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....वहां कोई नहीं रहता इस नाम का...जिस पते से उम्र भर खत आते रहे जिन्‍़दगी के...



....वहां कोई नहीं रहता इस नाम का...जिस पते से उम्र भर खत आते रहे जिन्‍़दगी के...
दो बार तुम्हारे द्वार आया पर तुम मिले ही नहीं कही तालो में बंद और चाभी भी नहीं....दियो की रोशनी शाम के समय द्वार पर पूरी कोशिश कर रही थी कि पूरा दालान झक्क से रोशन कर दे पर कहा उस दिए की ताकत पर हाँ उसके जज्बे को सलाम करके लौट आया हर बार मै.........एक उम्मीद में कि शायद अगली बार तुम दरवाजे पर मिल जाओ.............
ये शाम है बहुत सर्द और तेज हवाओं के नाम, नदी के किनारे से गुजरता हूँ तो पुरे बदन में कपकंपी छूट जाती है, बांसों के झुरमुट के पास से सनसनाते हुए मानो लगता है कि कोई दन से गोलियाँ चला रहा है आवाजों की.....और फ़िर वो पुराना सा बड़ा सा चर्च भी बेहद शांत था आज .....जबकि आज तो वहाँ चहल-पहल होनी थी, पर ये धुंधलाती शाम और ये चारों ओर उठती भाप की दीवारें, सडके जाम है, कान सुन्न हो गए है, रूह काँप रही है, शब्द गले से निकल नहीं रहे, और आँखे पथरा गयी है, बस लग रहा है कि लों यह भी सब गुजर गया..............युही देखते देखते

यदि कोई ईश्वर के घर से भी खाली हाथ लौट आये तो.........शायद यही तो हुआ था आज............उन बांसों के झुरमुट में बहुत देर तक इंतज़ार करता रहा कि कुछ चमत्कार ही हो जाए...तुम दिख जाओ भले ही एक क्षण...बहुत देर तक सूरज की हल्की धूप कुलबुलाती रही- फ़िर तपिश भी खत्म हो गयी, धीरे धीरे शाम का सन्नाटा उस बांस के झुरमुट में पसर गया, तीन चार नन्हे दिए किसी भले से आदमी ने वहाँ लाकर लगा दिए........(ये नहीं कहूँगा कि जला दिए, जलने से सब खत्म हो जाता है पर लगाने से तो कुछ लग भी जाता है) बस फ़िर दूर से देर तक उन दियो की टिपटिपाती लौ को देखता रहा और महसूसता रहा अपने अंदर उस रोशन करने की तपस्या को और फ़िर पसीने से भीग गया एकदम.......बस फ़िर इतनी सर्द हवाओं के बीच एक चौराहे पर आकर खडा हूँ कि कहा जाऊ अब....

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