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Showing posts from September, 2014

Blood Bank Contact List of Indore , MP

Blood Bank Contact List of Indore , MP

श्मशान सा समर्पण भाव और सफाई अभियान

आज देवास के श्मशान में जब भाई की अस्थियाँ समेट रहे थे तो वहाँ तीन और परिवार के लोग आये हुए थे और उन्होंने बड़े करीने से सारी अस्थियाँ समेटी, बल्कि हम सबने समेटी, फिर हमने जगह को झाडू से साफ़ किया, साफ़ पानी का छिड़काव किया, फिर एक बाल्टी में पानी के साथ गोबर और गो मूत्र मिलाकर उस स्थान को स्वच्छ किया और फिर कुछ अगरबत्ती लगाकर उस जगह को एकदम पवित्र बनाने की कोशिश की यानी हाईजिनिक किया. मुझे लगा कि अगर हम उस जगह को इतनी साफ़ कर देते है जिसका उपयोग हमारे जीते जी हम खुद के लिए नहीं क र पायेंगे, और भावना यह रहती है कि कोई दूसरी लाश आयेगी तो उसे साफ़ जगह मिलना चाहिए इसलिए हम सारे लोग बिलकुल भिड जाते है और सफाई में कोई कसर नहीं रखते, क्या हम अपने सार्वजनिक स्थलों को साफ़ नहीं रख सकते? वही याद आया कि देश में सफाई की बड़ी बड़ी बातें हो रही है नई झाडुएँ खरीदी जाकर मीडिया में छा जाने को नौटंकी निभाने की रस्में अदा की जा रही है और जिस गांधी को मारकर राजनैतिक सफाई की दुहाई पिछले सत्तर बरसो से दी जा रही थी, यकायक उसी गांधी को दुनिया में बेचकर और देश में २ अक्टूबर से सफाई का बड़ा काम हाथ में लिया जा

संगीत नाईक "बाबा" का गुजरना यानी सहोदर के बिछड़ने का स्थाई दुःख

जीवन   बहुत कठोर होता है और परसों (27/9/2014) आखिर में मौत ने फिर घर देख लिया और मेरे सगे छोटे भाई  संगीत नाईक जिसे हम प्यार से और पूरा देवास "बाबा" कहता था, को अपने आगोश में ले लिया.  पिछले   बारह वषों से जिस जीवन की लम्बी लड़ाई वो लड़ रहा था, अपने दोनों गुर्दे खत्म होने के बाद भी जिस हिम्मत और आशा से उसने लम्बी लड़ाई लड़ी और मौत को हर बार चकमा दिया, परसों आखिर सात दिनों अस्पताल में घेर घार कर मौत ने उसे दबोच ही लिया.  मेरे   जीवन में उसे मैंने बचपन से प्यार ही नहीं दिया एक पिता की भाँती उसे पाला  और उसके हर पल में मै उसके साथ रहा. तुलसीदास जी कहते है कि जग में सहोदर जैसा कोई नहीं हो सकता और अब मै यह जब आज लिख रहा हूँ तो कुछ शब्द मानो खो गए और वाणी थक से गयी है. बस इतना ही कि मुझे अकेला छोड़कर वो एक लम्बी दूरी पर अनथक यात्रा के लिए निकल गया है अकेला और हम सब बेहद अकेले रह गए है अब.  मै   बहुत शुक्रगुजार हूँ लाईफ लाइन अस्पताल इंदौर के पुरे स्टाफ का जिहोने इन बारह वर्षों की लड़ाई में हमारा साथ दिया, इंदौर के सभी पैथोलोजिकल प्रयोगशालाओं का जिन्होंने गाहे बगाहे हमारी म

‘नाकोहस’ by Purushottam Agrawal

सपने में वह गली थी, जहाँ बचपन बीता था। सड़क से शुरु हो कर गली, चंद कदम  चलने के बाद चौक पर पहुँचती थी, जहाँ मोहल्ले का घूरा था और जहाँ होली जला करती  थी। यहाँ से तीन दिशाओं की ओर सँकरी गलियाँ जाती थीं। सामने की ओर जाने वाली गली में आगे चल कर एक और चौक आता था, जहाँ मंदिर और मजार का वह संयुक्त संस्करण था, जिससे वह गली अपना नाम अर्जित करती थी। सुकेत ने देखा, उस गली से एक मगरमच्छ आ रहा है,  रेंगता हुआ, दुम इत्मीनान से मटकाता हुआ, गली की छाती पर मठलता हुआ, आता है घूरे वाले चौक तक। अरे, सुकेत पहली बार देखता है कि यहाँ एक हाथी लेटा हुआ है, मगरमच्छ हाथी की एक टाँग चबाना शुरु कर देता है,  हाथी छटपटाता है, लेकिन जैसे जमीन से चिपका दिया गया है, केवल चीख सकता है, अपनी जगह से हिल नहीं सकता। इसी बीच दूसरी गली से एक और मगरमच्छ आता है, हाथी की दूसरी टाँग पर शुरु हो जाता है। हाथी की दर्द और दुख से भरी चीखें जारी हैं, वह शायद वैकुंठवासी नारायण को ही पुकार रहा है, जैसे पुराण-कथा में पुकार रहा था, किंतु या तो चीखें वैकुंठ तक पहुँच नहीं रहीं, या नारायण को अब फुर्सत नहीं रही। जिंदगी हस्ब-मामूल चल

दृष्टिकोण का फ़र्क

दृष्टिकोण का फ़र्क बहुत समय पहले की बात है ,किसी गाँव में एक किसान रहता था . वह रोज़ भोर में उठकर दूर झरनों से स्वच्छ पानी लेने जाया करता था . इस काम के लिए वह अ पने साथ दो बड़े घड़े ले जाता था , जिन्हें वो डंडे में बाँध कर अपने कंधे पर दोनों ओर लटका लेता था . उनमे से एक घड़ा कहीं से फूटा हुआ था ,और दूसरा एक दम सही था . इस वजह से रोज़ घर पहुँचते -पहुचते किसान के पास डेढ़ घड़ा पानी ही बच पाता था .ऐसा दो सालों से चल रहा था . सही घड़े को इस बात का घमंड था कि वो पूरा का पूरा पानी घर पहुंचता है और उसके अन्दर कोई कमी नहीं है, वहीँ दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस बात से शर्मिंदा रहता था कि वो आधा पानी ही घर तक पंहुचा पाता है और किसान की मेहनत बेकार चली जाती है . फूटा घड़ा ये सब सोच कर बहुत परेशान रहने लगा और एक दिन उससे रहा नहीं गया , उसने किसान से कहा , “ मैं खुद पर शर्मिंदा हूँ और आपसे क्षमा मांगना चाहता हूँ?”  “क्यों ? “ , किसान ने पूछा , “ तुम किस बात से शर्मिंदा हो ?” “शायद आप नहीं जानते पर मैं एक जगह से फूटा हुआ हूँ , और पिछले दो सालों से मुझे जितना पानी घर पहुँचाना चाहिए था बस

लाल सलाम कामरेड

कामरेड को पूंजी से सख्त नफ़रत है और वो परिग्रह, पूंजी, जमीन जायदाद के भी खिलाफ है ..................... परन्तु कामरेड को दोस्त ऐसे चाहिए जिनके पास..... 1) कार हो जो कामरेड को घूमा फिरा दें 2) शराब की पार्टियां दे सकें 3) कॉफ़ी हाउस में नियमित ले जा सकें 4) गाहे-बगाहे उधार दे सके और कामरेड लेकर भूल जाएँ 5) हमेशा अपने खर्च पर घूमने फिरने ले जाए 6) दोस्तों की नौकरी ऐसी रुतबे वाली हो कि फटीचर कामरेड की चल निकले 7) कामरेड किसी भी दोस्त पर जूँ और पिस्सू की तरह से चिपककर शोषण कर सके 8) किसी खटमल सा खून पी सके अपने दोस्तों का 9) कामरेड की कविता पाठ कहानी पाठ का खर्च दोस्त उठायें 10) कामरेड की घटिया किताबों को दोस्त बेचें और खरीदें 11) कामरेड पूंजी को गाली दें शादी ब्याह को और समाज को गाली दें पर यही सब उसे महान बनाए और तोकते फिरे हर जगह कि तुम महान हो समर्पित कामरेड 12) कामरेड के बच्चों की फीस यही पूंजी वाले दोस्त भर दें 13) कामरेड की सिगरेट और दारु का खर्च अमीर दोस्त उठाये 14) कामरेड बीमार हो तो दोस्त तीमारदारी करें 15) कामरेड कही से मारकर कुछ भी लिख दें द

मित्र के साथ बगैर किसी स्वार्थ के लम्बी बातचीत - शुक्रिया रत्नदीप.

बड़े दिनों बाद एक शाम खुशनुमा हुई और खूब बातें की, देवास में शायद ही ऐसी कोई शाम बीती हो कभी . असल में अब दिक्कत यह हो गयी है कि कोई फोन करता है तो कहता है कि मिलना है तो काम के अलावा कुछ नहीं कहता - मसलन नौकरी लगवा दो, फलां सुनील भाई से आपकी दोस्ती है तो वहाँ नौकरी का जुगाड़ करवा दो, रिज्यूम भेज देता हूँ, एनजीओ के प्रोजेक्ट्स लिख दो या फंड दिलवा दो, भाई को कही लगवा दो, कुछ उधार मिल जाएगा क्या, वो एक अखबार के लिए कुछ लिखा था उसे ठीक कर दो, अनुवाद करवाना था, एक पार्टी दे दो दारु  की, कवितायें लिखी है छपवाना है किसी जगह छपवा दो, या कुछ और अजीब तरह के काम बताकर लोग, तथाकथित दोस्त लोग मिलना चाहते है. ग्लोबल होती दुनिया में छोटे कस्बों के लोगों के एक्सपोजर बड़े हो गए है जाहिर है उम्मीदें भी बड़ी और माशा अल्लाह ज्यादा ही बड़ी हो गयी है, और मै ठहरा छोटा आदमी और गैर संपर्कों वाला, ना सिफारिश करता हूँ, ना पसंद करता हूँ कि सिफारिश बन जाऊं. लोग दोस्ती रिश्तों को दुहना चाहते है और यदि आप उनके काम के नहीं तो दूध में से मख्खी की तरह से निकाल फेकेंगे और पीठ पीछे ना जाने क्या क्या बात करेंग

"शीशा" डा जय नारायण त्रिपाठी की कहानी

"शीशा" बहुत अच्छी कहानी है आदमी के लगातार एकल हो जाने की जो और कही नहीं पर शीशे में अपने लिए योग के मायने तलाश रहा है, और फिर धीरे धीरे तर्क और जीवन के विकल्प खोजता है........और सनकीपन में उसे लगता है कि अब कुछ नहीं शेष है.......बस इसी सबमे वह खोजता रहता है और एक दिन अचानक चुपचाप से समा जाता है उस वीरान शीशे में... डा जय नारायण त्रिपाठी आई आई टी मुम्बई से पी एच डी है, फेसबुक पर लगातार सक्रीय और लेखन पठन पाठन में बेहद रूचि. इन दिनों नोएडा में शोध और विकास में व्यस्त कम्पनी में वरिष्ठ शोधार्थी के रूप में कार्यरत है. बहुत प्रतिभाशाली और संवेदनशील जय एक युवा और समर्थवान कहानीकार बनने के लिए तत्पर है.  अशेष शुभकामनाएं. Jai Narayan Tripathi "शीशा" हर रोज़ की तरह आज भी उनका दरवाज़ा बंद था। मैंने खटखटाया तो बंद कमरे से ही हुँकार भर के आने का इशारा कर दिया। यह रोज़ का क्रम था। शाम के भोजन के बाद टहलने जाना हमारी दिनचर्या का अहम अंग हो चुका था। यह शुरु कब से हुआ इसके बारे में स्पष्टतः कह पाना मुश्किल था। हुआ यूँ था कि एक बार वे मुझे रायपुर रोड़

शुक्रवार और बिंदिया को श्रद्धांजलि

हिन्दी का खेमा इतना ज्यादा बंटा हुआ है कि इसमे कोई मरे या जिए, किसी को फर्क नहीं पड़ता. देश में अच्छी पत्रिकाएं लगातार बंद होती गयी. सारिका, गंगा, धर्मयुग से लेकर अब बिंदिया और शुक्रवार और कही कोई अफसोस, धरना और प्रदर्शन नहीं, ना ही कोई सांत्वना के दो शब्द .  इस बीच चतुर सुजानों ने धंधा बनाकर जरुर अपने अपने अखाड़े की पत्रिकाएं चलाकर/बनाकर चालू कर दी और विशुद्ध मुनाफा कमा रहे है जो कि गलत नहीं है. यह इस बात का भी संकेत  है कि अब पत्रिकाएं भोले भाले लोग, साहित्य और सरोकारी पत्रकारिता वाले लोग, मुद्दों की समझ रखने वाले लोग या विशुद्ध नौकरी करके बौद्धिक आतंक फैलाने वाले लोग नहीं चला सकते इसके लिये आपको नख दन्त विहीन लोगों से लेकर हर तरह के चालू पुर्जों तक को साधना होगा और पैतरेबाजी करते हुए भरपूर और भद्दे तरीके से मैदान में आना होगा कि आप विचारधारा, उत्तेजक, सनसनी और बाजारीकरण के बीच मार्केट की घटिया रणनीती को अपनाकर अपनी पत्रिका बेचेंगे एकदम नंगई से.  पहले कारण के अलावा अगर हम देखे तो पायेंगे कि दूसरा बड़ा मुद्दा है सामाजिक मीडिया ने इन पत्रिकाओं के असर पर प्रभाव डाला है नागरिक पत्रका

स्मृतियो के दंश और परिवेश से रची कहानियां : देवनाथ द्विवेदी का रचना संसार “और जीने का मोह”

पुस्तक चर्चा:- स्मृतियो के दंश और परिवेश से रची कहानियां देवनाथ द्विवेदी का रचना संसार “और जीने का मोह” “कहानियां हवा में नहीं बना करती, उनका पौधा किसी ठोस जमीन पर खडा होता है, कहानी की जड़े किसी सच से पोषण खींचती है, बाद में उसकी शाखों, पत्तियों, कलियों और फूलों के कल्पना के रंग भी शामिल हो सकते है..” देवनाथ द्विवेदी हिन्दी में वरिष्ठ कहानीकार है और पिछले तीन दशको से कहानी छंद कविता में सक्रीय है, इनकी कहानियां देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आ चुकी है और वे लगातार सक्रीय रहकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते है. कहानी, कविता, यात्रा वृतांत और स्मृति चित्र शैली में लेखन के लिए द्विवेदी जाने जाते है, एक अच्छे कहानीकार होने के नाते वे अपने परिवेश को बखूबी जानते है और यह सब वे अपने पात्रों और रचनाओं में बहुत बारीकी से दर्ज करते है. असल में जिस तरह की पीढी का प्रतिनिधित्व देवनाथ जी करते है वह पीढी अनुशासन मूल्यों, गाँव और देहात की बसाहट के मोह में अभी तक बंधी हुई है और यह कहानी में जब बातें उभरती है तो लगता है कि अपने परिवेश को, इस समय में जब ग्लोबल दुनिया ने लगभग तह

Blood Bank in Indore

एक दोस्त ने इंदौर में ब्लड काल सेंटर शुरू किया है . ये काल सेंटर Ashok Nayak  की कोशिशों का प्रतिफल है..खुदा ना करें मगर यदि आपको इंदौर में कभी खून की ज़रुरत पड़े या आप ब्लड डोनेट करना चाहे तो इन नम्बर्स पर संपर्क करें. 09200250000, 09827666866, 07316008090.

तारकोव्‍स्‍की की फिल्‍म- सुशोभित शक्तावत

मध्‍यकालीन रूस में क्‍लीश्‍मा नदी के किनारे व्‍लादीमीर नामक क़स्‍बे पर वर्ष 1408 के पतझड़ में जब तातार हमला बोल देते हैं और पूरी बसाहट का क़त्‍लेआम करने के साथ ही क़स्‍बे के कैथेड्रल को भी तहस-नहस कर देते हैं तो अंद्रोनिकोव मठ में देवताओं के चित्र बनाने वाला चित्रकार अंद्रेइ रूबल्‍योव इस सर्वनाश से विचलित होकर शपथ लेता है कि वह अब कोई चित्र नहीं बनाएगा और न ही एक शब्‍द भी बोलेगा। अंद्रेइ रूबल्‍योव का कहना था कि नृशंसता और ध्‍वंस से भरी इस दुनिया में उसके चित्रों की जब किसी को  ज़रूरत नहीं, तो फिर वह क्‍यों नाहक़ इसमें अपने प्राण खपाए? लेकिन पंद्रह वर्षों बाद जब व्‍लादीमीर के कैथेड्रल में ही एक अबोध किशोर के नेतृत्‍व में हफ़्तों तक कड़ा परिश्रम करने के बाद ग्रामीण कांसे के पवित्र घंटे का निर्माण कर उसे गिरजे पर स्‍थापित करने में सफल रहते हैं और जब प्रार्थना जैसे आवेग से भरी घंटाध्‍वनि क़स्‍बे की हवाओं में तैरने लगती है तो रूबल्‍योव अपनी शपथ तोड़ देता है। रूबल्‍योव अंतत: इस बात को समझ जाता है कि क्रूरता से भरी इस दुनिया में भी एक कलाकार को अपने हिस्‍से का गीत गान