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"नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं" पर ज्ञानरंजन की चिठ्ठी मेरे लिए किसी नोबल से कम नहीं



मेरी किताब "नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं" पर हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन की आज एक चिठ्ठी मिली जिसमे उन्होंने मेरी किताब के बारे में कुछ लिखा भी है और सलाह भी दी है. 5 अप्रेल को मित्रों के साथ बैठा था जहां मैंने अपनी किताब को लेकर बहुत उदासी से यह कहा था कि मै इसे खारिज कर रहा हूँ परंतु सुनील भाई, बहादुर, लुणावत जी ने कहा कि तुम कौन होते हो खारिज करने वाले,  यह एक नए प्रकार का गद्य है जिसे लोग समझेंगे. ठीक यही बात कल अग्रज हरि भटनागर ने भी एक लम्बी बात करके मुझे कही, और आश्वस्त किया कि मै इसी औघडपन के साथ लिखता रहूँ . आज ज्ञान जी की चिठ्ठी मिली तो अपने लेखन पर विश्वास हुआ. यकीन मानिए दोस्तों  मेरे लिए यह किसी नोबल पुरूस्कार से कम नहीं है. बहरहाल आप पढ़िए ये पत्र. 



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प्रिय संदीप नाईक,

"नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं"  मिली.  धन्यवाद. किताबें बड़ी संख्या में आती है, मंगवा भी लेता हूँ . इसलिए समय लगता है , पर देवास का जोर इन दिनों जोर एक संयोग की तरह काफी तेज है. मेरी पत्र प्रणाली अब लगभग भ्रष्ट हो गयी है, स्नायु तंत्र की दुर्बलता के कारण. मै पत्र तो लिख सकता हूँ , पर दीर्घ पत्राचार नहीं कर सकता. पुरुषोत्तम अग्रवाल के ब्लर्ब की वजह से मै तुम्हारी बेचैनियों तक सीमित रहा - 17 टुकड़ों तक . इतना सरलता से संभव भी नहीं था.  

पुरुषोत्तम अग्रवाल जब ग्वालियर में छात्र थे, मैंने एक बड़े राष्ट्रीय योजना शिविर में उनको काफी समय दिया था, यहाँ हमारा प्रथम परिचय हुआ. इसके बाद वे सक्रीय साम्यवादी हुए, दिल्ली गए, विश्व विद्यालय में अध्यापक हुए. सुमन केसरी से उनका प्रेम फिर विवाह हुआ, यह मेरे इलाहाबाद वाले मकान की भी कहानी है. - जहां दोनों मिलें. इस सब के काफी बाद उन पर गुरुडम का बुखार चढ़ा. .................मै नहीं जानता कि ब्लर्ब उन्होंने तुम्हारे आग्रह पर लिखा या प्रकाशक के. प्रकाशक का तो व्यवसाय है सो वह ठीक है . इतना सब लिखने का कारण यह है कि चाहे जो कुछ भी हो उनके ब्लर्ब की वजह से मै तुम्हारी किताब का पहला हिस्सा तपाक से पढ़ सका. 

ये 17 तुकडे मार्मिक है, तंग करते है, रुमान इनमे है, विचार भी है पर ह्रदय विदारक अधिक है. रात के अँधेरे में रेल गाडी से उतर जाने वाले गद्यांश में मै भी तुम्हारे साथ उतर गया. एक बारगी इस तरह मै एक बार सुनील गंगोपाध्याय की कहानी में दिन दहाड़े कलकत्ते की एक सड़क पर बस से उतरा था और मुख्य पात्र का शेडो  हो गया, जासूसी करने लगा. बहरहाल, तुम्हारा गद्य पठनीय और मतलब का है पर उसमे अन्धेरा, मृत्यु, संन्यास वृत्ति, अवसाद का प्रकोप है. दूसरे दार्शनिकता की घनी छाया उनमे है. 

तुम्हारे अन्दर गहरी ठेस है या यह नैसर्गिक है, नहीं जानता. यह तुम्हे अच्छा लेखक  बनाता है, क्योकि आज गंवार ठस लेखकों की बहार बहुत है, पर तुम्हे अच्छे लेखक से बड़े लेखक की तरफ जाना है तो तुम्हे मृत्यु की छाया से लड़ना होगा. 

मै तुम्हारे साथ चलते चलते तुम्हे पढ़ते पढ़ते स्तब्ध होता हूँ, उड़ जाता हूँ, फिर लौटता हूँ. हमारी दिक्कत क्या है ? कि चीजें मात्र बदल नहीं रही है, चीजें बंद हो रही है, उनका पटाक्षेप हो रहा है. अकस्मात् शटर डाउन होता है तो सांस थमती है, हत्यारी आवाजें आती है, हम लिफ्ट के बीच फंस गए है. हमारे देश में दुर्दशा यही है, हर कस्बा, हर शहर भस्मीभूत हो रहा है. चारों तरफ चीथड़े उड़ रहे है. तुम्हारे लेखे में सच्चाई यह है कि तुम जैसे ही सच्चाई के सामने होते हो, अवसाद की धुंध में चले जाते हो. अब हमें इसी में से जीने, बसने, रचाने की कला पैदा करनी होगी. आगामी रचना का शिल्प यही है. 

एक उदाहरण. 

मैंने अभी मोहन कुमार डेहरिया का ताजा संग्रह पढ़ा - इस घर में रहना एक कला है. यह एक अद्वितीय शीर्षक है- पंक्ति है. भारतीय समाज के लिए तो अदभुत . यद्यपि शीर्षक के अनुरूप कविता बन नहीं सकी है - वह टूटी फूटी है लेकिन टूटी सीढ़ियों का भी हम लाखों लोग उपयोग तो करते ही है . यह शीर्षक रचनाकारों के लिए एक बड़ा सन्देश है. हम गरीब लोग है, हम टूटी सीढ़ी फेंक नहीं सकते. 

सत्तर के दशक में मेरी दो कहानियों का उपयोग टाटा सामाजिक संस्थान, मुम्बई ने किया था, मुझसे अनुमति ली थी. चूंकि तुम वहाँ पढ़े हो इसलिए जिक्र कर दिया. 

शुभकामनाएं 

ज्ञानरंजन. 
4 / 4 15 
जबलपुर 

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