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Showing posts from June, 2010
इस उड़ान पर अब शर्निन्दा, मैं भी हूँ और तू भी है आसमान से कटा परिंदा, मैं भी हूँ और तू भी है छूट गयी रस्ते में जीने मरने की सारी रस्में अपने अपने हाल पे जिन्दा मैं भी हूँ और तू भी है

नए ज़माने की कजरी

इन दीदाहवाई घटाओं की कोई दरोगा रबड़ी क्यूँ नहीं घोंट देता? दिल निचोड़े देती हैं. हमारे सब यारों को रोजगार ने इधर उधर कर दिया जानो तकिये की रुई बखेर दी. वरुन हीरो बनने दुबैया उड़ गए और निखिल ने रेडियो पे गाने बजाने की लिए पुने की बस पकड़ी. दीपक मुनिराजू जंगली हिमाले पर जाने को सामान बांधे बैठे हैं. जर्मनी को शशांक का हवाई जहाज़ एक टांग पर खड़ा हैं. साँची की रवानगी दिल्ली की और हैं, इस दिल्ली पर बजर गिरें. ब्रिंदा रूठ गयी और बनारसी बाबू आरम्भ मुंह चढ़ाये चढ़ाये फिरते हैं. दीपक गर्ग अपने आईवरी टावर की किवारियां ओंट खुदा जाने कौन सी खिचड़ी पकाने में मशगूल हैं. रुचिरा ने ध्यान लगा कर जोगनियाँ का भेष ले लिया और बंगाली मोशाय अभिसेक हेरोइन ढूँढने को मारे मारे भटकते हैं. हाय! हमारी तो महफ़िल ही उजड़ गयी. अब किसके मुंह लगे और किससे तमाम रात बहस करें. किसके गले में बांह डाल कनबतियां करें और हँस हँस के लोट-पोट हो. किसकी छाती पर मूंग दले और किस पर दिखाए तेवर. निखिल के बिना अब कौन उठाये हमारे नखरे और सहे नाज़ुकमिजाजी. चाय के कप औंधे पड़े हैं और चौराहे से दौड़ दौड़ कर व्हिस्की लाने का कोई सबब नहीं. म

जग से नाता छूटल हो

कौन ठगवा नगरिया लूटल हो चंदन काठ के बनल खटोला ता पर दुलहिन सूतल हो उठो सखी री माँग संवारो दुलहा मो से रूठल हो आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा नैनन अंसुवा टूटल हो चार जाने मिल खाट उठाइन चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो कहत कबीर सुनो भाई साधो जग से नाता छूटल हो