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Showing posts from December, 2011

नए साल के संकल्प से......

नए साल में एक ही संकल्प किसी से भावुकता के रिश्ते मत रखो .............साले इंसान जूते खाने लायक ही है बस.............इन्हें एक ही तरीके से साध सकते है प्यार मुहब्बत कुछ नहीं होता बस USE & THROW का सिद्धांत इस्तेमाल करो........................... आप जिससे प्यार करते है यदि वो आपको विश्वास नहीं दे सकता तो उसे तुरंत छोड़ दीजिए वरना पछताने के अलावा जीवन में कुछ नहीं मिलेगा.............मेरे पास एक जीवंत उदाहरण है स्पेस माँगने के चक्कर में लोग बाग आपको यूज करते है.............. जो इंसान लगातार झूठ पे झूठ अपने लोगो से बोलता रहा हो कई दिनों तक महीनों तक उसे छोड़ देना ही बेहतर है वरना एक दिन वो आपको भी बेच कर खा जाएगा................और वो भी भावनाओं को इस्तेमाल करके.......तो यह हद बेहद तके, दोनों से परे हो जाता है मामला.............. उस इंसान को छोड़ दो जो आपको बरगला के रखता है और सिर्फ झांसे में रखता हो ................और हाँ उसे भी छोड़ दो जो आपको तो मिस काल देता हो या बेलेंस ना होने के बहाने करता हो पर अपने वालो से देर रात तक बातें करता हो..........जैसे अपने रिश्तेदारों से या माशूक
साकिया जाए कहाँ हम तेरे मैखाने से शहर के शहर नज़र आते है वीराने से ये जो कुछ लोग नज़र आते है जो दीवाने से इनको मतलब है ना साकी से ना पैमाने से

वह आँखें मूंदकर प्यार करता है

'' हमारा प्यार बहुत-कुछ हमारी ज़िन्दगी की तरह है. आदमी जानता है कि वह बुरी तरह ख़त्म होगी, काफी जल्दी ख़त्म होगी, वह हमेशा रह सकेगी, इसकी उसे रत्तीभर उम्मीद नहीं है, फिर भी- यह सब जानते हुए भी- वह जिये चला जाता है. प्यार भी वह इसी तरह करता है, इस आकांक्षा में कि वह स्थायी रहेगा, हालांकि उसके 'स्थायित्व' में उसे ज़रा भी विश्वास नहीं है. वह आँखें मूंदकर प्यार करता है...एक अनिश्चित आशंका को मन में दबाकर- ऐसी आशंका, जिसमें सुख धीरे-धीरे छनता रहता है और वह इसके बारे में सोचता भी नहीं. '' - ईवान क्लीमा

अलविदा- 2011

साल 2011 जा रहा है, बहुत कुछ छीन लिया इस साल ने हमसे, स्टीव जॉब, भूपेंन हजारिका, इंदिरा गोस्वामी, सत्यदेव दुबे, श्रीलाल शुक्ल, हमारे जिंदगी को गुनगुनाने वाले जगजीत बाबू, सदाबहार देव साहेब, जिंदगी के कैनवास पर सपनों के रंग भरने वाले मकबूल फिदा साहब और कलम के सिपाही अदम गोंडवी साहब .. ना जाने कितने ऐसे लोग जो काल के विशाल गाल में ऐसे समा गए है कभी लौट कर नहीं आ सकते, कुछ यादों के सहारा अलविदा - 2011. साल का आख़िरी पल ऐसे गुजरेगा पता नहीं था सारे तो लोग चले गए...........दूर देखने पर कुछ नजर नहीं आता ..........बहुत गहरे जख्म और सदमे भरा एक जिन्दगी का एक और साल रफ्ता रफ्ता गुजर ही गया..............बस अब थोड़ी बहुत चिंताएं है तो आनेवाले कल की और फ़िर उससे जुडी अपेक्षाओं, उम्मीदों और सम्भावनाओं की...... बस कही से खुशियों की खबरे मिलती रहे ताकि सपने ना लहुलूहान हो ना जीवन में दर्शन या तर्क खोजना ना पड़े...........बस इन्ही कुछ दुआओं के साथ नए साल का स्वागत और सबको ढेर सारी प्यार भरी शुभकामनाएं............

लिख सकूँ तो— प्यार लिखना चाहता हूँ,

लिख सकूँ तो— प्यार लिखना चाहता हूँ, ठीक आदमजात सा बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ। थे कभी जो सत्य, अब केवल कहानी नर्मदा की धार सी निर्मल रवानी, पारदर्शी नेह की क्या बात करिए- किस क़दर बेलौस ये दादा भवानी। प्यार के हाथों घटी दर पर बज़ारों, आज बिकना चाहता हूँ। आपदा-से आये ये कैसे चरण हैं ? बनकर पहेली मिले कैसे स्वजन हैं ? मिलो तो उन ठाकुरों से मिलो खुलकर— सतासी की उम्र में भी जो ‘सुमन’ हैं कसौटी हैं वो कि जिसपर- नेह के स्वर ताल यति गति लय परखना चाहता हूँ। -स्व. नईम, देवास..

लेकिन लिख बैठा मैं झुलसे तन

लिखना तो चाहा था टेसूवन बौराए आम, लेकिन लिख बैठा मैं झुलसे तन बदली के घाम। निर्वसना शाखाएँ, पीले पत्ते, तिनके- परखचे उड़े जाते कर्फ्यू वाले दिन के लिखनी तो चाही थी- गंध पवन, वासंती शाम, लेकिन लिख बैठा मैं द्रोह दलन जन के पथ बाम। घाटे के बजट और फागुन दिन चढ़े भाव, हमले पर हमले, पक्षों के बौने बचाव; लिखनी तो चाही जय यात्राएँ, नए तीर्थ धाम, लेकिन लिख गई मुझसे सुविधाएँ- बस्ती बदनाम। -स्व. नईम, देवास..

हम आदिम ख्वाहिश का हिस्सा

हो न सके हम छोटी सी ख्वाहिश का हिस्सा हो न सके हम बदन उधारे बच्चों जैसा गर्मी या बारिश का हिस्सा हुआ न मनुवां किसी गौर की महफिल का गायक साज़िंदा¸ अपने ही मौरूसी घर का रहा हमेशा से कारिंदा दास्तान हो सके न रोचक याकि लोक में प्रचलित किस्सा जीवन जीने की कोशिश में लगा रहा मैं भूखा–प्यासा होना था कविता सा¸ लेकिन हो न सका मैं ढंग की भाषा जनम जनम से होता आया इन–उन की ख्वाहिश का हिस्सा जीवन बांध नहीं पाये हम मंसूबे ही रहे बांधते¸ खुलकर खेल न पाये बचपन यूं ही खिचड़ी रहे रांधते हो न सके जीवन जीने की हम आदिम ख्वाहिश का हिस्सा -स्व. नईम, देवास..
अपनी तो अपने से अनबन ठनी हुई है जाने कबसे! कह सकना है मुश्किल थोड़ा- बिना लगाम नहीं सधता है जैसे घोड़ा। खाली तर्कश, पर प्रत्यंचा तनी हुई है। घर के घर में विकट महाभारत की आंधी- अपने ही कुल देव, देवता लगे हुए हैं लड़वाने में! धर्म चाश्नी में कर्मों की पगे हुए हैं। कर्ण इधर हैं उधर हवा अर्जुन ने बांधी! अपने से अपना विश्वास उठा क्यों जाता- धीमे-धीमे जली जा रही क्यों मनसाई? मिलता नहीं एक से दूजा भाई भाई- चूल्हे का चौके से रहा नहीं अब नाता। इनके हाथ लिए तो उनके हाथों पाँचे बदल रहे हैं क्रमशः अब ढाँचे-दर-ढाँचे -नईम

सही इबादत के मौसम फिर कब आयेंगे?

चिट्ठी पत्री खतो खिताबत के मौसम फिर कब आयेंगे? रब्बा जाने सही इबादत के मौसम फिर कब आयेंगे? चेहरे झुलस गये कौमों के लू लपटों में गंध चिरायंध की आती छपती रपटों में युद्ध क्षेत्र से क्या कम है यह मुल्क हमारा इससे बदतर किसी कयामत के मौसम फिर कब आयेंगे? हवालात-सी रातें दिन कारागारों से रक्षक घिरे हुए चोरों से बटमारों से बंद पड़ी इजलास जमानत के मौसम फिर कब आयेंगे ? ब्याह सगाई विछोह मिलन के अवसर चूके फसलें चरे जा रहे पशु हम मात्र बिजूके लगा अंगूठा कटवा बैठे नाम खेत से जीने से भी बड़ी शहादत के मौसम फिर कब आयेंगे? -नईम
एक चेहरा है, ख़यालों में कहीं खोया हुआ होकर भी ज्यूं वो हाज़िर नहीं होता नक्श में सुलगती है यादों की अगरबत्ती धुआं आंखों से छलककर होंठों पे कहीं ठहर जाता है... Chandi Dutt Shukla मेरे लिए आज सुबह लिखी ये पंक्तियाँ
‎'' जब तक इस धरती पर आदमी जीवित रहेगा, ईश्वर कभी यहां आने का जोखिम नहीं उठाएगा. '' [ निर्मल वर्मा, अपनी डायरी में ]

परखने में कोई अपना नहीं रहता

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता
दिसम्बर का आखरी हफ्ता,उस रोज़ रात और भोर में फर्क करना मुश्किल हो रहा था,सड़क पर कुछ लोग,अँधेरे में खम्बों पर लगी लाइट्स,और कोहरे को चीर कर आती गाड़ियों की रौशनी से मुझे उस सुनसान सी सड़क पर चलने का हौसला मिल रहा था,शायद बर्फ पड़ने की बात सुबह ही अखबारों में पढ़ी थी,कुछ ने लिखा था पेड़ों की पत्तियों और पानी पर बर्फ की एक पतली वरक जम जायगी ,पर इन सब से बेखबर आधी रात को तुम्हारे बुलाने पर आया था,काफी देर इंतज़ार के बाद, उस पेड़ के पत्तों की ओर निगाह गयी, जिसके नीचे मै खड़ा हो कर तुम्हारे घर की ओर बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहा था,उसमे किसी भी तरह की हरक़त नही हो रही थी,हाथों से छुआ, तो बर्फ उँगलियों पे आ जमी,उस बर्फ को तो उँगलियों से अलग कर दिया, पर आज भी तुम्हारा वो आखरी इंतज़ार याद आता है,पत्तियों पर तो बर्फ की वजह से उन्हें सांस लेने में दिक्कत आई, पर मुझे, तुम्हारे न आने से बहुत तकलीफ हुई.!

....वहां कोई नहीं रहता इस नाम का...जिस पते से उम्र भर खत आते रहे जिन्‍़दगी के...

....वहां कोई नहीं रहता इस नाम का...जिस पते से उम्र भर खत आते रहे जिन्‍़दगी के... दो बार तुम्हारे द्वार आया पर तुम मिले ही नहीं कही तालो में बंद और चाभी भी नहीं....दियो की रोशनी शाम के समय द्वार पर पूरी कोशिश कर रही थी कि पूरा दालान झक्क से रोशन कर दे पर कहा उस दिए की ताकत पर हाँ उसके जज्बे को सलाम करके लौट आया हर बार मै.........एक उम्मीद में कि शायद अगली बार तुम दरवाजे पर मिल जाओ............. ये शाम है बहुत सर्द और तेज हवाओं के नाम, नदी के किनारे से गुजरता हूँ तो पुरे बदन में कपकंपी छूट जाती है, बांसों के झुरमुट के पास से सनसनाते हुए मानो लगता है कि कोई दन से गोलियाँ चला रहा है आवाजों की.....और फ़िर वो पुराना सा बड़ा सा चर्च भी बेहद शांत था आज .....जबकि आज तो वहाँ चहल-पहल होनी थी, पर ये धुंधलाती शाम और ये चारों ओर उठती भाप की दीवारें, सडके जाम है, कान सुन्न हो गए है, रूह काँप रही है, शब्द गले से निकल नहीं रहे, और आँखे पथरा गयी है, बस लग रहा है कि लों यह भी सब गुजर गया..............युही देखते देखते यदि कोई ईश्वर के घर से भी खाली हाथ लौट आये तो.........शायद यही तो हुआ था आज............उन

नए साल के पहले के कुछ डर

बड़े पेड़ों को देखकर खुशी तो होती है पर दुःख सालता है कि पता नहीं क्यों इनके बड़े होने में कितनी सारी चीजे लग गयी और ये अकेले ही अकेले बढ़ते गए ..........बस..........पता नहीं क्यों बड़ा होने की इच्छा ही मर सी गयी है.......... रोज रोज खिडकियां खोलकर थक गया हूँ अब खिडकियां खोलने का पूरा मकसद चाहिए............और देखते देखते साल भी खत्म हो रहा है और नया भी आ ही गया है एकदम मुहाने पर.......... लों सामने आ ही गया वो.............बस यु पहुँच जाएगा एकदम से, फ़िर सब लोगो के बीच धूम मचा देगा.........और सब पागलों की तरह झूमने लगेंगे ..........पर क्या सच में ये इतना नया है क्या सच में सब कुछ बदलेगा या सिर्फ फडफडाते हुए एक नई तारीख फ़िर से इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो जायेगी....... एक केलेंडर के साथ एक नया सच और फ़िर एक नया.........पता नहीं क्यों हवाओं में ठिठुरन सी क्यूँ है आज..... कितने लोगों से मिला हूँ इस पुरे समय में और हाँ- हाँ, तुम भी तो आये थे ........पर क्या बदला मै तो वैसा ही रहा जैसा था मुझे तो समझ नहीं आता पर तुम्हे लगा क्या कुछ................सब कहते है जीवन रोज बदलता है पर मुझे तो किचित भी

अविनाश मिश्रा की एक बेहतरीन कविता........

नदी का दुःख जल नहीं यात्रा है.... Abha Nivsarkar Mondhe nadi ka dukh yatraa kaise ho saktee hai.... Rajesh L Joshi नदी का दुख यात्रा नहीं... यक़ीन न हो तो मेरी आंखो की हिमनद से पूछ देखिये... Maya Mrig नदी का जीवन ही यात्रा है...हर सुख दुख को साथ बहाते हुए....अंतहीन यात्रा Sandip Naik कई बार हममे सब होते हुए भी हम अपनी ही करनी और नियति से जूझते रहते है और शायद यही बात अविनाश कहने की कोशिश कर रहे है..................right Avinash Mishra ...................... Avinash Mishra शुक्रिया सर.... एक नया अर्थ दिया आपने इस पंक्ति को..... Sandip Naik नहीं अवि तुमने बल्कि मेरे कई जाले साफ़ कर दिए यह अदभुत पंक्ति है जो अपने साथ साथ चलने वाली पीड़ा का बयान भी करती है और फ़िर नियति को भी स्वीकारने की चनौती भी देती है और इस सबके बाद हम फ़िर भी दोनों साथ लेकर चलते है क्योकि जीना तो हर हाल में है ही ना..........बस यात्रा और पानी दोनों का दर्द साथ लेकर...................... . Avinash Mishra बस यात्रा और पानी दोनों का दर्द साथ लेकर...................... .क्या कहने....

मनोज पटेल के कुछ अनुवादों के कोट्स

1. कविताएँ लिखते हुए, हथेली पर चीरा लग गया कागज़ से. तकरीबन एक-चौथाई बढ़ा दी इस चीरे ने मेरी जीवन रेखा. (वेरा पावलोवा) 2. मेरी किस्मत जहाजरानी के कारखाने में नहीं बनी फिर भी मैनें समुन्दर के फासले तय किए. (अफजाल अहमद सैयद) 3. क्या सच में तरल थीं सभी धातुएं पहले ? तो क्या गर खरीदी होती कार हमने कुछ पहले दिया होता उन्होंने इसे एक कप में हमें ? (नाओमी शिहाब न्ये) 4. तुम्हारे आने से पहले गद्द्य थी दुनिया कविता तो अब हुई है पैदा. (निज़ार कब्बानी) 5. कालीन पर तुम्हारे पाँव नाक-नक्श हैं कविता के. (निज़ार कब्बानी) 6. मैं मशहूर होना चाहती हूँ वैसे ही जैसे मशहूर होती है गरारी, या एक काज बटन का, इसलिए नहीं कि इन्होनें कर दिया कोई बड़ा काम, बल्कि इसलिए कि वे कभी नहीं चूके उससे जो वे कर सकते थे. (नाओमी शिहाब न्ये) 7. कौन देगा दिलासा मेरी माँ को फिर रोएगा चुपके-चुपके कौन अगर मर गई मैं और अगर कहीं मर गई मैं चटपट तुम्हारे दिल से कौन जुदा करेगा मेरा दिल ? (लीना तिबी) 8. आदमी के ऊंचे उठे सर को सहारा देने की खातिर हमें तलाश है एक रीढ़ की हड्डी की जो रह सके सीधी. (मिरोस्लाव होलुब) 9. ऎसी ही तो है ज़िं
हम जो अभिशापित हैं. हारी हुई लड़ाइयों के साथ खड़े होने को.. हम जूलियस फ्यूचिक हैं.. आखिरी जंग में आखिरी बचे दुश्मन की आखिरी गोली अपने सीने के नाम दर्ज करने को तैयार जीत के पहले मर जाना बुरा तो है.. पर जरूरी भी..
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था व्यक्ति को मै नहीं जानता था हताशा को जानता था इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया मैं हाथ बढ़ाया मेरा हाथ पकड़कर खड़ा हुआ मुझे वह नहीं जानता था हाथ बढ़ाने को जानता था हम दोनों साथ चलें दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे साथ चलने को जानते थे -विनोद शुक्ल- वागर्थ जुलाई -०७ अंक १४४
देखना असल में देख पाना होता तो हम सच में सच देख पाते, पर हम जो देखते है वो सिर्फ देखना ही होता है देखना दिखाना तो कतई नहीं ...फ़िर देखना क्या है ...........???
“Everything tells me that I am about to make a wrong decision, but making mistakes is just part of life. What does the world want of me? Does it want me to take no risks, to go back to where I came from because I didn't have the courage to say "yes" to life?” ― Paulo Coelho

मन की गाँठे

ये कोहरे की एक शाम है सूरज बहुत लजाते हुए दिन भर कुछ ना दे पाने की खता और अपराध बोध में अभी अभी छुपा है, हवाएं अभी भी झूम रही है मानो पुरे वेग से सबको निचोड़ देंगी और फ़िर कोहराम मचाकर दम ले लेंगी, धूप मानो अपना चरित्र ही भूल गयी, दूर तक साय साय है, बेहद घना कोहरा है कही दूर से कोई गुजरता है तो भक् से गाड़ी का तेज बिखर जाता है और फ़िर एक सन्नाटा पसर जाता है कोई नजर नहीं आता इस प्रहर में.......जीवन जैसा हो रहा है यह समय, बिलकुल कुछ समझ नहीं आ रहा, बस आवाजों का शोर है और एक फीट तक भी देख नहीं पा रहा हूँ ना समय को, ना अपने आपको, ना सुन पा रहा हूँ पदचाप को और ना कुछ सूझ रहा है.......यह कैसा समय है यह कैसा चक्र है.... हर तरफ कोहरा है और कही से कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आती, कही से यह कोहरा छंटता नजर नहीं आता......क्या लिखा है और क्या होगा बेहद मायूसी है(मन की गाँठे)
जीवन की इस आपाधापी में इतना पा लिया है कि अब कुछ पाने की इच्छा खत्म हो गयी है बस एक बात सीखी है कि अब किसी बात का पश्चाताप नहीं है जो भी किया है, जो भी कहा, जो भी लिखा, सोचा समझा, गुना, बुना और उसका कोई मलाल नहीं है अब................बस सब कुछ खत्म, सब कुछ ...............जीवन में पश्चाताप करना / रखना कोई हल नहीं है बस जो किया,जैसा किया, ठीक था............समय की मांग थी, परिस्थितियाँ वैसी थी और हालात उन सब के बीच वैसे ही थे जैसे थे बस वो किया जो उचित लगा .......अब कोई पछतावा नहीं है............(एडन बायफ का एक फ्रेंच गीत सुनकर)

प्रशासन पुराण 38

राजधानी से आया बड़ा अधिकारी था जब सारे काम निपट गए थ्री जिले की थ्री स्टार होटल में तो स्थानीय कार्यालय वाले को बुला लिया और दफ्तर पहुंचा, पूछने लगा कितने का स्टाफ है? जी बारह लोग है दस यहाँ है और दो ब्लोक में है, ब्लोक में कौन है, जी एक मेडम है और एक पुरुष है, अच्छा मेडम कौन है और वो ब्लोक में क्यों है उसे जिले में लाओ भाई , जी असल में उनकी अभी शादी नहीं हुई है...... अरे वाह फ़िर तो बताओ वहा का निरीक्षण करवाओ कभी, बल्कि अगले हफ्ते ही प्लान कर लों. जी साहब. अरे यहाँ टाँगे चलते है? जी.......तो आप क्या कर रहे है टाँगे वालो के लिए कोई हितग्राही मूलक योजना है? जी अभी तो नहीं है बनाते है......अरे हाँ ये रेलवे के ट्रेक तकलीफ देते है आज मेरी गाड़ी दो बार रुक गयी क्रोसिंग पर भाई सांसदों और विधायको को कहो कि वे जनभागीदारी से अंडरब्रिज बनवाएं. जी साब,छोटा अधिकारी बोल रहा था....और हाँ वो ब्लोक में कब चलना है.....क्या नाम है उस मेडम का......शादी क्यों नहीं की अभी तक..... जी पता नहीं .....सर वो विभाग को कुछ सामग्री चाहिए थी......हाँ हाँ टाँगे वालो के लिए कुछ योजना बनाओ फ़िर दे देंगे भाई...और वो ब्लोक

गरम रोटी की महक पागल बना देती मुझे- दयानंद पाण्डेय

अदम गोंडवी आज सुबह क्या गए लगता है हिंदी कविता की सुबह का अवसान हो गया।हिंदी कविता में नकली उजाला, नकली अंधेरा, बिंब, प्रतीक, फूल, पत्ती, चिडिया, गौरैया, प्रकृति, पहाड आदि देखने- बटोरने और बेचने वाले तो तमाम मिल जाएंगे पर वह मटमैली दुनिया की बातें बेलागी और बेबाकी के साथ करने वाले अदम को अब कहां पाएंगे? कबीर सा वह बांकपन, धूमिल सा वह मुहावरा, और दुष्यंत सा वह टटकापन सब कुछ एक साथ वह सहेजते थे और लिखते थे – गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे/पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें। अब कौन लिखेगा- जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे। या फिर काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में/ उतरा है रामराज विधायक निवास में। या फिर, जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में/ परधान बन के आ गए अगली कतार में। गुज़रे सोमवार जब वह आए तभी उन की हालत देख कर अंदाज़ा हो गया था कि बचना उन का नमुमकिन है। तो भी इतनी जल्दी गुज़र जाएंगे हमारे बीच से वह यह अंदाज़ा नहीं था।वह तो कहते थे यूं समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी गज़ल में। और जो वह एशियाई हुस्न की तसवीर लिए अपनी गज़लों में घू

अदम गोंडवी की ग़ज़लें

अदम गोंडवी की ग़ज़लें............हिन्दुस्तान ने एक शायर ही नहीं खोया बल्कि एक मुकम्मिल इंसान खो दिया है जो लोगो से लोगो की बात कराता था.............और बस इसी तरह से लड़ते भिडते और मौत से भी जीत गया वो........किसी से मदद की गुहार नहीं लगाई और किसी का मोहताज भी नहीं रहा धन्य है ऐसे अदम गोंडवी और धन्य है उनकी धारदार लेखनी.........नमन......... काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास मे उतरा है रामराज विधायक निवास में पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में जनता के पास एक ही चारा है बगावत यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में 000 मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की? इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया सेक्स की रंगीनियाँ या

श्रद्धांजलि अदम साहब को

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में! पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास में!! जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे (अदम गोंडवी जी को विनम्र श्रृद्धांजलि।)
Yeh Hosla Kaise Juke, Yeh Aarzoo Kaise Ruke - 2 Manzil Muskil to kya, Bundla Sahil to kya, Tanha Ye Dil to Kya Ho Hooo Raah Pe Kante Bikhre agar, Uspe to phir bhi chalna hi hai, Saam Chhupale Suraj magar, Raat ko ek din Dhalana hi hai, Rut ye tal jayegi, Himmat rang layegi, Subha phir aayegi Hoooo Yeh Hosla Kaise Juke, Yeh Aarzoo Kaise Ruke - 2 Hogi hame to rehmat ada, Dhup kategi saaye tale, Apni khuda se hai ye Dua, Manzil lagale humko gale Zurrat so baar rahe, Uncha Ikraar rahe, Zinda har pyar rahe Hoooo Yeh Hosla Kaise Juke, Yeh Aarzoo Kaise Ruke

वह नहीं यह होने के अर्थ पर विचार करता रहता हूँ

"यह जो मैं लिखता रहता था, अचानक लगा, हास्यास्पद था। मैं शब्द नहीं पा सका। मैंने संसार को देखा विशालकाय, स्पंदित, पत्थर के जंगले पर अपनी कुहनियाँ टिकाये हुए। नदियाँ बहती रहीं, पाल बादल को चीरता रहा, सूर्यास्त गश खा गये।" - चेस्लाव मीलोष। और अक्सर बारम्बार अपनी बुझती हुई सिगरेट के साथ लाल मदिरा पीते हुए वह नहीं यह होने के अर्थ पर विचार करता रहता हूँ ..... -मिवोश (अनु: चंद्रकांत देवताले)
प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है। नये परिदों को उडने में वक्त तो लगता है। जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था । लम्बी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है। प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है। गाठं अगर लग जाय तो फ़िर रिशते हो या दूरी लाख करे कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है। प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है। नये परिदों को उडने में वक्त तो लगता है। हमने इलाजे जख्में दिल में ढूंढ लिया लेकिन गहरे जख्मों को भरने मे वक्त तो लगता है। प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है। नये परिदों को उडने में वक्त तो लगता है।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम हम बोलने की आजादी का मतलब समझते हैं टुटपुंजिया नौकरी के लिये आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं मगर हम क्या कर सकते हैं अगर बेरोज़गारी अन्याय से तेज़ दर से बढ़ रही है हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के ख़तरे समझते हैं हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं हम समझते हैं हम क्यों बच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं। गोरख पाण्डेय

Satya Patel की जय हो......

बांदा के बुद्धिजीवियों कलाप्रेमियो ने शबरी नाम से एक संस्था का गठन किया है. यह समिति साहित्य, संस्कृति,समाज व राजनीति में जनता के गरीब व वंचित हिस्सों की दावेदारी और संघर्षो का बढ़ावा देने का काम करती है.यह समिति खास तौर पर ग्रामीण इलाको में रहने वाले खेती-किसानी व मजदूरी पर निर्भर जनसमुदाय के बीच लोकतान्त्रिक समतामूलक धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्णय के लिए प्रयासरत व्यक्तियों व समूहों के साथ अंतर्क्रिया का मंच प्रदान करती है.यह समिति महिलाओ बाल श्रमिको और वरिष्ट नागरिको के प्रति होने वाले अन्यायों का प्रतिकार और उनके स्वाभिमान पूर्वक जीने के लिए वाजिब संघर्षो का समर्थन करती है.यह समिति प्रतिवर्ष महान कथाकार प्रेमचंद की स्मृति में कथा लेखन के लिए रूपए 15000/ का प्रतिवर्ष सम्मान देती है. यह समिति अपने उपरोक्त अभियान के लिए किसी तरह की कोई सरकारी मदद नहीं लेती है. प्रतिवर्ष समिति अपनी स्थानीय जनता की मदद से ही सारे आयोजन करती है. इस वर्ष यह पुरस्कार इंदौर के युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल को दिया गया है, बधाई हो सत्तू महाराज तुम्हे भी और तुम्हारे कहानी संग्रह "लाल छींट वाले लुगडी का स