राँझना एक अप्रतिम फिल्म है जिसमे बेहद साधारण सूरत सीरत वाले धनुष ने ना मात्र खूबसूरती का भ्रम तोड़ा है बल्कि जिस तरह से पुरी फिल्म में बनारस उभरकर आता है बार बार, वह भी दर्शाता है कि फ़िल्में सिर्फ बड़े शहरों की बपौती नहीं विदेशों की भी नहीं बल्कि छोटे कस्बे, नए उभरते शहर और बहुत साधारण लोग जिनकी सांसों में शहर वहाँ की भाषा मुहावरें और परम्पराएं बसती है वो भी एक अच्छी फिल्म दे सकते है. ठीक इसके साथ जे एन यु की समूची शिक्षा, वामपंथ की दोहरी घटिया चालें, अवसरवाद, मौकापरस्ती, अस्तित्व का संघर्ष, और स्व का इस हद तक बढ़ जाना कि वह अहम् किसी की या किसी बहुत अपने की जान लेने का भी परहेज नहीं करता। यह जे एन यु के बहाने देश में चलने वाली तमाम तरह की गतिविधियाँ, चाय, गंगा ढाबे की चुहल, नुक्कड़ नाटक, युवा महत्वकांक्षाएं और सत्ता के करीब रहने का लगाव है. यह फिल्म हजार ख्वाहिशे की याद दिलाती है कि कैसे बदलाव अब जालंधर से नहीं दिल्ली से होकर आता है यानी गाँव कही भी हमारे परिवर्तन में शामिल नहीं है. भट्टा परसौल की एक झलक के बहाने से एक साधारण बुद्धि वाले आदमी की समझ को दर्शाया गया है. सबसे महत्वपूर्ण जो मुझे लगा कि किस तरह से आधुनिक राजनीती में महिलायें आगे आई है और घर परिवार अपना प्यार और जीवन तक दांव पर लगाकर अपने ही लोगों की ह्त्या करने पर आमादा हो जाती है. दिल्ली की मुख्यमंत्री के बहाने और जोया (सोनम कपूर) दोनों महिलायें है जो अपने हितों की खातिर ना सिर्फ दूसरों का इस्तेमाल करती है बल्कि आख़िरी में शर्मसार भी होती है पर तब तक वे सब खो चुकी होती है, सही कहा है स्त्री चरित्रं देवो ना जानापी कुतो मनुष्य ? राँझना एक अदभुत फिल्म है जो पिछले बीस बरसों में आयी अपने तरह की अदभुत फिल्म है जिसे बार बार दखा और समझा जाना चाहिए वर्तमान सन्दर्भों में यह सिर्फ एक फिल्म नहीं वरन भारतीय समाज के बदलते हुए चरित्र का एक हिस्सा है जहां धर्म, बदलाव, वामपंथ, शिक्षा, स्त्री मुद्दें, भाषा, नदी, सभ्यता, संस्कृति, राजनीति पर भट्टा परसौल के बहाने आज के चरित्र का बखूबी चित्रण किया गया है. मेरे लिए सिर्फ इतना ही कि इसे एक बार बहुत तसल्ली से फिर से देखने का मन है.
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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