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Showing posts from May, 2011

फेसबुक मेनिया

दोनों ने तय किया था कि मिलेंगे फिर दोनों ने यही मेसेज किये सब कुछ तय हो गया था खाने का मेनू भी पर इसकी फंटी ने स्टेटस पढकर बहुत गुस्सा किया फिर इसने दोस्त को फोन किया कि यार अर्जेंट मीटिंग है और बोस साला हरामखोर मान नहीं रहा कभी और मिलते है बस अब ये लग गया फंती को मनाने में और रात को जब अपनी फंटी को लेकर वहाँ मिला तो वही दोस्त भी मौजूद था अब क्या जवाब दे?(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

लंबे समय से वो दोस्त थे प्यार हो गया एक दिन उसने उसका मोबईल लेकर उसके मेसेज पढ़ लिए फिर क्या था वो पागल हो गया जानवर बन गया और खूब लड़ा और फिर उसकी फेसबुक भी पढ़ डाली बस प्यार दोस्ती खत्म, वो शहर छोड़ गया और ये अब पुराने आशिको को देख रहे है जो कुछ दे सके मदद या कुछ और भी वो वहाँ रोज लडकी बदलता है जैसे कोइ बस बदलता है क्या फर्क पडता है लडकी या बस(फेसबुक मेनिया)

एनजीओ पुराण ९५

एक समय में उसने उसकी आँखों में आंसू देखे थी और आज वो सबके आंसू निकालता है फर्क इतना है कि अब ये एक नयी उभरती हुई दूकान का मालिक है जमीन जायदाद और अनुदान की जुगाड में ३/४ समय निकल जाता है बाकी बड़े लोगो के साथ मीडिया के साथ चायपानी में निकल जाता है उसकी चिंता देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की है देश के जल जंगल जमीन की याद में उसकी चिंता बड़ी जायज है क्योकि अगर जमीन सरकार ने जप्त कर ली तो उसकी कब्जे वाले जमीन का क्या होगा(एनजीओ पुराण ९५)

एनजीओ पुराण ९४

कबीर को बेचकर वो एक बड़ा मठाधीश हो गया एक छोटा सा मास्टर दूकान वालो के सौजन्य से दुनिया घूम आया और फिर वो एक बड़ा साधू बन गया सरकार से गहरे सम्बन्ध और मुफ्त की जमीन , बड़ी महफ़िलें, नौकरी में फ़ोकट का वेतन और फिर नाम कीर्ती की पताकाएं बस एक दिन देश का सर्वोच्च पुरस्कार तो मिलना तय ही था, बस दूकान वाले साहब को उसने जीता जगता कबीर घोषित कर दिया था "हिरणा समझ बूझ वन चरना"(एनजीओ पुराण ९४)

एनजीओ पुराण ९३

एक छोटे कस्बे से होने और न्यूनतम पढाई करने का अपराध बोध उसे हमेशा सालता रहता था क्योकि इस दूकान पर सब अंगरेजी में ही सांस लेते थे या देशी भाषा में कहू तो खाते पीते थे, पर उसने एक लंबा समय दूकान पर दिया था पर उसकी तूती कभी बोली नहीं अब जबकि वो उम्र के ढलान पर है तो सोचता है कि उसकी ही जिंदगी बेहतर थी फ़ोकट में ही वो तुलना करता रहा और अब नए सिरे से नया करने की हिम्मत ही नहीं बची है खत्म सब खत्म(एनजीओ पुराण ९३)

एनजीओ पुराण ९२

उसे कल फिर देखा उसके चेहरे पर वही दर्प, वही अहम, वही तेवर और वही तानाशाही का रवैया, एक बड़े प्रशासनिक अधिकारी की बेटी होने और दिल्ली से पढ़े लिखे होने के गुमान उसे विरासत में मिला था, समाज सेवा के बहाने वो खूब काम तो करती पर कंसल्टेंसी भी कमाती थी दूकान पर उसके आतंक के सामने कोइ बोलता नहीं था हाँ उसकी अदाओं पर सब मोहित थे, और वो इसी पर ज़िंदा थी एक भ्रम में कि उसके जैसा कोइ नहीं (एनजीओ पुराण ९२)

मन की गांठे

हालांकि वो जा जरूर रहा था इस संसार से हमेशा के लिए पर उसका दिल भरा नहीं था इस मोह माया से, क्या क्या नहीं मिला उसे इस संसार से नाम शोहरत, रूपया पैसा, बड़े बड़े लोगो से सम्बन्धों का जाल और ढेर सारे दोस्त, असल में उसे तो तृप्त हो जाना था अभी तक पर मन है कि भरता ही नहीं, बस कुछ दोस्तों के चेहरे बदल जाने और पैतरें बदल जाने का अफ़सोस था और उसका भी जो उम्रभर ट्रेक्टर बेचता रहा और यहाँ आ फंसा था(मन की गांठे)

मन की गांठे

अँधेरे में जब एक पर्दा चमकता है तो सारे अक्षर मानो टिमटिमा उठते है लगता है जीवन में बस अब प्रकाश पर्दा फाड़कर निकलेगा और अँधेरे से मुक्त होकर हम एक उजास में आ जायेंगे और फिर लहलहा उठेगी जीवन की फसल और बिखरना पडेगा जीवन की खुशियो को और आठो दिशाओं में संगीत के अनहद नाद सुनाई देंगे और बस मुस्कुराहट लौट आयेगी हर अभिसार पर और दर्प से निखरेंगे चेहरे अक्षर नाचेंगे और अँधेरे का साम्राज्य लौटेगा घटाटोप में(मन की गांठे)

मन की गांठे

पानी की बुँदे सूख रही है धीरे धीरे, सूरज की आग में जलकर पानी की नवजात बुँदे खत्म हो रही है बस बच रहा है एक एहसास पानी और पानी की बुँदे होने का और भाप भी अब नजर नहीं आती इतनी आग है यहाँ, सब खत्म हो गया जैसे जीवन से प्रेम, वात्सल्य, नेह, भावनाएं, संवेदनाएं और सब बचाने के निहितार्थ में जीवन पानी की बूंदों समान हो गया है उड़ते जा रहा है पर कही भी दृष्टिगोचर नहीं होता बस यही कही छूट गया था मानो और हम ढूंढते है उसे(मन की गांठे)

(मन की गांठे)

एक सूखी पत्ती नहीं जानती कि अब उसका और क्या होना बाकी है, शाख से उजडने के बाद तो वो बस हवा में उडती एक उद्दाम वेग से उड़ी जा रही है नहीं मालूम कि अब आगे क्या होगा बस इस उद्दाम वेग में कड़ी धूप, ठूंठ, लंबी सूनी सडके, उजाड सा अतीत और अनिश्चित भविष्य पर एक जिद में यह अपने होने को भी नकार कर अब एक नए स्वरुप में आना चाहती है पर समय का पहिया नहीं रुक रहा अपने चक्रों में वो पीस रहा है और मिटा कर रहेगा यह प्रण है(मन की गांठे)

मन की गांठे

धूप कितनी भी चुनौतिया दे जीवन में पसीने से बहती देह को संवारना ही होता है, सूरज की रश्मियों से अपना सारा का नेह बचाकर रखना ही पडेगा, इस सबमे हम खाली होते जा रहे है और इस तरह से एक जीवन इस पार है और एक उस पार, सूरज के निकलने और अस्त होने के बीच रश्मी किरणों से बचाना है ताकि एक भरा पूरा जीवन बचा रहे, घाम और पसीने के बीच पिघलते जीवन को एक पतली सी महीन छाया से बचाना है लेकिन कैसे यही तो है(मन की गांठे)

मन की गांठे

धुप कितनी भी किरचिया बिखेर दे सूनी सड़क पर, ठूंठ से खड़े पेड़ थोडा ही सही सहारा तो दे ही देते है, रूखी सुखी पत्तिया हवा में अपनी गंध बिखेर ही देती है, बस दिक्कत तो उस मुसाफिर की है जो लगातार सारे मौसमों को झेलते हुए चलता जा रहा है कितना बदनसीब है ये मौसम कि इस मुसाफिर के सामने ढेरो चुनौतिया रखने के बाद भी कुछ ऐसा नहीं कर पा रहा कि वो बस रूककर थक जाए और कहे कि बस! अब नहीं चलना और तन समर्पित मन समर्पित!!!(मन की गांठे)

मन की गांठे

उन सबको माफ कर दो जो कभी अपनी राह में भूले भटके आ गए खलल डालने, और फिर एक नासूर बन कर रह गए जीवन पर्यंत, सबको माफ कर दो वे अबोध है, और नहीं समझ रहे कि इस तरह से वे कुछ भी हासिल नहीं कर पायेंगे और अन्तोगत्वा सिर्फ पछताकर रह जायेंगे. दोस्ती से, छलबल से वे कुछ नहीं सिर्फ अपना ही अहम संतुष्ट कर सकते है, जो अपने आप को दे नहीं सकते वे तुम्हे क्या देंगे इसलिए माफ कर दो और अपेक्षा छोड़ दो उनसे जो अपने थे और कभी नहीं हुए(मन की गांठे)

मन की गांठे

दरअसल में एक बहुत पतली रेखा है समस्या और समाधान के बीच और हम अक्सर धोखा खा जाते है समस्या को समाधान मानकर और समाधान को समस्या मानकर पर इस पार से उस पार देखने का प्रयास नहीं करते और बह जाते है एक रो में और फिर जब तक लौटकर आते है देर हो चुकी होती है बहुत वह पंछी उड़ चुका होता है देह से, देर अबेर उसे उडना ही था पर अब ये धुन्धलका और गहरा जाता है पूरा एक चक्र फिर से चल पडता है कही और किसी और दिशा में(मन की गांठे)

मन की गांठे

एक् पत्थर है जो सदियों से निष्णात है एक ही जगह पर स्थिर है और बस देखता सुनता और गुनता रहता है लगातार, आने वालो की हर बात धैर्य से सुनता है, सब बुदबुदाते है पता नहीं क्या क्या- अपने रंजो-गम में उसे शामिल करते है और फिर वहाँ से चले जाते है. मुझे नहीं पता कि पत्थर की नियति क्या है और वो क्या दे सकता है पर जो विश्वास और आस्था उसने इन लंबे वर्षों में बनाई है वो में कभी बना पाउँगा और सिर्फ एक पत्थर भी बन पाउँगा? (मन की गांठे)

मन की गांठे

कैसे एक एक पल में हम जीते है और कैसे एक एक पल जिन्दा रहने का एहसास हमें यह याद दिलाता है कि हम सब इस पल में ही जी रहे है, बितते हुए पल का हिसाब तो समय का दुष्चक्र ले ही लेगा, पर ये जो सब कुछ छूट जाएगा कब आएगा हाथो में, एसे ही बरस पर बरस बीतते जाते है औरं अंत में सिवाय प्रार्थनाओं के बचता नहीं है, हम सब दौड़ रहे है क्या पा लेंगे या क्या छूट गया है पता नहीं पर एक एक पल जी रहे है और मर रहे है लगातार(मन की गांठे)

मन की गांठे

टूटता कुछ भी नहीं है, बिखरता कुछ भी नहीं है, फैलता कुछ भी नहीं है, मिटाता कुछ भी नहीं है, दूर कुछ भी होता नहीं है, बस हम सब अपने मन का भ्रम पाल लेते है, मान लेते है कि सब कुछ खत्म हो गया, और यह भी ये सब इसने, उसने, मैंने किया था. बस हाँ एक आवाज है जो छन् सी आती है एक अनहद की तरह और हम उसे सुनते जाते है दूर तक एक अनजाने से सफर की और.....धीरे से उस मुकाम की और मोड देते है जो चिरंतन एवं शाश्वत था.....

फेसबुक मेनिया

जब वो गया था उस महानगर तो लगा था कि इस फेसबुक के सारे दोस्त उससे मिलने जरूर आयेंगे वो पूरे तीन दिन रूका था उस होटल में और सबको कमेन्ट किये कि में शहर में हूँ पर किसी ने फोन तक नहीं उठाया, कम से कम यह तो बता देते कि इंटरव्यू की जगह कहा है या कैसे पहुंचा जा सकता है पर हद तो तब हो गयी जब एक ने कहा यार फेस बुक पर १४५३ दोस्त है किस किसको मिले यहाँ तो साले रोज आते है अब काम करे या दोस्ती निभाए (फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

जब वो गया था उस महानगर तो लगा था कि इस फेसबुक के सारे दोस्त उससे मिलने जरूर आयेंगे वो पूरे तीन दिन रूका था उस होटल में और सबको कमेन्ट किये कि में शहर में हूँ पर किसी ने फोन तक नहीं उठाया, कम से कम यह तो बता देते कि इंटरव्यू की जगह कहा है या कैसे पहुंचा जा सकता है पर हद तो तब हो गयी जब एक ने कहा यार फेस बुक पर १४५३ दोस्त है किस किसको मिले यहाँ तो साले रोज आते है अब काम करे या दोस्ती निभाए (फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

उसे लगा कि वो उसका बहुत ही गहरा दोस्त था इतना गहरा कि यदि दोनों एक साथ डूबते तो वो उसे बचाकर खुद मर जाता पर अचानक उस दिन वह मानो नींद से जाग गया, उसकी लिस्ट में उसकी वाली भी "एड'हो गयी और बड़ी बेशर्मी से वो उसके हर अड़े-सड़े, घटिया से कमेन्ट पर लाइक करने लगी फिर क्या था उसके तो तन बदन में आग लग गयी पूछा पर वो हंस कर टाल गयी फिर बोली तुम्हे क्या ? बस वो अपनी प्रोफाइल डिलीट करने ही वाला है (फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

अपने शहर के एकमात्र रूखे सूखे पार्क में वो जब भी जाकर बैठता, तो उसे वहाँ की रंगीनिया नजर नहीं आती, सिर्फ नौकरी और घर पर दिन भर कुछ ना कर पाने का एहसास सताता रहता. इधर वो कई दिनों से देख रहा था कि उसके साथ पढ़े लिखे दोस्त बेंगलोर दिल्ली मुम्बई पूना यहाँ तक कि विदेश में भी जा बसे है सबके फोटू देख कर मन मसोज जाता बस अब तो भगवान को भी खुल्ले खुल्ले गाली देने लगा था और ये साली फेस बुक भी ना...(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

गर्मी की तडफ और पानी के हाहाकार के बीच वो लगातार सक्रीय था फेसबुक पर भी उसके बाकी सात फर्जी मेल आई डी जिससे वो चेट करता था, भी चालु थे, बस उसे समझ नहीं आता था कि इन सब लोगो को पानी, मिट्टी के तेल और गेस की किल्लत क्यों नहीं महसूस होती और ये सब इतना टाइम कहाँ से निकाल लेते है यहाँ साली जिंदगी मारी पडी है माँ बाप सब पीछे पड़े रहते है, आजकल धुप में तो वो भी नल पर नहीं आती!(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

भरी धुप में जब वो घर से निकलता तो लोग कहते कि कहाँ जा रहे हो पर वो जवाब नहीं देता था, अपनी फेसबुक प्रेमिका से मिलने का जज्बा ही कुछ अनूठा था उसे वो लगातार चकमा दे रही थी इस तरह से वो रोज कालेज के चक्कर लगाता, इतनी लडकियों में वो उसे पहचानता भी कैसे उसने प्रोफाईल पर करीना का फोटू लगा रखा था, बस दिन गुजरते जा रहे थे और वो धीरे धीरे निराशा के गर्द में धंसते जा रहा था प्रेम से विश्वास उठ रहा था(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

जिसमे जवान हो कर बदनाम हम हुए, उस गली ,उस शहर ,उस घर को सलाम ....बस इसी तरह के गानों को वो अक्सर फेसबुक पर लिखता था और दोस्तों से उम्मीद करता कि वो कमेन्ट करे, खूब दोस्त बनाए थे उसने और बेरोजगारी के दिनों में ये सब संबल देते पर नौकरी नहीं घर में मा- बाप, भाई- बहन सब ताने देते और कोसते रहते कि बंद करो फेसबुक और काम करो पर काम कहाँ था?(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

बेचो बेचो- ईमान, सिद्धांत, मूल्य, नैतिकता, पारदर्शिता, भरोसा, प्यार-मुहब्बत, सम्बन्ध, भूख-भय-भ्रष्टाचार, शब्द, कागज़, परिप्रेक्ष्य, भावनाएं, संवेदनाएं, दोस्ती -यारी, इश्क, न्याय, विश्वास, और जो भी हो उसे बेचो क्योकि यही समय जब सब बिक जाएगा वरना कल देर हो जायेगी भाईयो बहनों इसलिए सलाह दे रहा है यह शैतान का बन्दा कि सब बेच डालो यही समय है जब वाजिब मूल्य मिलेंगे और बस फिर क्या एश करना(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

समझ आ गया कि किसी को कुछ मत बोलो, कुछ मत कहो, बुरा मानते है लोग, जहर को जहर कहना- सांप को सांप कहना - दोस्त को दोस्त और दुश्मन को दुश्मन कहना गलत है सिर्फ मुस्कराते रहो और फिर जितना पीट सकते हो लूटो खसूटो, दोस्तों की जेब से या घर की तिजोरी से क्या फर्क पडता है, ये दुनिया एक रंगमंच है बाबू मोशाय और हम सब रंगमंच की कठपुतलिया है और सबकी डोर हमारे ही अपनो और दोस्तों के हाथो में है ये एक पल में हमें निपटा देंगे(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

विचारधाराओं को बिकते देखा, दोस्तों को क़त्ल करते देखा, अपने विश्वासों को टूटते हुए देखा, प्यार को नफ़रत में बदलते हुए देखा, ईमान को खरीदते हुए देखा, बस ना देखा तो भरोसा, सहजपन, स्नेह, और वो सब जो इस समाज को समाज बनाकर रखता है और इस पुरी सृष्टि को चलायमान रखता है, हाँ यह कहना बेमानी नहीं कि कितना बदल गया इंसान(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

किसी की मदद मत करो, जब कोइ कुछ कहे तो ठुकरा दो, जब कोइ सपने दिखाए तो उसे जमीन पर पटक दो, जब कोइ ज्ञान दे तो उसे तर्क करके मुर्ख साबित कर दो, कोइ यदि हमदर्दी दिखाए तो उसे ऐसी पटकनी दो कि एक भी दांत ना बचे, बस ये कुच्छ नियम है इस मुश्किल समय में जीने के ताकि अपुन सिर्फ अपुन बनके रह सके और सबको छोड़ के अपनी जिंदगी जियो किसी से नोबल पुरस्कार तो लेना नहीं है ना बोस (फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

नारी को सम्मान देना हमारी रीत थी और आज भी है पर नारिया आज तो इंसानियत के भी नीचे आ गयी है समानता और सम्मान के नाम पर वो सिर्फ एक गहरी षड्यंत्रकारी हो गयी है, सशक्तिकरण ने इनको सिर्फ बाजार के लायक बनाया है और अपने को बेचने की होड में ये सब भूल गयी है, ये आज सिर्फ इस्तेमाल करना जानती है और अपना उल्लू सीधा करना बस यही बचा है सिर्फ गायब है तो मानवता और सहजपन(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

बाजारों में इन दोस्तों ने ही आदमीयत को बेचा है और दोस्ती के नाम पर कलंक लगाए है ये भूल गए कि ये भी कभी इंसान थे और सिर्फ इसी इंसानियत ने मजबूर किया था कि इन्हें मदद की जाए पर आज ये सिर्फ घटिया हो गए है और बस सिर्फ जानवरों की तरह से समाज में रहने लगे है और इस मद में कि वो सर्वोपरी है, सब भूल गए है, अपने माँ बाप को नहीं छोड़ा तो मेरे जैसे दोस्त क्या बला है, खत्म, सब विश्वास खत्म.(फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

कभी कभी कमीना होना भी बेहतर होता है और जब दोस्तों के साथ कमीनपन की बात हो तो बिलकुल दिल से करना चाहिए क्योकि ये दोस्त तो किसी को छोडते नहीं है पिछले छः माहो में दोस्ती और लोगो को बहुत नजदीकी से देख लिया है जिसको मदद की वही सांप निकला दूध पिलाने से उसका जहर ही बढ़ा है, खैर घटिया को घटियेपन से ही निपटा जा सकता है( फेसबुक मेनिया)

फेसबुक मेनिया

जिंदगी में छोटे छोटे निर्णय बहुत मायने रह्ते है कई बार, बल्कि अक्सर हम गलत निर्णय लेते है और फिर उम्र भर रोते रहते है, और इस सबमे अपने ही लोग जिन्हें हम दोस्त कहते है हमसे दगा करते है और हम सिर्फ भरोसे में मर जाते है, ऐसे ही चोराहे पे कुछ दोस्तों ने लाकर पटक दिया है कि आगे कुआं और पीछे खाई है, और ये दोस्त आज बेशर्म होकर कह रहे है हम क्या करे..... मार्क्स सही कहता था हरेक पर शक करो

एनजीओ पुराण ९१

तो इस तरह से वो दोनों लड़ते झगडते प्रदेश में काम करते रहे वो बड़ी दूकान पर और ये एक छोटी दुकान पर फिर दोनों ने एक साथ छोड़ दिया काम और उड़ गए हवा में घुमाते फिरते पिछड़े प्रदेश में पहुँच गए आजकाल अपने पुराने दोस्तों को पटा कर अनुदान का जुगाड कर रहे है ताकि एक नई दूकान खोल सके उसी जगह जहां उसे सरकार ने लगभग खत्म कर दिया था, साली अंगरेजी क्या चीज होती है और दोस्त यार भी क्या होते है सब कर देते है(एनजीओ पुराण ९१)

एनजीओ पुराण ९०

वह लगभग पूरी तरह से उस पर ही निर्भर था क्योकि अंगरेजी में उसकी नानी मरती थी उसे सारी दुकानों पर काम भी उसी ने दिलवाया था अब इस नई दुकान पर काम भी उसी ने दिलवाया है, अब दिक्कत यह है कि वो दूर और ये ये पास है, कैसे निभेगा ये कर्म का रिश्ता, इतना लिजलिजा आदमी मैंने नहीं देखा आजतक कि ना काम ना समझ, बस उसकी सुंदरता और इसके काम, बस वही करती रही इसका सब, आज पता चला कि इसकी रीढ़ की हड्डी ही नहीं है(एनजीओ पुराण ९० )

एनजीओ पुराण ८९

उसके जैसी रहनुमा मैंने देखी नहीं आजतक अहिंसा परमो धर्म बस दूकान पर वो इतनी हिंसा करती थी कि लगभग उसे जिला बदर करना पड़ा सबको क्योकि वो दूकान में काम करते करते बठठर बन गयी थी और उसने कईयों को एसी सजा दिलवाई थी जो कही भी ना मिली हो, माया ठगिनी तो सबने सूना था पर उसके काटे का जहर पानी भी नहीं मांगता था, आजकल वो नई दूकान में जा रही है लोग प्रार्थनाए कर रहे है(एनजीओ पुराण ८९)

एनजीओ पुराण ८८

एक दिन मुन्ना को बड़ी भारी नौकरी लग गयी मुन्ना के ख्वाब जैसे पूरे हो गए बस छककर दारू पीने लगा और सबको उसकी भाषा में चुतिया कहता था और वो बा देश की प्रतिष्ठित दुकान् का कर्मचारी था, मुन्ना को साली यही चीज अखरती थी कि यह सब पहले क्यों नहीं हुआ, क्यों किस्मत उसके साथ छल करती रही, मुन्ना आजकल अंगरेजी में भी लिखने लगा है सब कुछ बस थोड़ा बहुत गडबड रहता है पर साला माल तो मिल रहा है (एनजीओ पुराण ८८)

एनजीओ पुराण ८६

हर सोमवार को दूकान में घुसती थी तो आँखे लाल और तरेरती रहती थी लगता था कि वो वीकेंड पर लगभग पीती रही हो, फिर आकर कोहराम मचाती और काम में लग जाती थी, सारे मर्दों की शिकायत, पित्ज़ा मंगाना, फोन करना, नेट पर चेट करना और फिर आनेवाले शनिवार के कार्यक्रम बनाना, ग्राहक ढूंढना, फिर जल्दी घर चले जाना, सबको हेरास करके वो बड़ी खूश रहती थी क्योकि उसके पास डिप्रेशन के अलावा कुछ नहीं था(एनजीओ पुराण ८६)

एनजीओ पुराण ८५

देश के बड़े ख्यात लोग थे और जब इन लोगो ने एक फेलोशिप चालु की तो देश भर अपने प्यारे के युवाओं को खूबी माल बांटा, मीटिंग और प्रशिक्षण में ही आधा करोड निपटा दिए बस बाकी वो देश के उद्योगपति से लिया माल अपनी हवाई यात्राओं में लगाते रहे. फेलोशिप लिए युवा चाय पानी में लगे रहे और चेंज तो आया नहीं, हाँ इन सबने छः करोड निपटा दिये, आजकल ये युवा देश के बड़े घरानों से भीख मांग रहे है कि चेंज आ जाए(एनजीओ पुराण ८५)

अब जबकि जान गया हूँ --बोधिसत्व की कविता

कवि बोधिसत्व किसी परिचय के मुहताज नहीं...मेरे लिए आश्चर्य की बात है अपनी कविता को लेकर उनका संशय! उनसे कोई दो-तीन वर्षों के संपर्क में ऐसा अक्सर हुआ है कि कभी आधी रात उन्होंने एकदम से पूछा हो...क्यों एक कविता सुनोगे? ना कौन मूर्ख कहेगा...और हर कविता सुनाने के बाद मेल करके कहते हैं कि देखो...कुछ गडबड तो नहीं? कुछ सार्थक कह पा रहा हूँ? पहले मुझे लगता था कि बस ऐसे ही शायद...फिर जब थोडा खुला...तमाम कविताओं पर खुल के बात की तो पता चला कि यह अपनी कविता की सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति सावधान एक लोकतांत्रिक कवि की सहज उत्कंठा है। कितनी ही बार मुझ जैसे नौसीखुए के कहने पर उन्होंने कितना कुछ बदला...यह कविता भी उन्हीं में से एक है.... अब जबकि जान गया हूँ जबकि जान गया हूँ चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता तो क्या चींटियों को पिसान्न डालना रोक दूँ। जबकि जान गया हूँ बाझिन गाय को चारा न दूँ खूंटे से बाँध कर रखूँ या निराजल हाँक दू दो डंडा मार कर वध करूँ मनुष्य का या पशु का कोई नर्क नहीं कहीं तो क्या उठा लूँ खड्ग जबकि जान गया हूँ कि क्या गंगा क्या गोदावरी किसी नदी में नह