उसी कोने से एकटक ताकता रहा कि अभी पलटोगे और एक आवाज़ दे दोगे कि रुक जाओ कहा जा रहे हो अँधेरे में मिलकर तो जाओ पर आसमान में घटाटोप अन्धेरा और छा  गया हल्की सी बूंदा बांदी होने लगी जो आग जल रही थी वो शायद शांत होने को नहीं और भडकाने को लगी थी और ऐसे में मेरा देर तक कड़े रहना मुश्किल हो गया यह पक्का हो गया था कि तुम देखकर भी अनजान बन् गये और आज ना आने के लिए भूल गये वो सब दिन और वो सब...........जो गजल की जुबान में कहू तो.....हममे तुममे करार था.....................तुम्हे याद हो कि ना याद हो........

तुम्हारे लिए ............सुन रहे हो...........कहा हो तुम........

और फ़िर एक बार अपने रण और रणक्षेत्र में अकेले दुदुम्भी उठाये..............जहां जीवन के ४५ से ज्यादा बरस बिता दिए, दोस्तों दुश्मनों का शहर, मददगारों का शहर, गुरूर वालों का शहर, राजनिती और गहमा गहमी का शहर, वो शहर जहां से जीवन की खुशियाँ उठाई थी और आज एकदम अकेलापन भुगतने की पीड़ा का दंश.............बस तसल्ली यह है कि आज भी किसी भी गली या कोने में निकल जाऊं तो चेहरे परिचित निकल आते है, डर नहीं लगता कि कही कुछ हो गया तो लोग जेबें टटोलेंगे और खोजते फिरेंगे या मोबाईल में आख़िरी कॉल देखेंगे, इसलिए मैंने तुम्हारे सारे नंबर ही मिटा दिए क्योकि अब तुम कहा और मै कहा ??? जब हम पास रहकर इतने दूर है तो दूर रहकर कहा पास आ पायेंगे.......................यहाँ तो यह आलम है कि लोग चेहरा देखकर घर छोड़ जायेंगे............आशीष मंडलोई कहता है अभी भी दादा आपकी लाश एक चौराहे पर रख दे सिर्फ दो दिन देवास में तो एकाध लाख तो इकठ्ठे हो ही जायेंगे, और मेरे एनजीओ में काम आयेंगे, पर आपकी लाश के कई दावेदार है मेरा कहा नंबर आएगा..................ऐसा शहर है यह मेरा................देवास...........बस अब उम्मीद

अब ख्वाब बनकर बसना

दिल में.- रंजिश ही सही  दिल्लगी तो रही  दिल दुखेगा तुम्हारे बिन  दुखते दिल की खातिर आना फिर ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मालूम है,तुम मरकर भी हमें चाहोगे पर क्या मरना जरुरी था हमें चाहने के लिए? अच्छा, चाहो न चाहो,पर फिर आ जाओ अबके बिछड़े शायद हम न मिलें सूखे गुलाब अब किताबों में नहीं मिलते नींद नहीं तो ख्वाब भी कहाँ पर तुम जो इक गुलाब थे हमेशा अब ख्वाब बनकर बसना 

कभी जो थे प्यार की जमानत

A Tribute to Ghazal maestro Mehdi Hassan....... हमारी सांसो में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है लबों पे नगमे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती छलक रहीं है कभी जो थे प्यार की जमानत, वों हाथ है गैर की अमानत जो कसमे खाते थे चाहतो की, उन्ही की नीयत बदल रहीं है किसी से कोई गिला नहीं है, नसीब में ही वफ़ा नहीं है जहाँ कहीं था हिना को खिलना, हिना वही पे महक रही है वों जिनकी खातिर ग़ज़ल कहे थे वों जिनकी खातिर लिखे थे नगमे उन्ही के आगे सवाल बन के ग़ज़ल की झांझर झलक रही है.........

मुझे छोड़ के जाने के लिए आ..........श्रद्धांजलि मेहंदी हसन साहब

तुम्हारे लिए ................सुन रहे हो.............कहा हो तुम................ रंजिशे सही दिल ही जलाने के लिए आ, आ फ़िर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ........ ज़िदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है एक ज़रा सा ग़म-इ-दौरान का भी हक है जिस पर मैंने वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है तुझ पे हो जाऊँगा कुर्बान तुझे चाहूँगा मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा {मेंहेंदी हसन की आवाज़ मैं एक दिलकश ग़ज़ल} Govind Piplwa  की दीवार से साभार.............

गुनगुने पछतावों के बीच जिंदा रहने का स्वांग

मुझे लगता है संत सा जीवन बिताने के लिए हमें दूसरों पर गुस्सा होते समय संयम रखना होगा और वो सारा गुस्सा अपने ऊपर निकालना होगा और अपने को ही तकलीफ देनी होगी शायद वही सच्चा संत चरित्र होगा.......शायद इस तरह से हम बचा सकेंगे एक संसार को और रिश्तों के महीन तंतुओं को जो बुनते है सारा ताना बाना. हर एक का अपना एक मूल चरित्र होता है और हर कोई अपने अंदाज में भावों को व्यक्त करता है. मुझे लगता है मूल स्वभाव को बदलना भावनाओं से बलात्कार होगा...और रही गुस्से की बात वो तो निकल ही जाए तो बेहतर है, मेरा मानना है कि समझदार आदमी का गुस्सा जहाँ एक ओर निरर्थक नहीं होता वहीँ दूसरी ओर कभी बेकार नहीं जाता. अब मुझे अपने निजी अनुभवों से लगने लगा है कि गुस्सा अपने ऊपर निकाल लू तो ही बेहतर होगा बजाय इस पर, उस पर, आप पर या व्यवस्था पर निकालने के बजाय.................क्योक ि अब सहने की क्षमता खत्म हो गयी है................इससे अच्छा है कि मै अपने ऊपर नाराज हो जाऊ कुछ तर्पण करू , कुछ गुनगुने पछतावों के बीच जिंदा रहने का स्वांग या........पुनः अपने को प्रताडित करने की कोशिश.  

इंदौर में स्व श्रीकांत जोशी स्मृति समारोह में कुमार अम्बुज

        कल उत्कल बनर्जी ने इंदौर में स्व श्रीकांत जोशी स्मृति समारोह में लगातार दसवे वर्ष भी कविता संध्या का आयोजन किया...............इस बार आमंत्रित कवि थे कुमार अम्बुज. कुमार अम्बुज ने अपने लगभग सभी संग्रहों से प्रतिनिधि कवितायें पढ़ी और प्रीतम लाल सभागृह में बैठे श्रोताओं को लगभग मन्त्र मुग्ध कर दिया. किवाड, क्रूरता, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और अन्य संग्रहों से पढ़ी गयी कवितायें सिर्फ कवितायें नहीं वरन जीवन की वे कठोरतम त्रासदियाँ है जो हमें ना सिर्फ समाज में होने वाली बातों का आईना दिखाती है वरन एक लडने की जिजिविषा भी देती है, ये कवितायें कुमार के गहरे आब्जर्वेशन और संवेदना से आती है इसलिए वे सीधे श्रोताओं के मन में घर कर लेती है या पाठक को हिला देती है. कुमार अम्बुज एक सुलझे हुए कवि ही नहीं बल्कि एक संगठनकार है जैसाकि विनीत ने कल कहा था कि वे कवि से ज्यादा आम आदमी, मजदूरों की लामबंदी और लोगों के मुद्दों पर काम करने वाले एक्टिविस्ट है जो कविता के बहाने से अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताएं दर्शाते है. स्वभाव से विनम्र कुमार अम्बुज ने हाल में मोजूद लोगों को साथी के रूप म

शुचिता और वैभव कुत्तों की भाषा में सुरक्षित है

श्वान  १ आजकल देर तक जागता हूँ तो कुत्तों की आवाजें सुनता रहता हूँ कुत्तों की लड़ाईयां सुनता रहता हूँ एक साथ कई कुत्ते निकलते है झुण्ड में और टूट पड़ते है किसी अकेले दुबककर बैठे कुत्ते पर या किसी हड्डी चबाते कुत्ते पर या अपनी पूंछ चाटते कुत्ते पर या किसी बंगले में बंधे कुत्ते पर जोर से भूंकने लगते है बावजूद इसके कि वहाँ लिखा है कुत्ते से सावधान ! कई बार उलटा भी हो जाता है एकाध कुत्ता ही इस झुण्ड पर भारी पड  जाता है और उसके बगैर उठे ही यानी गुर्राने से या सिर्फ अँधेरे में चमकती आँखें देखकर पूरा झुण्ड मिमियाते हुए बिखर जाता है आजकल कुत्तों के बारे में बहुत सोचता हूँ मै क्यों कि कुत्तों के भाव बढ़ रहे है और नस्लें भी एक से एक नई आ गयी है कुत्तों की दवाईयां, शैम्पू, साबुन, बिस्किट और कुत्तों के लिए मांस के लोथड़े क्यों एकाएक आ गए है बाजार में ...........!!! श्वान २ बहुत सोचा गया कुत्तों के साहित्य के बारे में उसकी प्रासंगिकता और सन्दर्भों के बारे में कुत्तों के साहित्य में छायावाद और प्रयोगवाद के बारे में शोध तक प्रकाशित हुए परन्तु फ़िर भी तर्क सम्मत ढंग स

नर्मदा के कई शहरों में नदी के किनारे बैठकर नदी से बतियाते हुए- नर्मदे -हर, हर, हर...................

१. अमरकंटक हरे पेड़ों के झुरमुट घनी लंबी छायादार सडकों से आने वाले श्रद्धालु एकत्रित है तुम्हारे उदगम पर नदी जहां से निकलती है बहती है संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी शंख, ढोल, और घंटियों की गूँज से आवाज़ गगन तक गूंजती है नर्मदे हर, हर, हर.............. २. जबलपुर  ऊँची चट्टानों को क्या मिला, कठोर हो गयी और दर्शनीय भी, तुम्हे आगे बढ़ने को स्थान दिया सारा शहर भेडाघाट जैसा कठोर और धुंआधार जैसा हो गया है संस्कृति और सभ्यता बदल रही है परसाई भी नहीं अब ! नदी तुम आगे बढती रहो संगमरमर तो पुनः तराश लिया जाएगा, नदी तुम बढती रहो, सबको कठोर बनाकर ............ नदी  का काम है बहना कठोरतम  क्षणों में ही फ़िर गूंजेंगे नर्मदे हर, हर, हर............... ३. होशंगाबाद कांजी  लगे घाटों के शहर में हलचल थी लोग फिसलते थे आंसू बहाते थे रेत........ सारे  खारेपन को सोख लेती है नदी किनारे का यह शहर झोलों में बंद परिवर्तनों का साक्षी रहा है पानी में वाहन चलते है और सडकों पर नाव.......... क्यों ? नदी  को किसने जाना, बूझा और समझा है, क्या करोगे सवाल पूछकर, उत्तर कोई नहीं देता न

मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़कर- अच्युतानंद मिश्र

  अच्युतानंद मिश्र युवा कवि ,आलोचक. सभी शीर्षस्थ पत्रिकाओं में कविताएं व आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित. आलोचना पुस्तक ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता’ संवेद फाऊंडेशन से तथा चिनुआ अचेबे के उपन्यास ‘Arrow of God’ का ‘देवता का बाण’ शीर्षक से हिंदी अनुवाद हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित. प्रेमचंद के प्रतिनिधि गद्यों का ‘प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति’ शीर्षक से संपादन. जन्म 27 फरवरी 1981 (बोकारो).  मैं इसलिए लिख रहा हूँ                                               में इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कविता कि मेरे हाथ काट दिए जायें मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़कर उन हाथों को रोकें जो इन्हें काटना चाहते हैं अब और था वह जब ‘अ’ के साथ था तो ‘ब’ के विरोध में था जब वह ‘ब’ के साथ था तो ‘अ’ के विरोध में था फिर ऐसा हुआ की ‘अ’ और ‘ब’ मिल गए अब ? वह रह गया बस था । लड़के जवान हो गए और लड़के जवान हो गए वक्त की पीठ पर चढ़ते लुढकते फिसलते लड़के जवान हो गए उदास मटमैला फीका शहर तेज रौशनी के बिजली के खम्भे जिनमे बरसों पहले बल्ब फूट चुका है अँधेरे में सिर झुकाए खड़े जैसे कोई बूढा ब