भारतीय पत्रकार विचारक, चिन्तक, व्यंग्यकार, आलोचक, साहित्यकार और तमाम विधाओं का सिद्धहस्त ज्ञाता होता है और यह ज्ञान वह बी एस सी में दो साल फेल होकर बी कॉम या बी ए करने के बाद दो वर्ष में किसी विश्व विद्यालय में चाटुकारिता करके या प्रोफेसरों के चरण पकड़ कर या किसी विचारधारा के कार्यकर्ताओं या कामरेडों के साथ एक्टिविज्म सीखकर एम जे की डिग्री हासिल कर लेता है या सागर जैसे विवि से बगैर गए घर में बैठकर पर्चे लिखकर हासिल कर लेता है और बाद में किसी टटपून्जिये अखबार में कलम घिसकर धीरे धीरे एक बड़े अखबार में जगह पा जाता है फिर वह ज्ञानी होकर सब करता है - अपने मकान की जुगाड़ से लेकर ट्रांसफर करवाने के ठेके और वेश्याओं के अड्डे पर रेड डलवाने से लेकर जमीन अधिग्रहण के मुद्दों पर लंबा शोध और अंत में शहर या कस्बे की सभी संस्थाओं से सम्मानित होकर महान बन जाता है धीरे धीरे उसके पास फेलोशिप की बाढ़ आ जाती है और वह विदेशों में ज्यादा रहता है बनिस्बत घर द्वार के और इस तरह से वह गोलमाल होकर (सॉरी ग्लोबल) एक दिन पदमश्री प्राप्त कर लेता है.
हर एकादशी प्रदोष और अमावस पूनम पर भडभड कर्कश ढोलबजाने वाले, हर शनिवार को सुबह से देर शाम तक गंदे से बर्तन में पत्थर डूबोकर मटमैले तेल में लेकर घुमते ये शनि महाराज वाले, ये विधवाश्रम और अनाथालय वाले और हाथी - ऊँटों पर सवारी करते महात्मा, छः पाँव की गाय या बैल वाले, जगह जगह आड़े - खड़े - पड़े गणेश या हनुमान के फोटो दिखाकर लूटने वाले, गुरुद्वारे और मजारों पर लंगर के नाम पर मांगने वाले, ये बाढ़ और तूफ़ान के नाम पर मांगने वाले, ये भगवा यात्रा, हरी चादर औलिया के नाम पर और मजदूर संगठनों के लाल सलाम के नाम पर चन्दा मांगने वाले, होलिका दहन और रावण दहन के नाम पर रूपये एंठने वाले और अंत में समाजसेवा के नाम पर सरकार, अतर्राष्ट्रीय दानदाताओं और कार्पोरेट्स से धन उगाही वाले ये और हम सब सब भारतीय संस्कृति के नाम के जीवित संवाहक है और हमें पाल पोसकर रखना हम सबकी संवैधानिक मजबूरी और दुनिया को शो पीस में सजाकर रखना और परोसना शौक ताकि दुनिया से पर्यटक आ सकें और देश दर्शन कर ताजमहल की स्मृतियों को सजाकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को सहेजकर अपने दिलों दिमाग में ले जा सके.
आत्ममुग्ध होना एक बीमारी नहीं वरन एक जड़ता है और यह मुझमे, तुझमे, सबमे है इसलिए गलत कुछ नहीं है, बस नजरिये का फर्क है - यदि आप करें तो लोकाचार और मै करूँ तो प्रचार प्रसार. दिक्कत यह है कि हम जल्दी ही भांप लेते है यह सब होने के बीच अपने और दूसरे का भेद और बना लेते है कुतर्कों के अभेद किले और गढ़ लेते है एक चौहद्दी जो हमें अपने दर्प में बचाकर रखती है, सिसकते रहते है और फिर भी बना रहता है एक भ्रम जबरजस्त. यह आत्ममुग्धता ही है जो कभी किसी को मार देती है जब हम अपने को साबित करने में जुट जाते है और ख़त्म कर देते है एक बरगद को भी जो कभी अपनी हवाई जड़ों से स्थापित हुआ था कड़ी मिट्टी में और तान दिया था एक वितान आसमान को चुनौती देते हुए.
सावधान रहिये जिन लोगों को आपने आगे बढाया है वे आपको इस्तेमाल करके एक दिन आपको ही लाश में तब्दील कर देंगे और आप स्यापा करने के बजाय सिर्फ टुकुर टुकुर देखते रहेंगे और कुछ बोल ना पायेंगे. ये शातिरों की वो दुनिया है जहां दोस्ती, प्यार, अपनत्व और भाईचारा महज हथियार है और जलील करने की नई विधाएं, इसे आप हलके से लेंगे तो समझ लीजिये कि आप भोले बनकर बाजार में एक बेजान वस्तु की तरह खप जायेंगे और माटी में दफन कर दिए जायेंगे इन्ही अपने लोगों से. तो जवाब क्या है इससे बचने का, सिर्फ एक ही हल या जवाब है कि इन्हें बार बार औकात दिखाते रहो और इनके आईने पर पारा गिराते रहो.
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