ये कविता में सारे हदें तोड़ती स्त्रियाँ हमारे समय की जीवित हाड मांस का पुतला है और इन्हें देवी नहीं बस सिर्फ इंसान समझा जाए, यह अति आवश्यक है. ये महिलायें सीखंचे तोड़कर बाहर आ रही है स्वागत किया जाना चाहिए. बाबूषा कोहली को इस वर्ष ज्ञानपीठ मिला है और उनकी एक अदभुत कविता यहाँ प्रस्तुत है.
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धड़ाम से ज़मीन पर गिरते 'बीपी' को उठा कर
डायरी वाले पलंग पर लिटा देना
'माइग्रेन' की एक नस खोल लेना कान के पीछे से
उड़ते पन्नों की तुरपाई करना
कविता में रख देना 'ट्राइका' इस तरह
कि रतजगे की मारी आँखों को कमस्कम 0.25mg नींद नसीब हो
'बारिश' लिखना यूँ कि कोई ढूँढने लगे छाता
'आग' लिखना ऐसे कि कोई लफ़्ज़-लफ़्ज़ आँच में झुलसे
'क्रांति' लिखना कि सड़कों पर कारों से ज़्यादा दौड़ें विचार
और अपराध-बोध सी लगे सुबह-सुबह रेडियो मिर्ची पर
RJ आश्विन की 'गुड मॉर्निंग'
'बेचैनी' यूँ लिखना कि मानो हर ट्रैफ़िक सिग्नल पर
जलती मिल रही हो रेड लाइट
'बच्चा' ऐसे लिखना कि साइज़ ज़ीरो औरत भी अपने पेट पर महसूसे
अठमासे उभार की धुकधुकी
'दुआ' लिखने से पहले तोड़ देना चार तारे
और चूरा गिलास में घोर-वोर के पी लेना
लिखना महबूब की आवाज़
कि जिस्म रोएँ के काँटों से भर जाए
और आँखों में महक उठे गुलाब
'प्रार्थना' ऐसी लिखना कि टूट जाए ईश्वर की नींद
मगर जिस दिन लिखना 'टू मिनट्स मैगी नूडल्स'
अपनी कलम की नोक तोड़ कर नर्मदा में फेंक आना
आराम करना सुकून मनाना साँस लेना
बा बु षा !
क़सम इस 'काफ़्काई बुखार' की
लिखना जब भी
थर्मामीटर की रगों में दनदना के चढ़ते हुए पारे को स्याही कर लेना
लिखना 'प्यास' फिर 'पानी'
[ लिखना जब भी.. ]
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