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Showing posts from June, 2013

हरिशंकर परसाई कहिन

तमाम झूठे विश्वासों, मिथ्याचारो, कर्मकाण्डो , तर्कहीन धारणाओ , पाखंडो, को कंठ में ऊँगली डाल -डाल कर और पानी भरकर उलटी करानी पड़ती है , तब धरम की अफीम का नशा उतरता है । अगर यह न किया जाए आदमी जहर से मर भी सकता है । हम जब दुःख भोगते है , तब दुसरो से उस दुःख की मान्यता चाहते है । जब यह मान्यता मिलती है , तो दुःख में भी हम गर्व का अनुभव करते है । कोई भोगे, और उसका भुगतना अनदेखा चला जाए , तो उसका दुःख दुगना हो जाता है. हरिशंकर परसाई

सावधान रहे, सचेत रहे, हम सब बहकाने और बहकने मे माहिर है.....

निकला जा रहा है दम यहाँ हर दिन हर पल और आप है कि अपनी रोटियां सेकने मे लगे है, सेकुलर और ना जाने कौन कौन से सिद्धांत याद आ रहे है आपको, समझ नही आता कि जो जवान बचा रहे है वे भी जब मरने के कगार पर है तो आपको हो क्या गया है कोई वहाँ जाये या ना जाये इससे हमें क्या, जब एक आदमी मरता है किसी तंत्र की लापरवाही से तो समूचे विकास और मानवता पर प्रश्न उठते है महामना पर आप को कोई इस बात से फर्क नहीं पड़ रहा.... . कब तक विनाश का मंजर देखेंगे और हवाई खूबसूरती का जश्न मनाते रहेंगे...... "बस कीजिये आकाश मे नारे उछालना" - याद आ गये दुष्यंत कुमार........ बंद कीजिये मोदी, राहुल, बहुगुणा और तमाम तरह के आत्मप्रचार वाले, दुष्प्रचार करने वाले नारे उछालना और अपने तक ही सीमित रखिये अपनी घटिया सोच और उस आदमी के बारे मे सोचिये जो मर रहा है, उन लोगों के बारे मे सोचिये जो वही रह जायेंगे एक अभिशप्त जीवन जीने को, जिनके पुरखे वहाँ सदियो से रहते आये है. नीचे वालों को तो जैसे तैसे सेना उतार लायेगी, राज्य सरकारे अपने प्रदेश के लोगों को अपनी संकीर्ण मानसिकता के चलते और वोट बैंक का सहारा लेकर उतार लायेगी, गोदी

"प्रार्थना के शिल्प में नहीं" - देवीप्रसाद मिश्र

यह सिर्फ एक कविता नहीं है बल्कि एक समूची परम्परा को ठुकराकर नया कुछ सोचने और करने को भी उद्वेलित  करती है देवीप्रसाद मिश्र की यह कविता. आप इसे जितनी बार पढेंगे यह आपको नए अर्थ और नए प्रसंग देगी … वर्तमान  सन्दर्भ में देवभूमि और नेताओं के दौरों से देखा जा सकता है . भाई  Avinash Mishra शुक्रिया  "अस्वीकार की अनन्य" इंद्र, आप यहां से जाएं  तो पानी बरसे मारूत, आप यहां से कू़च करें तो हवा चले बृहस्पति, आप यहां से हटें  तो बुद्धि कुछ काम करना शुरू करे अदिति, आप यहां से चलें तो कुछ ढंग की संततियां जन्म लें रूद्र, आप यहां से दफा हों तो कुछ क्रोध आना शुरू हो देवियो-देवताओ !  हम आपसे जो कुछ कह रहे हैं प्रार्थना के शिल्प में नहीं .- देवीप्रसाद मिश्र 

राँझना एक अप्रतिम फिल्म है

राँझना एक अप्रतिम फिल्म है जिसमे बेहद साधारण सूरत सीरत वाले धनुष ने ना मात्र खूबसूरती का भ्रम तोड़ा है बल्कि जिस तरह से पुरी  फिल्म में बनारस उभरकर आता है बार बार, वह भी दर्शाता है कि फ़िल्में सिर्फ बड़े शहरों की बपौती नहीं विदेशों की भी नहीं बल्कि छोटे कस्बे, नए उभरते शहर और बहुत साधारण लोग जिनकी सांसों में शहर वहाँ की भाषा मुहावरें और परम्पराएं बसती है वो भी एक अच्छी फिल्म दे सकते है. ठीक इसके साथ जे एन यु की समूची शिक्षा, वामपंथ की दोहरी घटिया चालें, अवसरवाद, मौकापरस्ती, अस्तित्व का संघर्ष, और स्व का इस हद तक बढ़ जाना कि वह अहम् किसी की या किसी बहुत अपने की जान लेने का भी परहेज नहीं करता। यह जे एन यु के बहाने देश में चलने वाली तमाम तरह की गतिविधियाँ, चाय, गंगा ढाबे की चुहल, नुक्कड़ नाटक, युवा महत्वकांक्षाएं और सत्ता के करीब रहने का लगाव है. यह फिल्म हजार ख्वाहिशे की याद दिलाती है कि कैसे बदलाव अब जालंधर से नहीं दिल्ली से होकर आता है यानी गाँव कही भी हमारे परिवर्तन में शामिल नहीं है.   भट्टा  परसौल की एक झलक के बहाने से एक साधारण बुद्धि वाले आदमी  की समझ को दर्शाया गया है. सबसे महत्

उन्मुक्त भाव से अपनी हार स्वीकारें .

कभी हम सोचते है कि वो सब हमें मिल जाए जो हम चाहते है शिद्दत से, परन्तु जीवन में सब कुछ मिलता  नहीं है महत्वपूर्ण है हार का सामना करने की हिम्मत, वो सब कुछ सह लेने का जूनून जिसे सफलता के  दायरे में माना ही नहीं जाता… उस हार को बहुत गौर से देखो समझने का पूरा प्रयास करो और फिर देखो  उसके पीछे उन चेहरों-मोहरों को जो कही ना कही से एक भयानक अट्टाहास कर अपनी विद्रूप हंसी से सारे  संसार की शान्ति को तहस - नह स कर रहे है… पहचानो इन चेहरों को जो तुम्हे निकट से देखने पर ठीक  अपने से लगेंगे और बेहद करीबी .बस यही से हार को स्वीकार करो और फिर अपनी सफलता की सीढियां  तुम्हे नजर आयेंगी बस एक बार, सिर्फ एक बार इन सबको समूल उखाड़ फेंकों जो सिर्फ इस्तेमाल करना  जानते है और तुम्हे पनपते नहीं देख सकते… बस शर्त यही है कि अपनी हार स्वीकार करने की कड़ी हिमत  और उनकी वहशत, जुगुप्सा को सहने की शक्ति तुम्हारे पास होना चाहिए, तभी हम इन सबको उजास में  ला सकेंगे और मुखौटों को निकालकर तेज प्रकाश में इनके बगैर सफलता की गर्वोन्मत्त सीढियां चढ़ सकेंगे  .आओ हार स्वीकारें, उन्मुक्त भाव से अपनी हार

ये गर्मी की एक उंघती हुई लंबी दोपहर है

गर्मी की लंबी उंघती दोपहर कही से कोई हवा का झोंका नहीं, कोई सरसराहट नहीं, कोई हलचल नहीं, कोई आवाज नहीं, एक लंबी चुप्पी, एक खामोश जिस्म, मिट्टी के ढेलो से कुछ गिनने की नाकाम कोशिश और फ़िर दूर कही आसमान में प्रचंड वेग से आती किरणों को लगातार घूरते हुई टक्कर देने की जिद्द और एक लाचारी..........यह दोपहर क्या लेकर जायेगी........? क्या छोड़ जायेगी...? क्या कुछ कह कर जायेगी या यूँही बस गुजर जायेगी...........जैसे बीत गई एक पूरी सांझ और रात कल बिना किसी कोलाहल के और छूट गया इन्ही साँसों का सफर तनहा तनहा .............

उज्जैन में जाना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है 02/06/2013

उज्जैन में जाना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है आज ऐसा ही कुछ संयोग बना जब मित्र बहादुर ने बताया कि समावर्तन के कार्यकारी संपादक श्रीराम दवे की षष्ठिपूर्ति संगमनी के रूप में ड़ा प्रभात कुमार भट्टाचार्य जी मना रहे है तो जाने का लोभ संवार नहीं पाया. हम लोग जब पहुंचे तो कार्यक्रम शुरू हो गया था, इंदौर, देवास और उज्जैन से कुल पच्चीस साथी थे, प्रमोद त्रिवेदी, राजेश सक्सेना, सूर्यकान्त नागर, सदाशिव कौतुक, बाबा, ड़ा निवेदिता वर्मा, अक्षय आमेरिया, वाणी दवे, पिल्केंद्र अरोरा, दिनेश पटेल, बहादुर पटेल, मै, विक्रम सिंह, प्रतीक सोनवलकर आदि साथियों को मिलकर अच्छा लगा और सबसे अच्छा लगा कि ड़ा धनञ्जय वर्मा आशीर्वाद देने को स्वयं उपस्थित थे. बाद में अनौपचारिक रूप से सबसे मिले, बेहद आत्मीय और शालीन कार्यक्रम था. कार्यक्रम के बाद हम तीनों अपने परम मित्र मुकेश बिजौले से मिलने पहुंचे और फ़िर मुकेश के नए चित्र देखें जो उन्होंने हाल ही में बनाए थे. फ़िर लंबी बात और चित्रकला के आयामों पर बातचीत और मुकेश के नए चित्रों में गहरे काले रंग के प्रयोग और नई कला पर एक लंबा आख्यान सुना.  आखिर