ये कोहरे की एक शाम है सूरज बहुत लजाते हुए दिन भर कुछ ना दे पाने की खता और अपराध बोध में अभी अभी छुपा है, हवाएं अभी भी झूम रही है मानो पुरे वेग से सबको निचोड़ देंगी और फ़िर कोहराम मचाकर दम ले लेंगी, धूप मानो अपना चरित्र ही भूल गयी, दूर तक साय साय है, बेहद घना कोहरा है कही दूर से कोई गुजरता है तो भक् से गाड़ी का तेज बिखर जाता है और फ़िर एक सन्नाटा पसर जाता है कोई नजर नहीं आता इस प्रहर में.......जीवन जैसा हो रहा है यह समय, बिलकुल कुछ समझ नहीं आ रहा, बस आवाजों का शोर है और एक फीट तक भी देख नहीं पा रहा हूँ ना समय को, ना अपने आपको, ना सुन पा रहा हूँ पदचाप को और ना कुछ सूझ रहा है.......यह कैसा समय है यह कैसा चक्र है.... हर तरफ कोहरा है और कही से कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आती, कही से यह कोहरा छंटता नजर नहीं आता......क्या लिखा है और क्या होगा बेहद मायूसी है(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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