कि आ गयी है गर्मी
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शाम को मोगरा, कनेर, गुड़हल और सदाबहार के बीच
नीम, गुलमोहर और पीपल भी झूल जाते है
पांवों के नीचे हरी घास और कुछ कंकर
बताते है जीवन का अनहद राग और बीत जाता है दिन
बेंच पर पसरी है सुस्ती, सूखे पत्तों के टीले गर्द के बीच
खामोश हवाओं के झपेटे अब कुछ नहीं कहते
अनमने से बच्चे और कुछ उदास बूढ़े घूम रहे है
कुछ औरतें चहलकदमी कर रही है खामोशी से
चिड़ियाएँ सुस्त है, कौवे खामोश, कीड़े मस्त है
बाज अब पेड़ों पर नहीं आते, सुनाई नहीं देता शोर
सुबह टिटहरी उड़ नहीं जाती आसमान में सायास
धूप देरी से झांकती है इस हरियाली के मंजर में
सूरज सब दूर से थककर आता है रोशनी बांटते
पसीने में नहाकर बैठ जाता है इस पार्क के कोने में
दिन निकलता है अक्सर यहाँ कुछ मद्धम सा
दोपहर आते आते थक कर चूर हो जाती है यहाँ
दिन देर तक ठहरा होने से थक जाता है रोज ही
एक उबासी लेकर जाता है शाम को उमस देते हुए
रात के अँधेरे में जुगनू नजर नहीं आते अब
मच्छर गाते रहते है हरियाली में भिन भिन सन्नाटे में
सूरज की गति से चंद्रमा की गति बदल गयी है
सुबह शाम के फेरे में धरती पर बढ़ गयी है आपाधापी
पसीने से सरोबार है समूचा संसार और जनमानस
ऐसे में कुछ लोग लगे है निचोड़ने मनुष्य को धड़ल्ले से.
- संदीप नाईक
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