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Showing posts from March, 2015

"निठल्ला "

"निठल्ला " ******** यकीन नहीं होता कि सब बदल जाता है  जैसे कोई मानेगा कि अभी दस दिन पहले पानी बरसा था ! और अब ये प्रचंड वेग से आती रश्मि किरणें  जैसे कभी मिले थे पहाड़ी पर ओंस जैसे अब दरक रहे है पत्थर और लोहे की जालियों से बंधे  पर नहीं रुक रहा इनका पात ! ये कैसा प्रचलन है और कैसा समय सब कुछ बदला सा और फिर लगता ठहरा हुआ सा सन्न हूँ , आक्षेपित और अधूरा सा अपने अंदर महसूसता हूँ एक निर्वात और खोज लाता हूँ तुम्हारी याद जो अब संबल नही विक्षोभ भर देती है, कलुषित कर देती है और मैं इसे प्रेम की संज्ञा दे इठला जाता हूँ अपने होने और खत्म हो रहे समय के द्वन्दों में कहता हूँ कि प्रेम में पगा आदमी रत्तीभर भी काम का नही।

सुनो ज्ञानरंजन

"सुनो ज्ञानरंजन " ****************** सुनो ज्ञानरंजन आतंकित है  पूरा हिन्दी का संसार तुम्हारी आक्रामकता से  और दबी है हिन्दी की कहानी तुम्हारी कहानियों से  जाता हूँ किसी भी जलसे में साहित्य या कि  आन्दोलन के कामरेडों या कार्यकर्ताओं के बीच तो  निकल ही आता है प्रसंग तुम्हारा या पहल का देवास के मानकुण्ड गाँव में प्रकाशकांत से सुना था  पहली बार तुम्हारा नाम सन सत्तासी में और देखी थी पहल  फिर इंदौर में विनीत तिवारी से बात की तुम्हारे बारे मे  छपे हुए लोगों को भी अकड़ते देखा है कि  हम पहल में छपे है मानो एक विभाजन रेखा हो  ना छपने वालों और पहल में छपने वालों के बीच  फिर सुना कि तुम्हारी दो चार पांच लिखी कहानियां ही  अमर हो गयी हिन्दी के मुक्ताकाश में  बांची गयी हर जगह, और अनुदित हुई कई कई भाषाओं में  उदाहरण सुनकर मै हैरत में हूँ कि एक जबलपुर का आदमी जो  आधारताल के किसी राम नगर में रहता है और  दुनिया भर में जिसके किस्से सुनाई देते है, कैसे घूमता होगा यह आदमी और फिर इस पर भी  पहल छापने का मुकम्मल काम ? पहल सम्मान और वो भी लेखक के शहर में जाकर  उसके

जहां पेड़ है वहाँ घर है

अगर आप मेरे घर का पता पूछे  तो मै आपको पूरा पता बताउंगा  और यह भी कहूंगा कि घर के बाहर  एक पेड़ है बड़ा गुलमोहर का पेड़  यह पेड़ नहीं मेरा सहयात्री है  सन उनअस्सी में जब इस घर आये तो कही से एक पौधा रोप दिया था  और देखते देखते बड़ा हो गया बन गया पेड़  मैंने इसको नहीं, इसने मुझे  बड़ा होते देखा और सराहा  कई मौकों पर यह मेरा साथी बना  अपनी जवानी में जब उठा मेरे जीवन से  पिता का साया तो इसे पकड़ कर  रोया और ढाढस बंधाया माँ को  फिर भाई की शादी में इस पर की रोशनी और लगाया टेंट को टेका  इसी से हरापन बचा रहा घर में मेरे  ठण्ड, गर्मी और बरसात में इसी के  पत्तों से आती रही छाया और बहार  इस बीच हर बार छांटता रहा  डगालियाँ इसकी कि कही बेढब  या दूसरों की जद में ना बढ़ जाए  और बीनता रहा पत्तों के ढेर अक्सर  कि जीवन फिर आता है पत्तों सा बार बार  माँ को अस्पताल जाते समय विदाई दी इसने कि जल्दी लौट आना गृह स्वामिनी  पर जब लौटें लाश लेकर तो एक  पंछी भी नहीं बैठा था और सारे पत्ते सन्न थे  चुपचाप झर गया माह अगस्त में यह पूरा  फिर इसने एक न

महिला हिंसा से लड़ने में राह दिखाई माझी बस्ती, जबलपुर की महिलाओं ने

आपको याद है पाश की कविता "कैथरकला की औरतें" जिसमे औरतें भिड जाती है पुलिस वाले से या नसीरुद्दीन शाह की राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म "मिर्च मसाला" जिसमे औरतें अंत में दरोगा पर इकठ्ठा होकर लाल मिर्च का पाउडर फेंक देती है क्योकि वह उनमे से एक पर गलत निगाह रख रहा था. हालात वास्तविक जीवन और फिल्मों कहानियों से अलग नहीं है चाहे आप एक सरसरी तौर पर निगाह अपने आसपास घूमा लें या किसी किशोरी, युवा लड़की या महिला से छेड़छाड़ की स्थिति पूछ लें. जिस समाज में महिलाओं को बराबरी का हक़ नहीं सम्मान नहीं वहाँ गैर बराबरी से उपजे व्यवहार में महिलाओं के साथ छेड़छाड़, हिंसा, बलात्कार, दहेज़ ह्त्या और जघन्य अपराध होना बहुत सामान्य है. परन्तु अब चेतना और जागरूकता से जहां ऐसे मुद्दे सामने आ रहे है, सरकार ने निर्भया काण्ड के बाद क़ानून में बदलाव किये है वही महिलाओं ने भी अपने स्तर पर खुद आगे बढ़कर हिंसा और छेड़छाड़ के खिलाफ एक मुहीम शुरू की है.  मध्यप्रदेश का नाम लेते ही कुपोषण, महिला अत्याचार का नाम सामने आता है क्योकि इन दो मुद्दों के लिए यह प्रदेश देश भर में जाना जाता है परन्तु म

ठिगना आदमी

"ठिगना आदमी" ***************** इतिहास सिखाता है  एक ठिगना आदमी  बहुत खतरनाक होता है नेपोलियन से लेकर तमाम तरह  लोगों से किताबें भरी पडी है  मैंने भी कई बार ठिगने लोगों को ठगते हुए देखा और विचलित हुआ मसलन वह आदमी जो मुझे  एक पालिसी थमाकर चला गया  मै जीवन भर प्रीमियम और वह  कमीशन खाता रहा  एक आदमी जो मेरे जूते चोरी कर गया  रेल में ठीक मेरी बर्थ के नीचे से  और उतर गया किसी स्टेशन पर  और नंगे पाँव लेकर मै लौटा घर बाजार  में नजरें छुपाता अपने ही लोगों में  एक आदमी जो बरगलाता रहा उम्र भर  और मै झांसे में जीवन को किसी  प्रयोग की तरह चलाता रहा अंत में  हार गया और इस तरह ख़त्म हुआ मै  कि आईना देखने की हिम्मत नहीं रही   एक आदमी जो जीवन भर  मेरे वोट से देश चलाने की बात करके अपने वजूद को पुख्ता करता रहा और  देश को इतना खोखला कि अब इसे  देश कहने में भी शर्म आती है  एक ठिगना आदमी आदमी नहीं  बौनी सोच का बौना व्यक्तित्व होता है अपने को किसी ऊँचे आदमी के बरक्स  वह ठिगनी दूरी से बौना बना देता है  दुनिया को और फिर लूट लेता है कभी बैठा था एक ठिगने आदमी क

जीवन यूँही बीतता है

अचानक कौंध जाती है कई गलियां , सड़कें और ऊंघती अनमनी सी टेढी मेढी पगडंडियां जिनसे गुजरकर आज यहां पहुँच गया जहां से कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा.. पुकारता हूँ उन पथरीले रास्तों को और उन खम्बों पर टिक जाती है नजरें - जिन पर रात में जलने वाले लट्टू नहीं थे और सर्द हवाओं ने जिनके खोखलेपन को सर्द कर दिया था किसी लाश के मानिंद. देखता हूँ , बिचारता हूँ , और लगता कह दूं कि तुम्हारा होना और ना होना अब बेमानी लगता है , बस इतनी हिम्मत बची नहीं कि उन गुफाओं में एक बार लौटकर सिर्फ छू भर आऊँ कि   मैं और तुम ठहरे थे एक पल , साझा की थी साँसे और फिर चल दिए थे अलहदा होकर ! तुम्हारे लिए ....सुन रहे हो ना ... कहाँ हो तुम ....... उसी रात उनीदी आँखो से उन्हीं पगडंडियों पर चला तो था, पर रात का वक़्त इतनी तेज़ी से भाग रहा था, की पगडंडियाँ जैसे पीछे छूटी जा रहीं थी, उस वक़्त के साथ जो वैसे भी ठहरता कहाँ है।  सुनो मैं वहीं हूँ, वहीं कहीं हूँ। बस वक़्त तेज़ी से भाग रहा है, और मैं पीछे छूटता जा रहा हूँ। पर देख पा रहा हूँ, तुम्हें दूर से आ रही रोशनी की तरह। थका हूँ, पर हारा नहीं।  ज़िंदगी जब तक है, मैं

एक राज्य को टारगेट करके शिक्षा व्यवस्था पर सवाल मत उठाईये

सिर्फ बिहार को टार्गेट करके नक़ल हल्ला मत मचायिये, मप्र , उप्र, राजस्थान और यहाँ तक कि महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के भी कुछ हिस्सों में नक़ल बाकायदा एक सेवा की तरह से होती है. एक प्रांत विशेष को टार्गेट करके इस तरह से वहाँ की मेधा को और प्रतिभा को बदनाम करना बेहद अपमानजनक है और शर्मिन्दगी भरा कृत्य है. जवा ब्लाक,  रीवा में मप्र विधानसभा के पूर्व स्पीकर श्रीनिवास तिवारी के कई निजी स्कूलों  में और महाविद्यालयों में नक़ल ठेके पर होती थी, और रीवा - सतना इसलिए बदनाम थे. विक्रम विवि उज्जैन के छात्रों को तो किसी प्रतियोगी परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं थी, और लिखा जाता था विज्ञापन में कि विक्रम विवि उज्जैन के छात्र आवेदन ना करें, क्योकि यह समझ थी कि यहाँ सब नक़ल से पास होते है बाद में तत्कालीन कुलपति डा शिव मंगल सिंह सुमन ने एक याचिका लगाकर इस तरह के विज्ञापनों पर रोक लगवाई. इस तरह की घटनाएँ मीडिया को मालूम नहीं है या जानबूझकर हकीकत से मुंह मोड़ना चाहते है?  इससे बेहतर है कि आप पुरी शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्न कीजिये पूछिए NCERT, CIET, NIEPA, SCERTS, SIET, PGBT Colleges में और द

बारिश में भीगना यूँ है मानो.........

ये बारिश में भीगना यूँ है मानो एक रक्तिम घटाटोप बरसात के साये से जूझता और मिट्टी के बोझ से दबे पांवों को लपेटता घिसटता और हांफती साँसों के बीच में मीलों मील चलते चले जा रहा हूँ, पीठ पर सदियों की सताई और कुंठित आत्माओं की तड़फ और बोझ लिए। ये यूँ गुजरना ऐसा है मानो एक लंबी ठहरी नदी में मैं बह रहा हूँ - रक्त रंजीत सा और पानी ठहर गया है- झील की सतह पर जमी एक बेहद अशांत और गर्म बर्फ सा। ये कैसा समाँ है , ये कैसा जूनून है , और इसका अंत क्या एक लंबे क्रंदन में होगा - यह पूछते हुए कि कहाँ हो तुम, सुन रहे हो ना.... यह तुम्हारे लिए है !!!

ये जो हरापन है ना .........!!!

ये जो पी रहा हूँ इस समय ना चाय भी है और तुम्हे सघनता से याद करते हुए उन कोमल तंतुओं के बीच वे एहसास भी है जो भाप के साथ उड़ते उड़ते ठन्डे हो गए ....अब कोई कही भी उष्णता बाकी नहीं है , एक हरापन है जिसे तुमने लगा दिया था यहां इस मिट्टी के गमले में, जो फ़ैल रहा है और बीच बीच में पीले जर्द होकर पत्ते सूख जाते है , बिखर जाते है और फिर मुक्ति पा जाते है अपनी डार से हमेशा के लिए... अब शायद इस पीलेपन से मुझे प्यार हो गया है , रेशा रेशा जर्द हो रहा हूँ और अपनी सूखी हुई डार भी देख रहा हूँ इन्तजार है एक तेज और उद्दाम वेग से चलने वाले झोंके का कि चले और सब कुछ बह जाए.. जैसे पाख उड़े तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला, ना जाने फिर किधर गिरेगा.... ये एहसास है ...सुन रहे हो ....कहाँ हो तुम..... सब तुम्हारे लिए

रेलवे में सामंतवाद - सन्दर्भ जी एम इंस्पेक्शन, जबलपुर , दिनांक 19 मार्च 2015

जबलपुर स्टेशन पर हूँ प्लेटफॉर्म 6 पर एक अधिकारी स्पेशल खड़ी है जिसमे जी एम , डी आर एम और वरिष्ठ अधिकारी इटारसी जा रहे है आते समय ये हर स्टेशन का निरीक्षण करेंगे। अदभुत ट्रेन , बाहर से सामान्य पर भीतर से किसी फाइव स्टार से कम नहीं ! हर अधिकारी के लिए एक डिब्बा, चपरासी, सोफ़ा, बिस्तर, गैस का चूल्हा और खाने पीने की तमाम व्यवस्थाएं! मतलब गजब। मैंने पहली बार इतने कम सफ़ेद हाथियों के लिए ऐसी सुविधायें और एक के लिए एक पुरा डिब्बा जैसी सुविधा वाली ट्रेन देखी। हर डिब्बे में सेवा सुर क्षा के लिए चार से पांच वर्दीधारी चपरासी और चार खाकी में तैनात जवान इन हाथियों के लिए। कौन कहता है की हम लोकतंत्र में रह रहे है , अधिकारी लोक सेवक है और आम आदमी के लिए काम करते है। साला सब मुगालते दूर हो गए । टैक्स मेरे पसीने का और ऐयाशी ये करें - वो भी ऐसी ट्रेनों में ? यार भाई बताओ ये माजरा क्या है। स्टेशन पर यात्रियों से ज्यादा पुलिस वाले, खोजी कुत्ते और सफाई वाले है, मने कि बोले तो हम आज भी ठिठुरते गणतंत्र के आख़िरी पायदान पर खड़े और शोषित होते दो कौड़ी के नागरिक (?) है इस महादेश के !!!! भ

कब तक रहेगी देश में आरक्षण की बैसाखी और दलितों को पिछड़ा रखने की साजिश ?

मै सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि सदियों से जारी जाति प्रथा को ख़त्म किये बिना और समतामूलक समाज बनाए बिना अब कुछ नहीं होगा. हजार सालों में किसके साथ क्या हुआ और किसने किया इसके लिए आप आज की पीढी को दोषी नहीं मान सकते और सजा नहीं दे सकते, आज सब सामान है और जिनके साथ भेदभाव हो रहा है या किया जा रहा है चाहे वो दूर दराज के गाँवों के दलित हो या सुकमा के आदिवासी या अत्यंत पिछड़े दलित उसके लिए अधिकांशतः उनके ही नेतृत्व जिम्मेदार है, हमने ऐसे निकम्मे नालायकों को अपना नेता चुना है और संसद में  भेजा है जो सिर्फ इस दुर्भाग्य को और यथास्थितिवाद के बनाए रखना चाहते है इसलिए मै इस बात का कोई अब समर्थन नहीं करता कि मैंने या मेरे पुरखों ने किसी को हजार साल सताया है इसलिए अब इन्हें सत्तर साल तक बैसाखी देने का सिलसिला पीढी दर पीढी बनाए रखा जाए और एक मनुष्य को प्राकृतिक न्याय से महरूम रखा जाए. और फिर नौकरी, प्रमोशन, प्रवेश जैसे मसलों पर आरक्षण बिलकुल नहीं होना चाहिए. एक बार जाकर देखिये अयोग्य लोगों के सत्तर साल में तंत्र में होने से (और इसमे सब शामिल है यानी सभी जाति समुदाय) दश का कितना नुकसान

अमन पन्त कृत कबीर का भजन "उड़ जाएगा हंस अकेला"........एक नए अंदाज में

बहुत ही खूबसूरत कम्पोजीशन है और अदभुत गीत है, कुमार जी ने जो गाया है और अब्र कबीर को लेकर जो प्रयोग कबीर केफे और नए युवा कर रहे है पाश्चात्य संगीत और उपकरणों के साथ वह भी स्तुत्य है. मेरा गंभीरता से मानना है कि अब नए प्रयोग और नई शैली की गायकी भी आना चाहिए जो परपरागत से हटकर हो और कुछ नया रचना धर्म दिखाती हो वरना तो कुमार जी, भीमसेन जोशी, जसराज, और गंगू बाई हंगल की बंदिशें गा गाकर लोगों ने घराने बना दिए है. खासकरके कबीर जैसे प्रयोगधर्मी और क्रांतिकारी कवि और सिर्फ कबीर ही नह ीं दादू, मीरा, जायसी, रसखान और तमाम सूफी संतों के भजनों को अब नए सन्दर्भों में परखकर, बुनकर और संजोकर लयबद्ध किया जाना चाहिए. एक पुरी पीढी बड़े गुलाम अली खां, अमीर खां, रज्जब अली खां, गंगू बाई, कुमार जी, भीमसेन जोशी, आबिदा, जसराज जी, वसंत देशपांडे, मालिनी राजुरकर आदि को सुनते हुए बड़ी हुई और ख़त्म भी हो गयी. अब समय है कि नए युवा जो संगीत की दीवानगी में पागल होकर अपना सब कुछ छोड़कर जी जान से जुटे है, ना इन्हें नाम की चिंता है, ना यश और कीर्ति की पताकाएं फहराना चाहते है और ना ही चल अचल संपत्ति का मोह है -

"सुरक्षित शहर - एक पहल" महिला हिंसा से निपटने का मध्य प्रदेश में एक कारगर अचूक प्रयास

                                                                       (गोरु वास्कले)  ये है गोरु वास्कले, जो मप्र के खरगोन जिले के ग्राम मुल्तान हीरापुर की  रहने वाली है, गोरु आदिवासी समुदाय से आती है जहां लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाना अपने आप में एक चुनौती है परन्तु गोरु ने बड़े साहस से अपनी बुनियादी पढाई गाँव से करके संघर्ष करके इंदौर आ गयी. एक बड़े शहर में एक बड़े सपने के साथ और समाज के लिए, लड़कियों के लिए महिलाओं के लिए कुछ सार्थक करने,  इंदौर के राष्ट्रीय कस्तूरबा ग्रामीण विकास और कल्याण संस्थान द्वारा संचालित महाविद्यालय में रही और और पढाई में ध्यान लगाया. यहाँ से गोरु ने ग्रामीण विकास में सफलता पूर्वक एम ए पूर्ण किया और फिर इंदौर शहर में एक एनजीओ के संपर्क में आई तो इन्हें लगा कि यह काम सार्थक भी है और मजेदार भी, शैक्षणिक रूप से यह काम बहुत महत्वपूर्ण था इसलिए उन्होने इस प्रोजेक्ट को ज्वाईन कर लिया. और सिर्फ गोरु ही नहीं दर्जनों से ऐसे कार्यकर्ता है और युवा लोग है जो मप्र के इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर और भोपाल में जुड़कर गहराई से काम कर रहे है और इस काम में उन्हें ना मात्र मजा आ

पेपर वेट - अरुण देव

|| पेपर वेट || उसका वजन  कागजों को इधर उधर बिखरने से रोकता है अपने भार से  वह कागजों को कुचलता नहीं कभी भी ताकत की यह भी एक नैतिकता है।   अरुण देव

भूमि अधिग्रणण क़ानून और सामंद्वादी जमीनें........

भारत के लोगों के लिए कल का काला दिन ऐतिहासिक है, जब लोकसभा ने सभी 9 बिलों को हडबडी में बिना सोचे समझे पास कर दिया जिसमे भूमि अधिग्रहण महत्वपूर्ण बिल है. सच में विकास के मायने में यह बिल पास होना अतिआवश्यक था. मोदी जी और इनकी देशभक्ति को सलाम करने का जी चाहता है जो किसानों और आम आदमी, दलित और आदिवासियों के हमदर्द बनकर उभरे बहुमत से सता में आये और एक झटके में ऐसा बिल बनाया पास किया कि सबकी गरीबी एक झटके में जादू से दूर हो जायेगी. अब मेरी मांग है कि:- 1. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और केबिनेट मंत्रियों, विधायको और तमाम संवैधानिक पदों पर बैठे लगों के कार्यालय, निजी बंगले, और सरकारी क्वार्टर्स पर भी अधिग्रहण किया जाए जो बीच शहरों में पसरे पड़े है और फ़ालतू की जमीन हथियाए हुए है. 2. सभी राज्यों में प्रशासनिक अधिकारियों के बंगले, क्वार्टर्स , और ऐसे जमीनों पर अधिग्रहण किया जाए जो किसी काम की नहीं है और सिर्फ एक व्यक्ति या परिवार के काम आती है. 3. जिला कलेक्टर्स, एस पी, एस डी एम, तहसीलदारों और तमाम बाबूओं के घरों पर अधिग्रहण किया जाए जो सरकारी लम्बे चौड़े बंगलों में रहत

India's Daughter - A Must See Movie

 निशुल्क दिखाए इंडियाज डाटर  "इंडियाज डाटर" एक बार देख लो फिर अपने घर की ओर देखना और उसके बाद कोई कमेन्ट करेंगे तो बेहतर होगा. यह फिल्म नहीं, हमारे समाज और विकास की कहानी है, वकील, न्यायाधीश, पुलिस, अस्पताल, समाज के ठेकदार, दलाल और गरीबी के दुश्चक्र में फंसे लोगों का जीवंत दस्तावेज. मेरा चैलेन्ज है कि हिन्दुस्तान में किसी माई के लाल में ना वो संवेदना है ना समझ कि एक केस के माध्यम से समूचे भारतीयत्व को नंगा करके कहे कि "राजा नंगा है" और इतनी दमदार असरदायक फिल्म बना लें. भारतीयता, जनमानस और पुरुष प्रधान स माज को कितनी बारीकी से पकड़ कर व्याखित किया है. यह फिल्म समाजसेवियों महिलावादियों और एनजीओ कर्मियों की भी पड़ताल करती है और दिखाती है कि कैसे हम रिएक्ट करते है, कैसे पैरवी और कैसे मेनुपुलेट करते है. जो साथी क्या इंटरकोर्स दिखाए जन मानस को, जैसे भोले प्रश्न करके समाज की हलचल को समझने का प्रयास नहीं कर रहे और भला बुरा कह रहे है उन्हें यह समझना होगा कि समय अब बदल रहा है और सूचना तकनीक के युग में सब कुछ उजला उजला नहीं है. हमारे बच्चे हमसे ज्यादा हमारे स