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Showing posts from July, 2013

वस्तुएँ और चीजें जिन्होंने मुझे जीना सिखाया और मेरा साथ दिया भाग I

कुछ चीजें कालातीत नहीं होती और वे जल्दी ही छिन्न-भिन्न हो जाती है. कितने दिनों तक इसे इस्तेमाल ही नहीं किया था कि मोहित ने यह गिफ्ट दिया है जब वो भोपाल आया था. बहुत दिनों तक सम्हाल कर रखा पैक मे फ़िर जब मोहित ने फ़ोर्स किया तो उपयोग करना शुरू किया और फ़िर लगातार घिसते रहा. पर कल तो एकदम जवाब दे दिया इसने और कुछ रूपये जो बमुशिकल माह के अंत मे आम तौर पर जैसे कि पड़े रहते है, गिर गये बस फ़िर क्या था, मैंने सोचा अब इसे तिलांजलि देना ही होगी. बस आज इसे आख़िरी बार इस्तेमाल करके यहाँ श्रद्धांजलि स्वरुप तस्वीर लगा रहा हूँ. बहुत साथ दिया इस बटुवे ने बहुत हिम्मत रखी- मेरी सफर मे, दोस्तों मे और कई ऐसे मौकों पर लाज रखी- जब यह बिलकुल खाली था. मुफलिसी का एहसास नहीं होने दिया और हमेशा मैंने अपने आपको बिल गेट्स से कमतर नहीं समझा. अब समय आ गया है कि इसे अलविदा कहकर अपनी धरोहर मे सुरक्षित रख दूँ जहाँ यह एकदम सारी मेरी इस्तेमाल की हुई चीजों के साथ जगह पायेगा और विश्राम पायेगा दौड़ धूप से, सर्दी-गर्मी से और बरसात से और सबसे ज्यादा अब इसे मेरी चिंता करने की जरुरत नहीं कि वो खाली है या भरा ह

नया राग गाने को तत्पर है ये भीड़ इस 'सीटी ऑफ क्राउड' मे........लखनऊ मे पन्द्रह दिन

यह अवध की गर्मी भरा एक दिन है और मै मुकेश भार्गव के साथ तफरी करने निकला हूँ काम और थोड़ा सा घूमना फिरना बस मजा आ गया छोटा-बड़ा इमामबाड़ा और लखनऊ के मिजाज को देखा परखा, बस भीड़ के अलावा कुछ नजर नहीं आया. लखनऊ एक अजीब शहर है यह मुझे नवाबों के श हर से ज्यादा "सीटी ऑफ क्राउड" लगा. दरअसल मे भोपाल जैसे सुन्दर शहर को देखने और मह्सूसने के बाद भीड़ और अराजकता से घबराहट होने लगती है. पर शहर की शान ये खूबसूरत जगहें बहुत ही शांत और सुन्दर है. इतना वैभव और मुग़ल शासकों की परम्परा वाले ये दोनों बाड़े अपने समय की दास्ताँ कहते नहीं अघाते. नवाब वाजिद अली शाह की तस्वीर देखकर लगा कि समय लौट रहा है अपने वजूद के साथ ...... अच्छा लगता है अपने इतिहास को देखना संवारना और एक धरोहर के रूप मे देखना. सच मे ये मोंयुमेंट्स नहीं होते तो कहाँ से सीखते है हम वास्तुकला और वैभव का यश गान? मजा आ गया अब धीरे धीरे शहर की तासीर समझ आने लगी है......इंशा अल्लाह सब ठीक हो जाएगा इन्ही दुआओं के साथ आप भी लुत्फ़ उठाईये इन खूबसूरत नजारों का साथ ही एक सवाल भी जो कचोटता रहा बारम्बार कि दलित क्या है...

"संसार के एक एकांत मे बैठकर बहुत डरते हुए"

आश्वस्त होता हूँ बार - बार जब भी बाहर जाता हूँ जेब मे हाथ डालकर देख लेता हूँ कि चाभी रखी है ना जेब मे, और अपनी उँगलियों मे घुमाकर छल्ला तसल्ली देता हूँ अपने आप को कि सब कुछ सुरक्षित है. अब डर लगता है पता नही कहाँ गिर जाये भरोसा और ईमान कहाँ छूट जाये सुकून और शान्ति किसके साथ चल दूँ एक भीड़ मे अनियंत्रित सा किसके हाथों चढ जाऊं बलि मै जानता नहीं किसके  हाथों कठपुतली बनकर नाचने लगूं उन्मादियों की तरह. सब कुछ तो अनिश्चित सा होने लगा है इन दिनों यह उम्र का तकाजा है या स्वाभाविक इस घोर कलुषित होते जा रहे समय मे बार-बार याद आता है चलते समय कि दरवाजा ठीक से बंद किया था या नहीं कुंडी चढाई थी और बाहर वाला दरवाजा ठेला था कि नहीं आते समय कोई देख तो नहीं रहा था ना मुझे कि निगाह पलटते ही टूट पड़े सूने घर पर और लूट के जाये ज़िंदगी भर  का चैन औ सुकून कैसे जियूँगा इन आख़िरी दिनों मे. वैसे ही समेटा नहीं कुछ जीवन मे अलमस्त फ़कीर की भाँती तो जीता रहा दवाओं के भरोसे और दुआओं पर ज्यादा पर अब हिम्मत नहीं है कुछ खोने और पाने की. बस हर बार निकलता हूँ तो बार-बार आश्वस्त होना चाहता हूँ कि चाभी सुरक्षित है जेब मे आप

33 रूपये मे अमीरी का जश्न जय मौन मोहन और जय मोंटेक

इन दिनों बाहर हूँ घर से और एक बड़े शहर मे रह रहा हूँ बस आश्वस्ति यह है कि ३३ रूपये रोज के हिसाब से मेरे पास ९९०/- नगद पड़े है और बल्कि ज्यादा ही होंगे गिने नहीं है. यदि और कुछ कम- ज्यादा पड़े तो सरकार से या बैंक से लोन लेकर चला लूंगा, और रहा सवाल मजदूरी का तो वो मनरेगा मे मिल ही जायेगी और ठीक समय पर मजदूरी का भुगतान भी हो जाएगा, एक रूपये किलो गेंहूँ और दो रूपये किलो चावल ......यार सोच रहा हूँ कि इस तरह से बचत करके मै खासा अमीर हो जाउंगा, आपमे से किसी का स्विस बैंक मे अकाउंट है क्या और मेरा अकाउंट इंट्रोड्यूस करवा देंगे? क्या है कि साला, खानदान मे किसी का स्विस बैंक मे अकाउंट नहीं है. मै जिंदगी भर तो कुछ कर नहीं पाया, अब कम से कम वहाँ एक बचत खाता खुलवाकर कम से कम अपने ऊपर लगे मुफ्तखोर टाईप वाले सारे पाप तो धो ही सकता हूँ और अपने पर लगे तमाम नाकारा तरह के लांछन दूर कर सकता हूँ. और गुरु इसी तरह से रूपया बचता रहा तो अल्ला कसम एक दिन बिल गेट्स मिरांडा फाउन्डेशन जैसी बड़ी दूकान खोल लूंगा और फ़िर सरकारों को नचाऊँगा कि मै ग्रांट दे सकता हूँ,  क्या साला ये ठेका अजीम प्रेमजी या रतन टाटा ने ही ले रखा

क्या है हमारे पास सिर्फ आज.....

जीवन के सबसे निराश दिनों मे क्या किया जाये, जब सारी आस्थाएं खत्म हो जाने लगे, अपने आप पर शक होने लगे और मंथन करने से कुछ भी हासिल ना हो, लगातार मिलती निराशा और अपने लोग भी आपसे दूर होने लगे तो क्या किया जाये. दोस्त भी आपसे कन्नी काटने  लगे और वो लोग जिन्हें आपने पाल-पोसकर बड़ा किया था वो भी मुँह चिढाने लगे तो क्या सब कुछ खत्म कर लें? बड़ा मुश्किल सवाल है पर क्या निराश हुआ जाये? समझ नहीं आ रहा था फ़िर लगा कि इस सबके बावजूद एक शख्स आपके पास हमेशा रहता है जिसे सब कुछ पता है, जिसे सब कुछ सहना है और देखना भुगतना है, यही वो शख्स है जिसे खुश रखने के लिए आपको सबसे ज्यादा मेहनत करना पडती है. इस कठिनतम दौर मे अपने अंदर के उस व्यक्तित्व को ज़िंदा रखना बहुत जरूरी है जो लगातार आपके साथ है उसे लगातार खुश रखने का प्रयास करना होगा. इसका मतलब हमारे अंदर  एक और शख्स है जो हमेशा देखता गुनता और सुनता रहता है. क्या करें कि इस अपने वजूद को खुश रखा जाये. मै इसी दौर से गुजरा हूँ बस अपनी आस्था को मैंने बनाए रखा और अपने इस वजूद को ज़िंदा रखने के लिए मैंने वो सब किया जो मुझे अच्छा लगता है, अपने आपको खुश रखने का प्र

अरे मर गया देश ज़िंदा रह गये तुम..........सन्दर्भ बिहार मिड डे मील कांड

अरे मर गया देश ज़िंदा रह गये तुम..........सन्दर्भ बिहार मिड डे मील कांड बहुत दुखी हूँ आज, इसलिए नहीं कि बच्चे मर गये इसलिए कि इन सबने और मैंने भी उन बच्चो को मार डाला. देश मे भोजन का अधिकार का एक बड़ा अभियान चल रहा है कई देशी विदेशी संस्थाओं के रूपयों से. हमारे सुप्रीम कोर्ट मे दो जज हर्ष मंदर और एन सी सक्सेना सालों से जमे बैठे है कि कैसे लोगों की गरीबी भूख को मिटाया जाये, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारा जाये, इन दों को सहयोग देने के लिए हर राज्य मे सलाहकार है. मेरा सीधा सवाल है कि ये सब लोग क्या कर रहे है? सिवाय अंतरिम आदेश निकलवाने के, आंकड़े बाजी करने और अपनी व्यक्तिगत छबि बनाने के और हर्ष मंदर तो सिवाय कॉलम लिखने के क्या कर रहे है ? क्यों ना इन सबके कार्य और इतने वर्षों के खर्च लेखा जोखा लिया जाकर इनके नियुक्तियां भंग की जाये? सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान लेते हुए इनसे पूछे कि इनका इस तरह की व्यवस्थाओं को सुधारने मे क्या योगदान है और यदि ये सिर्फ सर्वे, आंकड़ेबाजी, आलेख, शोध पत्र, टीवी पर लाईव बहस (जिसका पारिश्रमिक भी मिलता है) एनजीओ और सब वही गोलमाल कर रहे है तो इ

मिल्खा सिंह -एक जीवित किवदंती की अप्रतिम गाथा

यह एक    त्रासदी की कथा है जो सिर्फ ना मात्र विश्व के एक बड़े भू भाग ने झेली है बल्कि उसके दंश अभी भी यहाँ - वहाँ देखने सुनने को मिल जाते है. एशिया के एक बड़े शक्तिशाली मुल्क का दो हिस्सों में बंटना और फिर उस त्रासदी के होने की पीड़ा को समुदाय विशेष ने भुगतना और इस सबसे ज्यादा इस विस्थापित समुदायों की भावना और हूनर को अपने वजूद के लिए स्थापित करने की कहानी भारत पाकिस्तान जैसे दोनों मुल्कों में भरी पडी ह ै. बिरले होते है जिन्हें यश मिलता है और उनकी कीर्ति पताकाएं दूर - दूर तक पहुँचती है. दर्द सिर्फ यह नहीं है कि विस्थापन या अपनों से बिछड़ने की पीड़ा यहाँ दर्ज है, यहाँ दर्ज है अपनों को अपनी आँखों के सामने मरता देखने की , यह देखने की सब कुछ होने के बावजूद भी कुछ ना कर पाने की बेबसी है और इस सबमे एक पिता का चीत्कार है भाग मिल्खा भाग………  हिन्दी फिल्मों   का परिदृश्य इन दिनों बहुत सुलझा हुआ है और अब निर्देशकों को यह अच्छे से समझ आ गया है कि प्रेम मोहब्बत, ह्त्या, सुपारी नायकों का ज़माना चला गया है अब यहाँ हकीकत से जुडी फ़िल्में ही चलेंगी चाहे वो राँझना हो, लू
Nai dunia 29 June 2013

Jansatta 9 July 2013

Two Faces of Same Coin

And yes I agree with Sandip Naik, which in any case I always does, - Girish Sharma on Lootera

This is the movie which can simply be termed as a sonnet on celluloid. It wont be an exaggeration if i term it as mozarts symphony. And yes i agree with sandip naik, which in any case i always does, when he says you ought to have lots of patience while watching this movie. The directors command is palpable in each and every frame. After coming out of the spell, which does takes a lots of time..... 142 mins is the running time, i am wondering .... Is she the same sonakshi sinha of dabang fame and is he the same ranveer singh of band baja baraat fame. Definitely hours must have gone into finalizing the cast for this movie. Old world charm has been created by the master with such an ease and elan, that you are simply lost in the maze of emotions. And then refuse to come out even when the lights are switched on. This film makes you realise the power of love, sacrifice, and the seamless thread which bind all the human beings. Nature is on for full visual display in this movi

अनुपम मिश्र के तालाब हर समस्या का समाधान कतई नहीं है

पिछले दिनों अनुपम  मिश्र जी को सुना  ​उनका पानी बचाने का अभियान, राजस्थान के तालाबों पर काम समझा और "आज भी खरे है तालाब" जैसी किताब को भी पढ़ा है दर्जनों बार सन्दर्भ के रूप में इसे इस्तेमाल भी किया है.  पर एक बात मुझे समझ नहीं आती कि अनुपम जी क्यों राजस्थान के जैसलमेर के माडल को सारे देश पर लादना चाहते है? जैसलमेर की परिस्थितयां चार सौ साल पहले भी देश के बाकी हिस्सों से अलग थी और आज भी बिलकुल अलग है. तालाब बनाना पानी की समस्या का स्थाई और सामान्य   हल नहीं है यह बात हमें गाँठ लेनी चाहिये. आज पानी की जरूरतें ना मात्र बदली है बल्कि पानी बचाने के नए तरीकों पर भी खुलकर बात करनी होगी, और मेरी समझ में वरिष्ठता को और गांधीवादी समर्पण को छोड़ दे तो हमें अपने तईं पानी बचाने के नए माडल आधुनिक जरूरतों के हिसाब से तय करना होंगे, अब समय बदल गया है, खेती के लिए जमीन नहीं बची है, रहने के लिए आशियाने नहीं बन रहे, रेल और सडकों का जाल बुना जा रहा है, हर जगह फोर  लेन -  सिक्स लेन   का प्रचलन बढ़ा है जो कि समय की मांग भी है और जायज भी है . कहाँ है तालाबों के लिए जगह, बेहतर होगा कि हम अतीत  के ग

"​लूटेरा" एक नायाब फिल्म है जिसे बाबा नागार्जुन की कविता और ओ'हेनरी की कहानी ने अप्रतिम बना दिया है.

​"​लूटेरा" एक नायाब फिल्म है जिसे बाबा नागार्जुन की कविता और ओ'हेनरी की कहानी ने अप्रतिम बना दिया है.  कई दिनोँ तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनोँ तक कानी कुतिया ​सो​ई उसके पास, कई दिनोँ तक लगी भीत पर छिपकलियोँ की गश्त, कई दिनोँ तक चूहोँ की भी हालत रही शिकस्त । दाने आए घर के अंदर कई दिनोँ के बाद, धुंआ उठा आंगन से ऊपर कई दिनोँ के बाद, चमक उठी घर भर की आंखेँ कई दिनोँ के बाद, कौए ने खुजलाई पांखेँ कई दिनोँ के बाद । -बाबा नागार्जुन बस थोड़ा धीरज चाहिए क्योकि स्पीड काफी धीमी और बहुत कम कलाकार है . पर सोनाक्षी और रणधीर के अभिनय ने इस फिल्म को एक ऐसा विस्तार दिया है कि यह फिल्म ना चाहते हुए भी आपके मस्तिष्क में लम्बे समय तक बनी रहेगी . डलहौजी की खूबसूरत वादियाँ और  जमींदारी प्रथा, बंगाली संस्कृति और परम्पराएं, अपराध और छोटे कस्बों में पुलिस का रोल, ​प्रेम में समर्पण,  और फिर सबसे ज्यादा एक गति जो पूरी  फिल्म में इतनी धीमी है मानो हम कही किसी कोने में अपनी छाती पकडे धैर्य और कौतुक से आगे के घटनाक्रम को महसूस करना चाहते है और जिसे अंग्रेजी में एंटी सिपेशन कहते

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ - मज़ाज

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ  दिल मे एक शोला भड़क उठा है आख़िर क्या करूँ मेरा पैमाना छलक उठा है आख़िर क्या करूँ ज़ख़्म सीने का महक उठा है आख़िर क्या करूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने सैकड़ों चन्गेज़-ओ-नादिर हैं नज़र के सामने सैकड़ों सुल्तान जाबर हैं नज़र के सामने ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ले के इक चन्गेज़ के हाथों से ख़न्जर तोड़ दूँ ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ बढ़ के इस इन्दर-सभा का साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ इस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ जी में आता है ये मुर्दा चाँद-तारे नोच लूँ इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ मु

समर्थ चौधरी - सच में उसमे बहुत हिम्मत है, उसके जज्बे को सलाम.

Needs urgent support from various Associations, Clubs, Individuals, Media and Trusts for the young enthusiastic youth of Dewas who lost his both the legs in an accident held on 20 June 2013. He is admitted in Bombay Hospital Indore and going through surgeries, his condition is very critical. Friends, I and his family members are collecting donation from all possible ways,. It will be a great help if any one of you could also contribute and support this young boy of 19 yrs old and his family.  कल बाम्बे हास्पिटल इंदौर में समर्थ चौधरी को देखने गया था समर्थ इंदौर में पढ़ रहा है २० जून को इंदौर से देवास आते समय ट्रेन में उतरने की हडबडी में उसके दोनों पाँव कट गए और अभी हालत बहुत खराब है. पारिवारिक स्थिति ठीक नहीं है उसके दोस्त मदद कर रहे है चन्दा जमा कर रहे है अस्पताल प्रबंधन ने कुल खर्च अभी चार लाख का बताया है जो बढकर सात लाख तक भी पहुँच सकता है. युवा समर्थ अब अपाहिज हो गया है जो बेहद दुखद है हालांकि जयपुर फुट और आदि विकल्प मौजूद है पर तब तक समय लगेगा अभी तो उसे इलाज दवाईयां और कई प्रका