हर सोमवार को दूकान में घुसती थी तो आँखे लाल और तरेरती रहती थी लगता था कि वो वीकेंड पर लगभग पीती रही हो, फिर आकर कोहराम मचाती और काम में लग जाती थी, सारे मर्दों की शिकायत, पित्ज़ा मंगाना, फोन करना, नेट पर चेट करना और फिर आनेवाले शनिवार के कार्यक्रम बनाना, ग्राहक ढूंढना, फिर जल्दी घर चले जाना, सबको हेरास करके वो बड़ी खूश रहती थी क्योकि उसके पास डिप्रेशन के अलावा कुछ नहीं था(एनजीओ पुराण ८६)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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