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Showing posts from April, 2015

Posts of 30 April 15

1. जिस अंदाज में राहुल यात्रा कर रहे है , मोदी पर आक्रमण कर रहे है , किसानो से मिल रहे है - इससे दो संभावनाएं है 1- या तो अगले चुनावों में 440 सीट कांग्रेस को मिलेगी या 2- ये 44 सीटें भी साफ़ हो जाएंगी।  —  feeling confused. 2. Sandip Naik  का कहानी संग्रह मैं तीन महीने पहले पढ़ चुका था, कुछ कहानियां बाकी थी...कल ट्रेन में 'उत्कल एक्सप्रेस' और 'अनहद गरजे' भी पढ़ी ....संदीप मज़ेदार किस्सागोह हैं....उनकी कहानियां आपको मालवा की खुशबू भी महसूस करवाएंगी और अपने साथ बहा भी ले जाएंगी... उनका लिखने का अंदाज़ भी अलहदा है, ठेट अपना अंदाज़...जो आपको बाकी समकालीन अफशानानिगार से मेल खाता हुआ नहीं लगेगा. अब  पारिजात पारिजात  के हिस्से ''नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ''.!!    3. देवास शहर में सांसद ने आज ग्यारह माह बीत जाने के बाद भी कुछ नहीं किया, ना विकास ना कोई और काम- यहाँ तक कि उनके दर्शन भी दुर्लभ है- जनता की सेवा का क्या करेंगे, यह तो खुदा ही जानता है.........और रहा सवाल पानी जैसी  प्रमुख समस्या का तो फिर एक बार गर्मियां सामने है और इं

Post of 29 April 15 अम्बर की कवितायें एवं अन्य

Umber Ranjana Pandey​   अम्बर मेरा प्रिय कवि है आज उसके कवितायें आम को लेकर है और अदभुत व्यंजना और उपमा का इस्तेमाल करते हुए उसने आम को लेकर एक विषद व्याख्या प्रस्तुत की है. ये चार छोटी कवितायें बेहद संजीदा है और कई अर्थ खोलती है जहां वे बचपन से किशोरावस्था की दहलीज पर एक युवा किस तरह से आसपास की चीजों को देखता समझता है और उसके मन मस्तिष्क में क्या रहता है- खासकरके आकार और बिम्ब को लेकर, वही वह यह भी देखता है कि हमारे समय में इन फलों या आकारों की दुनिया क्या है. आम के विभिन्न प्रकारों को एक विशेषण से समझाते हुए और व्याख्या  करते हुए मुझे पिछले बरस के लखनऊ के दिन याद आ गए जब लखनऊ से हरदोई जाते समय आमों के विशाल बगीचों से गुजरना पड़ता था और वो मादक खुशबू पागल कर देती थी जब तक कि उतर कर दो - चार गुठलियाँ चूस नहीं लेता या झोला भरके ले नही आता घर पर और सारा दिन खाता रहता था, शायद उतने आम मैंने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं खाए थे, आज जब आम का मौसम एक बार फिर बौरा रहा है तो अम्बर की ये कवितायें मुझे उस मीठे स्वप्न में ले जाती है,  जहाँ मुग़ल काल है - किस्से है, कहावतें है, पहेलियाँ है औ

Posts of 28 April 15 घोंघल जो एक गाँव है

घोंघल जो एक गाँव है  घोंघल एक छोटा सा गाँव है खंडवा जिले में और गत अठारह दिनों से लोग पानी में गल रहे है कि अपनी माटी अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे. ये वो लोग है जिन्होंने सरकार बनाई है देश में, प्रदेश में और इस देश के संविधान के हिसाब से सम्मानित नागरिक है और इन्हें भी वही अधिकार प्राप्त है जो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या किसी जिला कलेक्टर को एक नागरिक के नाते होते है पर पांवों का यह रंग हमारी व्यवस्था  पर उगता हुआ नासूर नहीं है? यह दर्शाता नहीं कि कितने भोंथरे हो चुके है हम.......... बेशर्मों की बस्ती में शिवराज सिंह कहते है यह सब नाटक है और सरकार बाँध की ऊँचाई और बढायेगी बजाय कम करने के..........यह पाँव आपका, मेरा या हममे से किसी का भी हो सकता है याद रखिये शिवराज जी , यही वो पाँव है जो अभी पानी में गल रहा है मुख्यमंत्री जी समय आया तो यह चलकर आपकी गद्दी पर पहुंचेगा और फिर इन्हें पांवों तले सत्ताएं उजड़ते हुए हम सबने इतिहास में देखी है.  थोड़ी शर्म बाकी है और कहने को ही सही कि आप जनता के नुमाईंदे हो - एक बार विचार कर लो वरना दिल्ली का हश्र देखा है ना, यही ज

Posts of 26 April 15- फ़िदेल के लिए एक गीत - चे ग्वेवारा

1 - आओ चलें , भोर के उमंग-भरे द्रष्टा , बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने जिसे तुम इतना प्यार करते हो । वचन देते हैं हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे । जब पहले ही धमाके की गूँज से जाग उठेगा सारा जंगल एक क्वाँरे , दहशत-भरे , विस्मय में तब हम होंगे वहाँ , सौम्य अविचलित योद्धाओ , तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से जब चारों दिशाओं में फैल जाएगी तुम्हारी आवाज़ : कृषि-सुधार , न्याय , रोटी , स्वाधीनता , तब वहीं होंगे हम , तुम्हारी बग़ल में , उसी स्वर में बोलते । और अगर हमारी राह में बाधक हो इस्पात तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक कफ़न चाहिए जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ , अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर । और कुछ नहीं । फ़िदेल के लिए एक गीत / चे ग्वेवारा 2 - (नेपाल के भूकंप पर मीडिया की घटिया चाल कि चाँद आज टेढा है)  संवैधानिक वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के बाद भी लोग यहाँ अजीब तरह की बातें कर रहे है तो हमें प्राचीन युग में लौट जाना चाहिए और देखना चाहिए कि हम कितने पीछे चले गए है.......हमारे यहाँ गणेश जी दूध ही

मुफलिसी - 1

कल जब बस में बैठा बंगाली चौराहे से गांधी हाल के लिए बैठा, तो बस वाले कंडक्टर ने दस के नोट को घूरते हुए कहा कि पांच और चाहिए.........किराया बढ़ गया है.  बड़े बेमन से उसने उसे दस का एक नोट पकड़ा दिया, बस वाले ने कहा कि पांच देता हूँ. सारे रास्ते वो कंडक्टर को याद दिलाता रहा कि पांच वापिस कर दें और फिर सोचता रहा कि ये पांच का किराया बढना कितना भारी पडेगा उसपर और वह परेशान हो गया.   फिर उसने तय किया घर से वो भोर में ही निकल लेगा,  पर पांच रूपये रोज के खर्च में और ज्यादा  वह बर्दाश्त नहीं कर सकता, सरकार को खूब गालियाँ दी, सह यात्रियों से झगड़ता रहा, एक बच्चे को उसने थप्पड़ लगा दिया - जो रो रहा था, किराये में बढे हुए पांच रूपये का गुस्सा उसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था.. पांच रूपये का मतलब सरकार जानती है, क्या होता है वह एक दुनिया खरीद सकता है पांच रूपये में रोज !!! अचानक उसने कंडक्टर का कंधा पकड़ कर कहा कि पांच रूपये वापिस क्यों नहीं करते,  मेरे रूपये खाकर बैठे हो, कब से लेकर बैठे हो,  मेरा स्टॉप आ गया है.  कंडक्टर बोला साहब यही उतरना है क्या, मुझे लगा कलेक्टर ऑफिस जाना है, इसलि

Posts of 25 April - मुफलिसी

बंगाली चौराहे से आज बस में सीट मिलने से मैंने तसल्ली से अपने कागज़ बेग से निकाले और तीन चार नत्थी किये दस्तावेजों में से मैंने तीन चार आलपिन निकालकर फेंक दी और सभी दस्तावेजों को एक कर दिया. तभी मैंने देखा कि एक बन्दे ने नीचे झुककर तत्काल तीनों आलपिनें उठा ली और उन तीन आलपिनों को अपने मुंह में दबा लिया. मै देखता रहा आश्चर्य से उसे कि यह क्या करेगा इन फेंकी हुई आलपिनों का ?  वह चुपचाप बडबडा रहा था कि ये तीन आलपिन मेरे कितने काम आयेगी मेरे घर में छोटी की फ्रॉक के बटन टूट गए है कम से कम एक उसमे लग जायेगी , दूसरी फटे हुए बी पी एल कार्ड के पन्नों को जोड़ने में काम आयेगी - ताकि राशन , पेंशन और नगर निगम से मिलने वाले सारे लाभ ले सकूं और एक मै सम्हाल कर रखूंगा  - पता नहीं किस मुसीबत में काम आ जाए और वह बिलकुल हावरा बावरा होकर खुशी से झूमता हुआ गांधी हाल पर बस से उतर गया. # मुफलिसी बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥ [ बड़े छोटों पर स्नेह करते ही हैं. पहाड़ अपने सिरों पर सदैव  घास को धारण किये रहते हैं, अगाध सागर

इस तरह से ख़त्म होता हूँ मै

इस तरह से ख़त्म होता हूँ मै  ******************************* मै आहत हूँ कि अमेजान नदी के एक किनारे,  टेम्स नदी के दूसरे किनारे और गंगा से वोल्गा तक  मनुष्यता नष्ट हो रही है नष्ट हो चुकी है सिन्धु घाटी की सभ्यता  बेबीलोन की सभ्यता और ख़त्म हो गए बिम्ब  भाषा नष्ट हो रही है. आहत नहीं होते सभ्यता के ठेकेदार, जीवन के रक्षक  डपट देते है मुझे हर बार यह कहकर कि धर्म और  मनुष्यता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हूँ अब मै. आकाशगंगाओं के बीच नष्ट हो गए ग्रह, खतरा सूरज और चाँद पर भी बढ़ता जा रहा है,, हवाओं में नष्ट हो रहा है जीवन सभ्यता, भाषा, हवा, पानी और फूलों को नष्ट कर  हम विकसित हो गए है और इन सबके बीच  ख़त्म हो गया मनुष्य, धीरे धीरे. नष्ट तो हमने कर ही दिए थे पेड़ पौधे और बेलें  संसार के सबसे सुन्दर फूल और सबसे कोमल घास,  अब बारी बीजों और कोंपलों की है. मन के बीच, भावनाओं के तंतुओं में उलझा दिया, ख़त्म कर दी नश्वरता और शाश्वतता रिश्तो की,  इस तरह ख़त्म किया यहाँ प्रेम को हमने. - संदीप नाईक. 

कि आ गयी है गर्मी

कि आ गयी है गर्मी  *********************** शाम को मोगरा, कनेर, गुड़हल और सदाबहार के बीच  नीम, गुलमोहर और पीपल भी झूल जाते है  पांवों के नीचे हरी घास और कुछ कंकर  बताते है जीवन का अनहद राग और बीत जाता है दिन  बेंच पर पसरी है सुस्ती, सूखे पत्तों के टीले गर्द के बीच   खामोश हवाओं के झपेटे अब कुछ नहीं कहते अनमने से बच्चे और कुछ उदास बूढ़े घूम रहे है  कुछ औरतें चहलकदमी कर रही है खामोशी से  चिड़ियाएँ सुस्त है, कौवे खामोश, कीड़े मस्त है  बाज अब पेड़ों पर नहीं आते, सुनाई नहीं देता शोर  सुबह टिटहरी उड़ नहीं जाती आसमान में सायास  धूप देरी से झांकती है इस हरियाली के मंजर में  सूरज सब दूर से थककर आता है रोशनी बांटते  पसीने में नहाकर बैठ जाता है इस पार्क के कोने में  दिन निकलता है अक्सर यहाँ कुछ मद्धम सा दोपहर आते आते थक कर चूर हो जाती है यहाँ  दिन देर तक ठहरा होने से थक जाता है रोज ही  एक उबासी लेकर जाता है शाम को उमस देते हुए  रात के अँधेरे में जुगनू नजर नहीं आते अब  मच्छर गाते रहते है हरियाली में भिन भिन सन्नाटे में  सूरज की गति से चंद्रमा की गति ब

Posts of FB 22 April 15

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत जिला परियोजना प्रबंधकों की भर्ती की गयी थी और उसके बाद ये लोग जिलों में ऐसे जम गए है कि हलने का नाम ही नहीं ले रहे है जबकि तबादला नीति के तहत इनके भी तबादले होना थे, फलस्वरूप जिलों में ये स्थानीय अस्पताल प्रशासन के साथ सेटिंग जमाकर बैठे है कि फेविकोल को भी शर्म आ जाए. इंदौर जबलपुर खरगोन या अन्य जगहों पर डी पी एम ऐसे जमे है कि सारा तंत्र खराब कर दिए है.  अब जब राज्य शासन ने तबादले करने का हुकुम दिया है तो क्या प्रमुख सचिव इन फेविकोल के जोड़ों पर ध्यान देंगे और तबादले करके इन्हें यहाँ वहाँ करेंगे  वैसे भी डी पी एम कमाई का बहुत बड़ा साधन है और मेरे देखते देखते प्रदेश में कई डी पी एम करोडपति हो गए है. दूसरा पहलू यह है कि जिन जिलों में मिशन के क्रियान्वयन में बहुत समस्या है जैसे खंडवा, मंदसौर आदि जिलों में वहाँ पुराने अनुभवी डी पी एम् को भेजा जाना चाहिए जो नौ सालों से एक ही जगह पसरकर बैठे है. तीसरा योग्य और निकम्मे लोग अब भर्ती हो रहे है जिन्हें ना स्वास्थ्य की समझ है ना कोई सामान्य समझ उन्हें भी कुछ जिलों  में अभी नियुक्तियां दी गयी है, इसके बदले स

इक न इक तो इबादत में असर आएगा - गुलज़ार

गुलजार साहब आपकी दुआओं का इन्तजार है या यूँ  कहूं कि इन पंक्तियों को तकमील की तलाश है......... "इक न इक दिन हमें जीने का हुनर आएगा, कामयाबी का कहीं पर तो शिखर आएगा, आज इस शहर में पहुंचे है तो रुक जाते है, होंगे रुख्सत, तो नया एक सफ़र आएगा, चिलचिलाहट भरी इस धूप में चलते चलते, जाने कब छांव घनी देता शजर* आएगा, अपना सर सजदे में उस दर पे रख दे, इक न इक तो इबादत में असर आएगा." - गुलज़ार (*वृक्ष)

Naiduniya, Indore Dated 14 April 15

नई दुनिया 14 अप्रैल 15 में सोने के सदुपयोग के बहाने बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा की बात, खासकर बेटियों को स्वालम्बी बनाने की बात।

Posts of 14 April 15

उदास मौसम के खिलाफ कड़ी धूप की प्रतीक्षा। बाबा साहब को जिस तरह से हम सबने इस्तेमाल करने लायक बना लिया है और चौराहों से लेकर संसद जैसे जगहों पर मूर्तियाँ लगा ली है, घरों में (वो भी सिर्फ दलितों के) फोटो लगा लिए है, और इसके बरक्स जो आंबेडकर का "योगदान" सिर्फ आरक्षण तक सीमित रह गया है क्या वह चिंतनीय नहीं है, जिस जाति को बदलने की बात वो कर रहे थे, खत्म करना चाहते थे, सामाजिक विषमता को ख़त्म करना चाहते थे, उसे भी तो हमने कही खो दिया और महू जैसे बड़े बड़े मठ बनाकर रख दिए, आम्बेडकर संस्थान को विवि बना देने से काश जाति या भेद भाव ख़त्म हो जाता या तमाम आंबेडकर पीठ पर बैठे बौद्धिक विलास में व्यस्त और त्रस्त लोग .खैर.........बाबा साहब को अब कम से कम बख्श कर हमें कुछ नया सोचना चाहिए क्योकि यह वह हिन्दुस्तान नहीं जो वो देखना चाहते थे, ना ये वो देश है जिसमे रहकर उन्होंने कड़े श्रम से पढाई की, बाहर गए - वजीफे पर और संविधान जैसा पवित्र ग्रन्थ रचा. मायावती और मुलायम अगर उनके वंशज बन गए तो हो गया कल्याण फिर........बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी........बहरहाल मुझे लगता है सम्पूर्ण दलित आन्दोलनक