Skip to main content

Posts

Showing posts from January, 2013

तू कभी याद तो कर भूलनेवाले मुझको - कतील शिफाई

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी ये तेरी सदादिली मार न डाले मुझको मैं समंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोताज़न भी कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवाले मुझको कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचाकर दामन मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम तू कभी याद तो कर भूलनेवाले मुझको बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ "क़तील" शर्त ये है कोई बाहों मे संभाले मुझको - कतील शिफाई

नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा

सारा दिन उपवास, हफ्ते में दो दिन, माह में इस संकष्टी चतुर्थी का एक उपवास - पर हालात तो ज्यो के त्यों बने हुए है. कही कुछ नहीं होता, ना परिवर्तन, ना कही से सुख का एक चिथड़ा मिलता है, सिवाय दुखों की पोटली के क्या है मेरे पास, अभी देख रहा हूँ आसमान में चाँद को धीरे से ऊपर चढते हुए, अन्न का एक सूखा कौर मुँह में लेते हुए उपवास छोड़ा तो लगा कि क्या ऐसे ही बीत जायेगा सब कुछ, मेरे होने का क्या प्रयोजन था और क्या प्रारब्ध ......पता नहीं पर सालों से करते हुए ऐसे ही उपवास मै ईश्वर के तो करीब अभी नहीं जा पाया पर भूख और गरीबी को बहुत करीब से देख लिया और अभावों की चादर ताने भटक रहा हूँ अपना अर्थ खोजते हुए, अपने होने की सार्थकता को ढूँढते हुए, पता नहीं हफ्ते के दो उपवास और माह का यह उपवास और साल भर के कुल मिलाकर इतने उपवास हो जाते है कि बस याद ही नहीं रहता कि खाना कब खाया था ? अब जीवन के इस समय में इस नदी के किनारे बहुत से चाँद देख लिए और अब लगता है इस चाँद का भी कोई और कुछ विकल्प होना चाहिए.......नदी के पाने में अभी अक्स देखा है इस चाँद का तो लगा कि पानी के बहते और स्थिर स्वरुप
क्षोभ, करुणा, अवसाद, तनावों और संताप के बीच ही कही रखा था जीवन...जैसे अभी-अभी कोई श्रृंगार के बहते रस में से इस बचे-खुचे जीवन की चासनी को बहा ले गया कोई सुख का चरवाहा पानी की बेलौस लगाम को कसते हुए एकदम ले गया हांकते हुए कि कही कोई छीन ना ले वरना फ़िर खुशी की सौत पसरा ना दें अपना सूपडा इस थाती पर................ एक बार फ़िर फराज............ अपनी वफ़ा का इस क़दर दावा ना कर फराज़ हमने रूह को जिस्म से बेवफाई करते देखा है

"भारतीय गण शोषण पार्टी" का गठन

तो आप सभी को बड़े हर्ष के साथ सूचित किया जाता है कि आगामी पांच फरवरी को रायसीना की पहाडियों पर मै एक नई पार्टी की घोषणा करने जा रहा हूँ जिसका नाम होगा "भारतीय गण शोषण पार्टी" इसका असली उद्देश्य आम लोगों, दलितों, महिलाओं, बूढों, विकलांगों, निशक्तजनों और बच्चों का शोषण करना होगा. यह पार्टी भारतीय राजनीती के जरिये समाज में पूंजीवाद को बढ़ावा देगी, देश में करोडपति कैसे बढे कि दुनिया की फ़ोर्ब्स की सूची में सारे भारतीय हो और कोई माई का लाल अपना नाम जुडवाने की हिम्मत ना कर सके (कारण यह है एक पच्चीस करोड लोगों को शोषित करके इतना महान और नेक कार्य तो किया जा सकता है ना)  हमारी पार्टी कुपोषण का बढ़ावा, महिलाओं को असुविधा-गैरबराबरी, दलित शोषण, रिश्वत का वैधानिक आधार, लोकपाल का खात्मा, युद्ध को प्रमोट करने वाली विदेश नीति, खनिजों का अत्यधिक दोहन, साम्प्रदायिकता को लीगली स्वीकार करके हर माह हर जिले और ब्लाक में एक बड़ा दंगा, मीडिया को एकदम पूरी छूट सारी उन्मुक्तता के साथ काम करने की आजादी, सभी शिक्षा संस्थानों को परीक्षाओं से मुक्ति और मनचाहा पाठ्यक्रम बनाकर लागू करने की छूट- कोई भी मूर्ख शि

''हताशा में एक व्यक्ति बैठ गया था ''-विनोद कुमार शुक्ल की कविता

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था व्यक्ति को मैं नहीं जानता था हताशा को जानता था इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया मैंने हाथ बढ़ाया मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ मुझे वह नहीं जानता था मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था हम दोनों साथ चले दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे साथ चलने को जानते थे। ( ''आकाश धरती को खटखटाता है''संग्रह से )

देवास में प्रखर चंद्रा निगम Jan 25, 2013

यह चार साल पुरानी बात होगी जब मै काम के सिलसिले में भोपाल से झांसी जा रहा था शताब्दी एक्सप्रेस में, एक युवा मेरे पास बैठा था शुरू में जैसा कि होता है थोड़ा पंगा हुआ फ़िर बाद में दोस्ती हो गई. पता चला कि वो नारसी मुंजी सिरपुर के कैम्पस में पढ़ रहा है और बी टेक कर रहा है. ऐसा कुछ रिश्ता बना कि हम बहुत अच्छे मित्र बन गये वो बिलकुल मेरे बेटे जैसा है. आज अचानक फ़ोन आया कि भैया मै देवास में हूँ और एक मुसीबत में तो मै भागा मुसीबत हल की और मै वो यहाँ आये तो मै मिले बगैर कैसे रह सकता था. अपने प्रिय मित्र बहादुर के साथ जाकर उससे और उसके भाई, भाभी से मिला, साथ खाना खाया. शुक्रिया प्रखर यह समय देने और देवास आने के लिए...उम्मीद है जैसा कि तुमने कहा है कि शीघ्र ही आओगे और ज्यादा समय के लिए........ Prakhar Chandraa and Bahadur Patel

रेडियो अपने आप में एक पूरी परम्परा है.

प्लास्टिक का कव्हर होता था हलके नीले रंग का. बजरंग पुरे के मकान में जब बिजली चली गई तो एक मोमबत्ती लगाकर रख दी उस पर फ़िर क्या था नींद लग गई थोड़ी देर बाद कुछ जलने की बदबू आई. देखा तो सारा रेडियो जल चुका था उसके कल पुर्जे जल चुके थे और प्लास् टिक बह रहा था. पापा से कहने की हिम्मत नहीं पर उन्होंने कुछ नहीं किया ना दांता ना फटकारा चुपचाप मौसी के नंदोई को सुधारने को एक सौ के नोट के साथ दे दिया,  वे नंदा नगर में रहते थे. जब भी इंदौर जाते तो मौसी के लड़कों से पूछता कि हमारा रेडियो सुधर गया क्या. पर वो रेडियो कभी नहीं सुधरा और फ़िर घर टू इन वन आया पर उसमे ना वो मजा था ना कुछ सुनने का मन करता था. पर आज तक मुझे अफसोस है. आज यह आशुतोष तुम्हारी पोस्ट देखकर मन करता है कि चिल्लाकर कह दूँ और कन्फेस कर लू कि पापा जहां कही भी सुनो वो रेडियो मेरी गलती से जला था ............... रेडियो पर भाई Brajesh Kanungo की कविता भी जाने-अनजाने में गूँज जाती है दिमाग में अक्सर .....और Prabhu Joshi जिन्हें हम प्यार से प्रभु दा कहते है, ने जो इंदौर रेडियो पर आने के अवसर दिए उसे कैसे भूल सकता हूँ. बाद

महामाया के बहाने से वैज्ञानिक चेतना की खोज (सन्दर्भ सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास)

पुस्तक समीक्षा प्रकाशनार्थ   “ महामाया ” के बहाने से वैज्ञानिक चेतना की खोज   ( सन्दर्भ डा सुनील चतुर्वेदी का उपन्यास) - संदीप नाईक - भारतीय संविधान में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की बात की जरुर गई है परन्तु आजादी के बाद जिस तरह से धर्म , आध्यात्म और इससे जुड़े पुरे तंत्र की बात होती है तब यह समझ पुख्ता होती है कि यह पूरा एक विराट और विशाल तंत्र है जो शुरू तो मानव मात्र की उत्थान के लिए हुआ था परन्तु शनै: शनै: यह शोषण का एक प्रमुख हथियार बन गया और सारी मानव जाति को इसने खांचों में बाँट कर रख दिया. धर्म के स्वरुप और इससे जुडी आस्थाओं पर कई सवाल है आध्यात्म इसमे एक नई दिशा खोजकर जीवन के मूल्यों और तथ्यों को खोजने की कोशिश करता है ताकि मनुष्य के जीवन में एक शान्ति आ सके और वह प्रक्रिया अंततः खोजी जा सके जो कल्याणकारी और वृहद मानव समाज की भलाई करती हो. इस हेतु समाज में कई साधू-महात्माओं का प्रादुर्भाव हुआ , धार्मिक , सामाजिक और यहाँ तक कि विवेकानंद जैसे राजनैतिक लोगों ने भी इसे नए तरीके से गढने- रचने की कोशिश की , परन्तु कही कोई ठोस विकल्प नजर नहीं आया. खैर , यह एक