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Showing posts from February, 2014

नई दिल्ली पुस्तक मेला 15-23 फरवरी 2014 - कुछ फूटकर नोट्स

और वापसी अपने घर को  जो पुस्तक मेले में मिल लिए उन सभी का शुक्रिया और जो नहीं मिल पायें ....  खुदा खैर करें .... वल्लाह!!! काशीनाथ सिंह के साथ  और   दिल्ली पुस्तक मेले को लेकर आख़िरी वाक्य  वहाँ   बड़े बड़े उच्च कोटि के घटिया लोग देखे जो सब करते है. ये आत्म मुग्ध लोग जो आत्मघाती है कहेंगे कि हम प्रचार प्रसार से दूर है पर इतने षडयंत्र रचते है कि साथ वाले दोस्तों को या परिजनों को पता नहीं चलता, अपनी ही प्रशंसा में मर जाते है, सब प्रायोजना का खेल है साहब, धीमे से यहाँ-वहाँ चिरोरी करके सब कुछ छपवा देते है. चाहे तरुणाई हो या बुढापा, ये अकथ कहानी का  ज़माना है और जो दिखता है वही बिकता है, की तर्ज पर रोज बाहें चढ़ाकर कुर्ता, झबला, सूट और टाई टांगकर अपने घटिया विचारों और चोरी का कॉपी पेस्ट मटेरियल को किताबनुमा बनाकर बेचने का हूनर रखते है.  अब   नए छोरे छपाटे रुदन करते रहे और आप पोतते रहे अपनी कालिमा पर दाग दाग उजाले या प्रगतिशील जेंडरिया घूमती रहे नाखूनों से होठों पर लाली लपेटकर, छुपाती रहे बुढापा, पर सच तो सच है भैया कि ये पब्लिक है सब जानती है! ये   दिल्ली है बाबू, जब इसने किसी को नह

कुछ घोड़े और कुछ खच्चर जो बनारस की ज़िंदा मछलियाँ खाते और मरी माँ से रूपया कमाते है

गधे को याद आ रहा था कि आखिर में घोड़ा निरुत्तर हो गया था जब गधा राजकाज छोड़ रहा था. घोड़े ने आख़िरी माह में सब छोड़ दिया था और अपना ध्यान कुछ लोमड़ियों और उल्लूओं पर लगाया था पर अंत में माया मिली ना राम के तर्ज पर घोड़ा हार गया. लोमड़ी ने भी अपना ध्यान गधे पर लगाया और दिल दे बैठी और घोड़ा मन मसोजकर रह गया.  अब   वो जंगल की राजधानी में चला गया और वही से एक गैंडे को सांप और नेवलों के बीच भेज दिया. बस एक सियार न हीं निकाल पा रहा था जंगल से क्योकि यही वह हथियार था उसका जो जंगल के सारे लूले लंगडों और मक्कारों को गांजा भांग देकर हांकता था. सुना था जंगल में कोई मूर्खाधिपति अपनी माँ की याद में जानवरों के एन जी ओ को रूपया देने की महती कोशिश कर रहा था. इन दिनों घोड़े को उस मालविका नामक नागिन की बहुत याद आती है जो एक और खच्चर से नैन मटक्का करती थी. खच्चर   के पास यूँ तो पहले एक और टट्टू हुआ करता था जो उसे सबके बीच लोकप्रिय बनाता था उसे महान बनाने के लिए उस बेचारे ने क्या नहीं किया असम के बांसों भरे जंगल से निकलकर आया और एक खच्चर को लगभग जंगल में सबके बीच उंचा बनाया फिर गंगा घाट से एक सांप आया

ड्यूटी पर शराब और कार्यवाही ना होना - सरकारी उदासीनता का नमूना

एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्रशिक्षण कार्यक्रम में मुझे बताया गया कि मप्र के अधिकाँश सरकारी अस्पतालों में जिसमे एमवाय, मेडिकल कॉलेज, जिला अस्पताल, सामुदायिक केंद्र, प्राथमिक केंद्र और सब सेंटर भी शामिल है, में कार्यरत कई पुरुष कर्मचारी जिसमे वार्ड बॉय से लेकर बीएमओ साहेबान और मेडिकल ऑफिसर्स तक ड्यूटी के दौरान शराब में धुत्त रहते है और इस दौरान वे गाली गलौज और महिला कर्मचारियों से छेड़छाड करते रहते है. जब महिला कर्मचारी शिकायत करती है तो बीएमओं या सीएमएचओ अक्सर इन महिला कर्मचारियो ं को यह कहकर समझा देते है कि आपको क्या करना है, मै उसे समझा दूंगा, और फ़ालतू की नौटंकी क्यों कर रही हो, आदि- आदि. फलसवरूप कई बार ये ही कर्मचारी महिला मरीजों, उनके साथ आई बच्चियों या महिला स्वास्थ्य कर्मचारियों के साथ दुष्कर्म करते है.  एक महिला   डाक्टर ने बताया कि कैसे उसने एक कर्मचारी को सुधारा और अब वो उसे माताजी कहता है, वो कर्मचारी अक्सर उनके कमरे के बाहर से निकलते हुए उन्हें घूरता था, फिर अपने मोबाईल में अक्सर ऐसे गाने बजाता था जैसे उन्हें प्रपोज कर रहा हो, अक्सर उनके कपड़ों पर भद्दे कमेन्ट करता था, या हाथ

सत्यनारायण पटेल का नया कहानी संग्रह 'काफिर बिजूका उर्फ इब्लीस'

अनुज   सत्यनारायण का नया कहानी संग्रह इस पुस्तक मेले में आ रहा है आधार प्रकाशन से. इसकी भूमिका रोहिणी जी ने लिखी है. सत्यनारायण हमारे समय के ना मात्र कहानीकार वरन एक दृष्टा भी है जो गिद्ध की भाँती आनेवाले समय की पहचान करके हमें आगाह करते है औ र फिर अपने आसपास होनेवाली घटनाओं को आपस में जोड़कर एक तिलिस्म रचते है, यह कहानी संग्रह ऐसी ही कुछ कहानियों का दस्तावेज है जहां वे एक बार फिर से एक नए लोक , प्रतीक और बिम्बों के साथ उपस्थित है, वास्तव में यह नई सदी के शुरू होते दुखद प्रसंगों का जीवंत दस्तावेज भी है जो हमें अंत में एक राह भी दिखाता है और अपने आप को पुरी ईमानदारी से अपने अन्दर झांकने को भी मजबूर करता है. बहरहाल आप देखिये रोहिणी अग्रवाल क्या कहती है इस नए कथा संग्रह के बारे में.  " लोक  -स्मृति में रचे-बसे किस्से आज के उत्तारआधुनिक परिदृश्य में हवा हो गए हैं, जैसे इंसान को परिभाषित करने वाले मूल्य और संवेदनाएं। अपनी ही बेख्याली में खोई नई पीढ़ी नहीं जानती कि सांस्कृतिक चेतना की संवाहक लोक-कथाएं काल की सरहदों से मुक्त कर व्यक्ति के भीतर जीवन का स्पंदन, राग और लय भरती हैं। जानत

Jansatta 07 Feb 2014

जनसत्ता 7/2/2014

उम्मीद की सटीक और सार्थक समीक्षा

सटीक और सार्थक समीक्षा साधुवाद भाई  Mahesh Punetha   युवा साहित्यकार जितेंद्र श्रीवास्तव के संपादन में निकला ‘उम्मीद’ का प्रवेशांक एक नई उम्मीद लेकर आया है। सामग्री की विविधता इसे पत्रिकाओं की भीड़ में एक अलग पहचान देती है। जैसा कि अपने संपादकीय में जितेन्द्र लिखते हैं कि उनकी आकांक्षा थी एक ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो रचना ,आलोचना और शोध का मुकम्मल त्रैमासिक हो ,निश्चित रूप से यह अंक उनकी इस आकांक्षा  का प्रतिबिंब है। उनकी कोशिश है कि सतही बहस में न पड़कर हिंदी के साहित्यिक और वैचारिक परिसर को विस्तार दिया जाय , इस अंक को देखकर कहा जा सकता है कि वह इस दिशा मंे एक सही शुरूआत करने में सफल रहे हैं। पत्रिका में शताब्दी,उम्मीद विशेष, आलेख,पाठ-विश्लेषण,शोध और समीक्षा जैसे स्तम्भों के साथ-साथ कहानी ,कविता ,उपन्यास अंश आदि विधाओं का समावेश किया गया है।  आगामी अंकों में स्त्री,दलित व आदिवासी विमर्श पर विशेष सामग्री देने की योजना है। 172 पृष्ठों वाली इस पत्रिका की एक और विशेषता है कि रचना हो या आलोचना उसमें युवा स्वरों को विशेष स्थान दिया गया है। कविता में जहाँ मनोज कुमार झा ,अशोक कुमार पाण