Umber Ranjana Pandey
अम्बर मेरा प्रिय कवि है आज उसके कवितायें आम को लेकर है और अदभुत व्यंजना और उपमा का इस्तेमाल करते हुए उसने आम को लेकर एक विषद व्याख्या प्रस्तुत की है. ये चार छोटी कवितायें बेहद संजीदा है और कई अर्थ खोलती है जहां वे बचपन से किशोरावस्था की दहलीज पर एक युवा किस तरह से आसपास की चीजों को देखता समझता है और उसके मन मस्तिष्क में क्या रहता है- खासकरके आकार और बिम्ब को लेकर, वही वह यह भी देखता है कि हमारे समय में इन फलों या आकारों की दुनिया क्या है. आम के विभिन्न प्रकारों को एक विशेषण से समझाते हुए और व्याख्या करते हुए मुझे पिछले बरस के लखनऊ के दिन याद आ गए जब लखनऊ से हरदोई जाते समय आमों के विशाल बगीचों से गुजरना पड़ता था और वो मादक खुशबू पागल कर देती थी जब तक कि उतर कर दो - चार गुठलियाँ चूस नहीं लेता या झोला भरके ले नही आता घर पर और सारा दिन खाता रहता था, शायद उतने आम मैंने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं खाए थे, आज जब आम का मौसम एक बार फिर बौरा रहा है तो अम्बर की ये कवितायें मुझे उस मीठे स्वप्न में ले जाती है, जहाँ मुग़ल काल है - किस्से है, कहावतें है, पहेलियाँ है और एक फलों के राजा सा होने का अहसास है.
अम्बर मेरा प्रिय कवि है आज उसके कवितायें आम को लेकर है और अदभुत व्यंजना और उपमा का इस्तेमाल करते हुए उसने आम को लेकर एक विषद व्याख्या प्रस्तुत की है. ये चार छोटी कवितायें बेहद संजीदा है और कई अर्थ खोलती है जहां वे बचपन से किशोरावस्था की दहलीज पर एक युवा किस तरह से आसपास की चीजों को देखता समझता है और उसके मन मस्तिष्क में क्या रहता है- खासकरके आकार और बिम्ब को लेकर, वही वह यह भी देखता है कि हमारे समय में इन फलों या आकारों की दुनिया क्या है. आम के विभिन्न प्रकारों को एक विशेषण से समझाते हुए और व्याख्या करते हुए मुझे पिछले बरस के लखनऊ के दिन याद आ गए जब लखनऊ से हरदोई जाते समय आमों के विशाल बगीचों से गुजरना पड़ता था और वो मादक खुशबू पागल कर देती थी जब तक कि उतर कर दो - चार गुठलियाँ चूस नहीं लेता या झोला भरके ले नही आता घर पर और सारा दिन खाता रहता था, शायद उतने आम मैंने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं खाए थे, आज जब आम का मौसम एक बार फिर बौरा रहा है तो अम्बर की ये कवितायें मुझे उस मीठे स्वप्न में ले जाती है, जहाँ मुग़ल काल है - किस्से है, कहावतें है, पहेलियाँ है और एक फलों के राजा सा होने का अहसास है.
तर्ज़-ए -बाबू महेश आम पे चन्द सतरें
जिसके किनारे किनारे बहती हो
ऊपर ऊपर तक भरी नालियाँ
और
जूने मकान सिर जोड़े-
ऐसी तंग, दुश्वार कू-ए-माशूक़ में
घाम में जब वो निकलती
हांफती सूरत सांवली ज़र्द पड़ जाती.
ठीक उसी वक़्त अमलतास
ऐसा फूला फूला दिखता जैसे
आज हो इसका ब्याव.
ऐसी दुपहर जो कि
ज़रा ज़रा ज़र्द हो और ज़रा सांवली
जैसे वस्ल के दौरान उसकी कैफियते चश्म
तब उसी वक़्त निकलता माथे पे धरे
आम का टोकना
कूचा बकूचा फिरता, गर्मियों की
शुरुआतें है तो बाजार में बस सिन्दूरी आम-
अमां महेश बाबू
तुमने बम्बई बाजार इंदौर में कब
बना लिया अपना स्टूडियो-
एक किसी शीशाखाने जैसी ईमारत की खिड़की
चिक़ ज़रा ढरकी हुई-
शमशेर बहादुर सिंह का न्यूड खींच रहे हो.
आब रंग में डूबी कूची- जान पड़ता है
कुर्कुम जैसा कोई रंग घोल रहे है.
बाहर फ़ाख्ते कूकू करते -
पतरे के पनारे से औंधा लटका हुआ है
विष्णु खरे का घोस्ट-
न रदीफ़ न क़ाफ़िया बस बड़बड़ाए चले जाता है.
''कोई खामीखोज है-
उस और
जहाँ नर्ममिज़ाज भंड लौंडे
गाँजा फूंकने के बाद एक दूसरे के
नर्मए गोश चूम रहे हैं
और काट रहे है बाहर से हरा
मगर अंदर से नर्म, रेशेदार गूदे वाला आम.
उनके चाक़ू चलाने के ढंग में
यह इफ्रीत खामियां खोज रहा है.
गाँजे और आम का इश्क़
जसद और रूह की तरह है-
आम जसद है मगर उससे अव्वल
रूह हुई-
इसलिए जहाँगर्द पहले चिलिम में
गाँजा ऐसे सुलगाते है
जैसे कोई अपने जिगरी को
जस्ता जस्ता छूकर अंदर अंदर से
नमनाक करता हो.
ऐसे गाँजे से
अच्छे अच्छे जिगरसोख्ताअों को
तस्कीन होती है.
उस पे आम की फाँक-
आह, इश्क़ के ऊपर तसव्वुफ़
तो ऐसे गाँजे के ऊपर आम की
फाँक चखने पे
'लंड लंड ' बकने वाला भंड वली
हो जाए है.
''अजी, इसे इस भूत को
खामीखोज नहीं खामीनवीस कहिये'' ऐसा कहकर
ठठाकर हँसते है वो.
इतना इब्ता किया आम
मेरी चिलिम से जली ज़बान के कुरूह पे रखने को
तेरी फाँक
कब से फांक रहा हूँ जहाने फानी
की गर्द
ऐसी कुर्बत ऐसी कुर्बत
कि बस.
(अम्बर की फेसबुक वाल से आज 11/05/16 को)
कालि बाबू , ग्रीष्म को ऋतु
रूप में गढ़ना आप ही को
मुबारक। धैर्यवान कोई
सिनेमा वाला यदि दिनों तक
आम के वृक्ष का चलचित्र
बनाये फिर फ्रेमें लैप्स
कर के द्रुतगति में दिखाएँ -
पत्र, बौर, कैरी, पका आम
यूँ चरणों में मेरे भीतर
गर्मियों के दिन भरें है, कवि.
आम्र की विविध जातियों के
फलों के मंडी में आगमन
से पता पड़ता है कि पहुंचा
है निदाघ कहाँ तक और अब
कितनी शेष है गर्मियां की
छुट्टियां. स्कूल तो तुम कभी
गए नहीं कवि और हो गए
कवि!
मुबारक। धैर्यवान कोई
सिनेमा वाला यदि दिनों तक
आम के वृक्ष का चलचित्र
बनाये फिर फ्रेमें लैप्स
कर के द्रुतगति में दिखाएँ -
पत्र, बौर, कैरी, पका आम
यूँ चरणों में मेरे भीतर
गर्मियों के दिन भरें है, कवि.
आम्र की विविध जातियों के
फलों के मंडी में आगमन
से पता पड़ता है कि पहुंचा
है निदाघ कहाँ तक और अब
कितनी शेष है गर्मियां की
छुट्टियां. स्कूल तो तुम कभी
गए नहीं कवि और हो गए
कवि!
तोतापुरी
तिथि एकादशी के स्तन हो ज्यों चिरंतन
कठोर किन्तु रस में रूचि नहीं. बाबा जब भी
मंडी से लौटते; उनके झोले में धरे
ऐसे लगते जैसे कोई चिड़ीमार के
चितकबरे पोटले में तोतों का झुण्ड. फिर
थोड़ा बड़ा हुआ तब दूसरा चित्र सूझा
द्वादशी के स्तन लगे तोतापुरी और
इसका वैष्णव के पंचांग से सम्बन्ध
नहीं था. नुकीले, गेंदे के रंग वाले
किन्तु पककर रस से झुके नहीं थे.
कठोर किन्तु रस में रूचि नहीं. बाबा जब भी
मंडी से लौटते; उनके झोले में धरे
ऐसे लगते जैसे कोई चिड़ीमार के
चितकबरे पोटले में तोतों का झुण्ड. फिर
थोड़ा बड़ा हुआ तब दूसरा चित्र सूझा
द्वादशी के स्तन लगे तोतापुरी और
इसका वैष्णव के पंचांग से सम्बन्ध
नहीं था. नुकीले, गेंदे के रंग वाले
किन्तु पककर रस से झुके नहीं थे.
चौंसा
लेट-लतीफ़. दशहरी जितना मशहूर भी
नहीं मगर इसका मुलायन गूदा दिलाता
है याद जाते ज्येष्ठ के अपराह्न की
निद्रा. उचटा, ऊबा मन पर प्रिय. गाढ़ा पीला
कवि के ध्यान सा पुष्ट और बस उतना ही
गूढ़ जितनी रति पश्चात आनंददायिनी
शिथिलता होती है. दांत गड़ा देखो देह
पर आम्र-लताएँ फूट पड़ेंगी सहस्र. मन
को मूर्च्छा सा जकड़ता है इसका फल.
लेट-लतीफ़. दशहरी जितना मशहूर भी
नहीं मगर इसका मुलायन गूदा दिलाता
है याद जाते ज्येष्ठ के अपराह्न की
निद्रा. उचटा, ऊबा मन पर प्रिय. गाढ़ा पीला
कवि के ध्यान सा पुष्ट और बस उतना ही
गूढ़ जितनी रति पश्चात आनंददायिनी
शिथिलता होती है. दांत गड़ा देखो देह
पर आम्र-लताएँ फूट पड़ेंगी सहस्र. मन
को मूर्च्छा सा जकड़ता है इसका फल.
शेर शाह सूरी ने देर तक चूसने के
बाद इसे आमों का शाह बताया था तो
क्या हुआ चौंसा को सरकारी प्रमाण की
दरकार नहीं.
बाद इसे आमों का शाह बताया था तो
क्या हुआ चौंसा को सरकारी प्रमाण की
दरकार नहीं.
लंगड़ा
किसी पुष्टिमार्गीय का अन्नकूट. उत्सव
मचा है हाट में आषाढ़ के बीच. छकड़े
के छकड़े लाते है ब्योपारी. सेर भर
पुराएँगे नहीं, डाला भर लाना राग
मल्हार के रंग वाले आम. रस समझने
वालों के लिए तो श्यामा का मन है यह
लंगड़ा आम - बाहर बाहर श्याम भीतर
भीतर अहीर के पीताम्बर वाला राग
सराबोर. पता नहीं क्यूँ इसकी गंध जब
भी नासापुटों में भर्ती है याद आते
है बहुत मियां मकबूल फ़िदा हुसेन.
II
एक कभी ना खत्म ना होने वाले रास्ते पर निरंतर चलना चाहता हूँ - ऊब गया हूँ- इन बने बनाये और फिसलन भरे रास्तों से ....वो रास्ता जिस पर चलने से थक जाऊं, चूर हो जाऊं, मदहोश हो जाऊं और फिर भी कदम सुस्त ना पड़े - बस रोज सूरज की धूप में पानी के छींटें अपने सदियों पुराने मलिन चेहरे पर डालते हुए चाँद और सितारों की ओट में से गुजरूं और फिर सुबह ऐसी जगह हो - जहां कोई ना हो , बस विस्मित करने वाला नील गगन , उद्दाम वेग से चलती हवाएँ और अपने आप को विसर्जित करने के लिए धरती का एक कोना। बस वही आ रहा हूँ ....तुम्हारे लिए कह रहा हूँ .... सुन रहे हो ना .... कहाँ हो तुम.....??
III
देख लो आज
फिर ये सहर
कल कभी भी
नही लौटेगी
और हम तो
जा ही चुके है
उस पार अब
अब तुम हो
और ये जमाना
हम यादों से
निकल जाना
चाहते है छोडो
अब बिसरा दो
कि हम अब
गुजर चुके है।
IV
TAM की जगह BARC नामक संस्था अब TRP देगी।
सही नाम है BARC वैसे बार्क अर्थात भौंकना भी होता है , मने कि यूँही सोचा ज्ञान बघार दूं भासा का यहां tongue emoticon
V
उनकी एक किताब "वन वैभव" एक अदभुत किताब है जो उन्होंने औषधीय पौधों पर लिखी थी जिसमे हर वन उपज पर और घरों में पाए जाने वाले मसालों पर आयुर्वेदिक दोहे है. मिश्र जी ने वन विभाग के आला अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया. बहुत ही सहज आदमी थे मिश्रजी. हाल ही में उनका एक लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया. उनके बड़े बेटे और अनुज विवेक मिश्र भारतीय फौज में ले. कर्नल है और इस समय लेह में है और छोटे बेटे वैभव उज्जैन के एक तकनीकी महाविद्यालय में प्राध्यापक है.
मिश्र जी को श्रद्धांजलि और परिवार के लिए प्रार्थनाएं.
विवेक, वैभव और ममता से मिलकर भी अच्छा लगा लगभग बारह सालों बाद मिला पर फेस बुक ने दूरियां मिटा दी है इसलिए ऐसा लगा ही नहीं कि हम इतने बरसों बाद मिल रहे है.
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