ये जो पी रहा हूँ इस समय ना चाय भी है और तुम्हे सघनता से याद करते हुए उन कोमल तंतुओं के बीच वे एहसास भी है जो भाप के साथ उड़ते उड़ते ठन्डे हो गए ....अब कोई कही भी उष्णता बाकी नहीं है , एक हरापन है जिसे तुमने लगा दिया था यहां इस मिट्टी के गमले में, जो फ़ैल रहा है और बीच बीच में पीले जर्द होकर पत्ते सूख जाते है , बिखर जाते है और फिर मुक्ति पा जाते है अपनी डार से हमेशा के लिए...
अब शायद इस पीलेपन से मुझे प्यार हो गया है , रेशा रेशा जर्द हो रहा हूँ और अपनी सूखी हुई डार भी देख रहा हूँ इन्तजार है एक तेज और उद्दाम वेग से चलने वाले झोंके का कि चले और सब कुछ बह जाए.. जैसे पाख उड़े तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला, ना जाने फिर किधर गिरेगा....
ये एहसास है ...सुन रहे हो ....कहाँ हो तुम..... सब तुम्हारे लिए
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