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Showing posts from April, 2013

फारबिसगंज की पुलिस क्रूरता और जनसंघर्ष के बीच नीतीश का छ्द्म सेकुलरवाद

सरोज कुमार बिहार का राजनैतिक खेल देश की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। भाजपा के साथ जदयू गठबंधन की गहरी दोस्ती में चल रही उठापटक ने माहौल गरमा दिया। मोदी के रथ पर सवार होने की कोशिश कर रही भाजपा को अपने सहयोगियों के ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी में शामिल है सुशासन बाबू की जदयू। कहा तो ये भी जा रहा है कि नीतीश को आगे करने में भाजपा का ही एक धड़ा सक्रिय है। लेकिन फिलहाल इस ओर ना भी जाएं और पूरे घटनाक्रम को सामान्य तरीके से देखें तो भी नीतीश के सेकुलर तिकड़म और सुशासन का खेल साफ नजर आ जाएगा। नीतीश कुमार जिस सेकुलर छवि व मुसलमानों के प्रति प्रेम को जाहिर कर रहे हैं वह फारबिसगंज जैसे मामले में हवा हो जाती है। पिछले दो सालों से अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड के पीड़ित इंसाफ व अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सुशासन बाबू की पुलिस-प्रशासन ने दोषियों की बजाय पीडि़तों के दमन में ही लगातार जुटी हुई है। अब पुलिस ने गोलीकांड में पुलिस की गोली से मारे गए 3 लोगों और मर चुके 3 अन्य लोगों समेत 50 ग्रामीणों पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये

ये मौत का मंजर है जो दूर तलक जाकर मंजिल को मिला देगा.

दरवाजे पर खडा रहा था, घंटी बज रही थी लगातार और अंदर से कोई आहट नहीं........पाँव पसारने की आवाज नहीं और कोई सन्नाटे का शोर नहीं, जैसे धूप की छाया मे प्रतिकृति बन रही हो मानो.....बस यूँ ही एक युग बीत गया खड़े-खड़े और इंतज़ार करते करते.........पर दरवाजा नहीं खुला है....... शायद अब इंतज़ार भी दूसरे पाँव पर करवट लेकर कही सो रहा है और समय है कि झट से किसी सदी मे से भाप की तरह उड़ने को बेकरार है.......कही ये अपने होने की अदावत तो नहीं, कही अपनी ही दबी आवाज मे एक खराज तो नहीं, जो कही ना कही से किसी धैवत मे कोमल निषाद की तरह से तीन ताल मे निबद्ध होकर पुरे संगीत को किसी अनजान दिशा मे भटका रही है..... और ये सदियो से अटका दरवाजा खुल ही नहीं रहा और उस पार से कही आवाज गूँज रही है........लौट आओ...... ये आख़िरी पल है .......बेचैनी बढ़ रही है इस पाँव पर पूरी देह का बोझ लटक गया है और साँसों का स्पंदन भी देखते देखते बढ़ गया है ...........बस अब देखो खुला वो दरवाजा..........चरमराहट बढ़ गई है .............और वो एक धुंध जो कही थी छटने लगी है और बस ........आ जाओ साथ का सफर पूरा करते है.........आओ

पूछा तो मैंने भी अपने आप से कि क्या रखा है

पूछा तो मैंने भी अपने आप से कि क्या रखा है इन दरों-दीवार और चौखटों मे, पर ना जाने क्यों ठहर सा गया एक पल, सिहर गया, और ना जाने कौन कौन से लम्हें याद आ गये और लगा कि सारा जहाँ जरुर मेरा है, पर यह कोना सिर्फ और सिर्फ मेरा है जहाँ मै बेफिक्र हूँ और एकदम मुक्त.........और फ़िर तुम्हारी सारी यादें तो यहाँ कैद है मेरे साथ हर उस हिस्से मे जिसे जीवन कहते है, सारी कायनात मे सबसे प्यारा है यह कोना............और यही से तो जन्मा हूँ और अब आख़िरी साँसों का सफर भी यही खत्म कर दूंगा, देखो वो कोना भी सिमटने लगा है.............यादें मिट रही है और एक अन्धेरा छा रहा है शाम ढल रही है और शफक भी खत्म हो रही है......धीरे धीरे, आहिस्ता आहिस्ता......  

मीटिंग के फायदे और ज्ञानवान अधिकारी, नेतागण

साहब मीटिंग मे है, मीटिंग चल रही है, कल साहब मीटिंग मे जाने वाले है, सबकी मीटिंग करके निर्णय कर लो, आभी टी एल मीटिंग चल रही है या जब भी किसी के पास जाओ तो वे मीटिंग मे जा रहे है, जा चुके है या जाने वाले है सो समय नहीं है......ये वो जुमले है जो अमूमन हर जगह बोले विचारे और झेले जाते है. मुझे लगता है कि इस देश से अगर मीटिंग खत्म हो जाये तो सारा विकास जो अवरुद्ध पड़ा है हो जाएगा. फ़िर लगा कि आखिर चक्कर क्या है सरकारी अधिकारी से लेकर एनजीओ और तमाम ना जाने कौन कौन से लोग मीटिंग ही करते रहते है. फ़िर गहरी से सोचा और मित्रों से बातें की तो समझ मे आया कि मीटिंग सीखने सिखाने का जरिया है और इसलिए ब्यूरोक्रेट्स को ये मीटिंग भयानक पसंद है जब मन किया मीटिंग बुलवा ली. क्या आपने किसी विवि मे अकादमिक लोगों को इतनी बड़ी तादाद मे मीटिंग अक्रते देखा है या इशारों या भाभा परमाणु शक्ति केन्द्र के वैज्ञानिकों को बड़ी तादाद मे मीटिंग करते  देखा है ? जवाब है नहीं तो अब समझिए इस मीटिंग का चक्कर .ब्युरोक्रेट्स तो रट्टा मारकर आयएएस बन गये, बचे खुचे जो अति महत्वकांक्षी थे जो ब्यूरोक्रेट्स ना बन पाने के अपराधबोध मे जी

साहित्य पर मालिकाना हक और रचनात्मकता का क्या होगा हश्र

आज एक समकालीन साहित्यकार मित्र से बातें हो रही थी. बड़ा विचित्र माहौल हो रहा है समय का प्रभाव बड़ा घातक सिद्ध होता जा रहा है अनुभवी लेखकों और साहित्यकर्मियों पर. आज हिन्दी साहित्य मे जो नए लेखक उभर रहे है वे बहुत ठोस जमीन से नहीं बल्कि एनजीओ, आंदोलन, मैदानी लड़ाईयों और बदलाव की पृष्ठभूमि से परिचित होकर आ रहे है क्या रच रहे है, इसका अभी ठीक ठीक मूल्यांकन होना बाकि है पर ठीक इसके साथ साथ साहित्य मे एक ऐसे बड़े वर्ग की घुसपैठ बन गई है जो सत्ता संपन्न और धन धान्य से भरा हुआ है. यह वर्ग एक इशारे पर रोज कहानी, कविता, उपन्यास और दसियों लेख एक साथ कई अखबारों मे छपवाने की कूबत रखता है और छपवा भी रहा है. मै कोई नई बात नहीं कह रहा इस सबसे हम वाकिफ भी है और चिंतित भी. अब सवाल यह है कि जो संपन्न है या पूंजी का सहारा लेकर या प्रकाशकों को रूपया देकर छपवा रहे है या खुद प्रकाशक बन गये है और माता-पिता से लेकर कुत्तों-बिल्लियों की स्मृति मे बड़े आयोजन कर रहे है और स्मारिका से लेकर मासिक पत्र निकाल रहे है, उनका क्या ? क्या वे नए और सच मे भाषा मे लिखने वाले और अपने नए व िचारों से इस दुन

पंचायती राज के बीस साल........ क्या खोया क्या पाया......???

पंचायती राज की कल बीसवीं वर्षगाँठ है यह समय है थोड़ा ठहर कर सोचने विचारने का समय है कि क्या वास्तव मे पंचायतें अपनी भूमिका निभा पाई, क्या सच मे सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो पाया, क्या वास्तव मे महिलायें आरक्षण देने के बाद भी काम कर पा रही है, क्या सरपंच पति की भूमिका खत्म हो गई है, क्या पंचायती राज संस्थाओं के लिए काम करने वाले एनजीओ वास्तव मे कुछ कर रहे है या अपनी ही गाड़ी और मदमस्त होकर बुद्धिजिवीता हांक रहे है, कंसल्टेंट के नाम पर बूढ़े और लाचार सब्जबाग दिखाकर लूट तो नहीं रहे, सरकारों ने इसे अमलीजामा पहनाने के लिए कितना डीवोल्युशन किया है. ज़रा सोचे और फ़िर गंभीरता से विचारे कि क्या पंचायतें लोगो की है या सिर्फ सत्ता मे मस्त सरकारों की एजें,ट सोचे....... और इस पर ज्यादा सोचे कि पंचायतों मे पंचायतों के लिए कौन काम कर रहा है और उनकी नीयत क्या है, क्या है उनके चारित्रिक मूल्य, और क्या है उनकी मंशा....चाहे एनजीओ हो, उनमे काम करने वाले लोग या उन्हें पालने वाली संस्थाएं यानी फंडिंग एजेंसी या सरकार नाम के माईबाप...........   मप्र मे मैंने सिर्फ और सिर्फ पं

'जो घर जाले आपना चले हमारे साथ' - प्रहलाद सिंह टिपानिया के कबीर भजन और नया रचने की जरुरत.

मालवा के देवास का संगीत से बहुत गहरा नाता है इस देवास के मंच पर शायद ही कोई ऐसा लोकप्रिय कलाकार ना होगा जिसने प्रस्तुति ना दी हो. और जब बात आती है लोक शैली के गायन की तो कबीर का नाम जाने अनजाने मे उठ ही जाता है. यह सिर्फ कबीर का प्रताप नहीं बल्कि गाने की शैली, यहाँ की हवा, मौसम, पानी और संस्कारों की एक परम्परा है, जो सदियों से यहाँ निभाई जा रही है. गाँव गाँव मे कबीर भजन मंडलियां है इसमे वो लोग है जो दिन भर मेहनत करते है- खेतों मे, खलिहानों मे और फ़िर रात मे भोजन करके आपस मे बैठकर सत्संग करते है और एक छोटी सी ढोलकी और एक तम्बूरे पर कबीर के भजन गाये जाते है. किसी भी दूर गाँव मे निकल जाईये यह रात का दृश्य आपको अमूमन आपको हर जगह दिख ही जाएगा. इन्ही मालवी लोगों ने इस कबीर को ज़िंदा रखा है और आज तक, तमाम बाजारवाद और दबावों के बावजूद भजन गायकी की इस परम्परा को जीवित रखा है शाश्वत रखा है आम लोगों ने जिनका शास्त्रीयता के कृत्रिमपन से कोई लेना देना नहीं है.  प्रहलाद टिपानिया ऐसे ही लोक गायकों की शैली मे आते है जब वे तम्बूरे से तार को झंकृत करते है तो आत्मा का पोर-पोर बज उठता है. वे जब कबीर

हमारी भागदौड़ में कोई कमी हो तो बताओ

एक जंगल था। उसमें में हर तरह के जानवर रहते थे। एक दिन जंगल के राजा का चुनाव हुआ। जानवरों ने शेर को छोड़कर एक बन्दर को राजा बना दिया। एक दिन शेर बकरी के बच्चे को उठा के ले गया। बकरी बन्दर राजा के पास गई और अपने बच्चे को छुड़ाने की मदद मांगी।बन्दर शेर की गुफा के पास गया और गुफा में बच्चे को देखा, पर अन्दर जाने की हिम्मत नहीं हुई। बन्दर राजा गुफा के पेड़ो पर उछाल लगाता रहा.. कई दिन ऐसे ही उछाल कूद में गुजर गए। तब एक दिन बकरी ने जाके पूछा .." राजा जी मेरा बच्चा कब लाओगे.. ?" इस बन्दर राजा तिलमिलाते हुए बोले "-: .. . . . हमारी भागदौड़ में कोई कमी हो तो बताओ "

देवास मे नईम समारोह 20 अप्रैल 2013

  यह देवास के एक इठलाती हुई शाम थी जो आज अपने होने पर ही गर्व कर रही थी . मौका था नईम समारोह जो नईम फाउन्डेशन द्वारा आयोजित था, और अवसर था पदमश्री प्रहलाद टिपानिया का सम्मान , पूर्व जिलाधीश गौरी सिंह का सम्मान और कबीर भजन . यह बेहद आत्मीय कार्यक्रम था जहाँ सारे देवास के नए पुराने लोग खासकरके साक्षरता  अभियान से जुड़े लोग एकत्रित थे और मिलजुलकर अपने पुराने दिनों को याद कर रहे थे. इंदौर, उज्जैन, भोपाल से भी लोग यहाँ आज आये थे छिंदवाडा के रोहित रूसिया ने नईम जी के गीतों को अपने सुरों से बांधा और फ़िर यह समां एक खुशनुमा सांझ मे तब्दील हो गया. नए पुराने ढेरों साथी मिले और फ़िर जमकर गप्प पुराने दिनों की बेहतरीन यादें और शिकवे गिले....प्रहलाद जी के भजनों से मालवा के लोग परिचित ही है पर आज जो उन्होंने झूमकर गाया वो अदभुत था और अंत मे कबीर की एक उलटबांसी से अपने भजनों का समापन किया बीच बीच मे वे समझा भी रहे थे कि कबीर क्या कहते है. भाई कैलाश सोनी के दो चित्र गौरी सिंह और प्रहलाद जी को जब भेंट किये जा रहे थे तो लगा कि ये सिर्फ भेंट ही न

रामनवमी की बधाई

तुलसीकृत रामचरित मानस मे एक सम्पूर्ण मनुष्य के रूप मे 'राम' की कल्पना की गई है जो अंदर से उतना ही कमजोर है जैसे मै या आप हो सकते है, महिला को लेकर समूचे रघुवंश मे वही अवधारणाएं है जो आज के समाज मे दिखाई दे रही है पर फ़िर भी राम को पुरुषोत्तम मानकर हम एक राष्ट्र नायक के रूप मे देखते है क्योकि महाभारत मे कोई एक नायक नहीं है, महाभारत कई नायकों और असफल, हताश और युद्ध मे हारे हुए लोगों की कपोल कथा है वही राम ने रावण को मारकर और एक छोटे से द्वीप के जीतकर यह दर्शाया है कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से जीतना चाहता है. वहाँ कोई द्वंद नहीं है कि जीतने मे किन तरीकों का प्रयोग हुआ है जबकि महाभारत हार, जीत, युद्ध, उन्माद और तरीकों पर बात करती है वहाँ सूर्यास्त के बाद लड़ाई बंद है जबकि रामचरितमानस मे लड़ाई हर वक्त एक अनिवार्य हिस्सा है. शायद यही कारण है कि कृष्ण सिर्फ गीता के उपदेशों और अपनी रोमांटिक अदाओं के लिए याद किये जाते है, वे राष्ट्र नायक नहीं है वे हिंदू प्रतीक उस रूप मे नहीं है जिस स्वरुप मे राम उभरकर आते है.  रामचरित मानस मे सिर्फ एक राम ही है जिनके आसपास सारी

पीड़ा से लदी उदास लम्बी रातें -कृष्णकांत निलोसे

मैंने सुख तो नहीं दु:ख जरुर डाले हैं उसकी झोली में उसे दी है पीड़ा से लदी उदास लम्बी रातें भरी हुई आत्मा को दंश देते तारों से और....विदा के अवसर पर दिए हैं सौगात में कभी न भुलाए जाने वाले दु:स्वप्न.....और आत्मा को छार-छार करने वाले तेजाबी अवसाद कायर मैं...... विकृत अपनी चेतना में उसका अपराधी हूँ स्मृतियों की आँच में तिल-तिल वेदना से झुलस राख हुआ मैं जीवित भी हूँ कहाँ ? - कृष्णकांत निलोसे

देवास मे योगेश केलकर का एकल बांसुरी वादन....

देवास की समृद्ध सांगीतिक परम्परा मे और उस्ताद रज्जब अली खां साहब जैसे महान संगीतकारों के देवास मे आज एक नाम और जुड़ गया जब देवास मे कालानी बाग मे एक प्राईवेट महफ़िल मे अनुज योगेश केलकर ने एकल बांसुरी वादन प्रस्तुत किया. योगेश देवास से ही है, और मेरा परिचय सं १९८४ का है. हम दोनों लोग कालानी बाग मे ही रहे है, अब योगेश ड़ा राजा रमन्ना प्रौद्योगिक केन्द्र, इन्दौर मे वैज्ञानिक अधिकारी है पर देवास से जुड़ाव अभी भी बना हुआ है. आज योगेश ने बांसुरी के सुर छेडकर यह सिद्ध किया कि संगीत भक्ति के सबसे करीब है और संगीत की साधना से ही अपने इष्ट को पाया जा सकता है. राग हंस ध्वनि से शुरूवात करके मीरा के दो भजन सुनाये, साथ ही रात्री के प्रथम पहर के राग यमन मे एक जोरदार बंदिश सुनाई. योगेश ने शर्मा बंधू कृत राम दरबार का प्रसिद्द भजन "जैसे सूरज की गर्मी से तपते हुए तन को मिल जाये तरुवर की छाया" भी सुनाकर श्रोताओं का मन मोह लिया. बहुत ही अपनत्व भरे माहौल मे हुए इस कार्यक्रम मे योगेश के साथ तबले पर संगत की अनिल पवार ने जो देवास के ख्यात कलाकार है. यह कार्यक्रम सिर्फ यह दिखा

नईम फाउन्डेशन द्वारा पदमश्री प्रहलाद सिंह टिपान्या के कबीर भजनों का कार्यक्रम

देवास मे स्व नईम जी की स्मृति मे नईम फाउन्डेशन द्वारा दिनांक बीस अप्रैल, शनिवार को स्थानीय मल्हार स्मृति मंदिर मे पदमश्री प्रहलाद सिंह टिपान्या के कबीर भजनों का कार्यक्रम रखा गया है. इस अवसर पर नईम जी को याद करते हुए हम सब लोग कबीर के भजन सुनेंगे, प्रहलाद जी हमारे अपने परिवार के ही है, और प्रसिद्द लोक गायक है. गत वर्ष ही इन्हें पदमश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया है. इस अवसर पर देवास की पूर्व जिलाधीश सुश्री गौरी सिंह जी विशेष अतिथि के रूप मे हमारे साथ रहेंगी . समय होगा शाम सात बजे. आप सभी से आग्रह है कि इस गरिमामयी कार्यक्रम मे जरुर शिरकत करें आपकी उपस्थिति से हमें संबल मिलेगा और हम सब मिलकर मालवा के कबीर भजन सुनेंगे और आख़िरी मे सवाल जवाब भी कर सकेंगे. तो आ रहे है ना आप ?
कहाँ हो विहंग..............लौट आओ विहंग के बिना ताल, आसमान, धरती और सब सुना है........ लौट आओ जल्दी, हम इंतज़ार कर् रहे है............प्रवासी पक्षी इतने दिनों के लिए थोड़े ही जाते है अंदर बाहर....बेचैन है हम सब...........यहाँ और वह असख्यंक सुबहों का सूरज भी इंतज़ार कर रहा है ..तुम्हारा विहंग, प्रवास खत्म करो और लौट आओ...........लौट आओ, लौट आओ......... (विहंग-पक्षी)

उधेड़बुन ख़्वाबों की...............

तार पर टंगे हुए कपडे रात भर से खामोशी से मुझे घूर रहे थे, टेबल पर किताबें, हवा करता पंखा, कोने में पड़े हुए जूते, मेज पर पडी ढेर सारी चीजें मुझे घूरती रही पूरी रात और मै अलमस्त सोया रहा सोचा भी नहीं कि इतनी सारी चीजें कमरें में है और मै.....इन सबसे दूर रहकर एक अनोखे दृश्य में सपनों की दुनिया बुन रहा था........जहां सिर्फ मै था और तुम थे और एक जहान था........सिर्फ स्वप्नों का जहान.......... ये सूरज की तपती हुई धूप है या किसी ने दरवाजा खोल दिया है एकदम से...... सारी रोशनी की चकाचौंध झक्क से अंदर आ गई है...मेरे भीतर, झाँकता हूँ तो दिखता नहीं मेरा स्व जो कही गुम हो गया है इस तेज उजास में...... और मै खोज रहा हूँ एक छाँह को जो तुमसे मिलकर बनती थी मेरे भीतर .......जो मेरी पुतलियों के पीछे कही खो गई है ......रोको, अरे रोको इस उजास को..... यह घुसती चली आ रही है भीतर और भीतर..... ठीक तुम्हारी स्मृतियों की तरह से मेरे भीतर ......और देखों ना इसने आत्मा के पोर तक को जला दिया है.......आज अभी इस क्षण भंगुर होने में....

रांगोली का विश्व रिकॉर्ड और राजकुमार चन्दन...... हमारा देवास एक बार फ़िर विश्व के नक़्शे पर

अपने शहर में अपने लोग कितने परिचित होते है. आज शहर में रंगोली बनाने के विश्व रिकॉर्ड कार्यक्रम में गया था, मित्रों का आग्रह था सो चला गया. लोकप्रिय सांसद सज्जन सिंह वर्मा जी के साथ साथ विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शरद पाचुनकर जी, पूर्व महापौर जय सिंह ठाकुर, भाई मनोज राजानी, प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल सिकरवार जी, सचिव मोदी जी और ढेरों दोस्त जिन्हें मिले हुए अरसा बीत गया था. दिलीप सिरवाल, ड़ा सुरेश शर्मा, भाई अजय सोलंकी, आदिल पठान, विजय श्रीवास्तव जी, अभिषेक, नवीन नाहर, चेतन उपाध्याय, मिर्जा बेग, सुदेश सांगते, और सबसे महत्वपूर्ण राजकुमार चन्दन जिन्होंने तमाम मेहनत करके देवास के तालाब जिसे हम अब मंडूक पुष्पक के नाम से जानते है पर विश्व की सबसे बड़ी रंगोली बनाई है और आज अपने खाते में पांचवा विश्व रिकॉर्ड जोड़ा है.  राजकुमार चन्दन की टीम के युवा साथी जिन्होने भरी गर्मी में तेरह घंटे का समय होने के बाद भी मात्र पांच घंटे तीस मिनिट में यह विश्व रिकॉर्ड बना दिया. मान गये उस्ताद..........देवास में अफजल साहब से शुरू हुई रंगोली की परम्परा मनोज पवार और राजकुमार चन्दन जैसे साथियों क

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही

एंटी रेप बिल 2013 - उपयोग और दुरुपयोग के कुछ जीवंत अनुभव..........

आज एंटी रेप बिल 2013 जो नया आया है हाल ही में, उसे पढ़ रहा था तो लगा कि इस देश में संविधान के खिलाफ जाकर क़ानून बनने लगे है अब. महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की वजह से समूचे पुरुष जगत को अपराधी मान लिया गया है और सारी महिलाए सच्ची, निर्दोष और भोली भाली है. जिस संविधान ने स्त्री पुरुष को बराबरी का मौका दिया है वहाँ आजकल हर जगह महिलाओं को प्राथमिकता दी जाने लगी है यह ठीक है पर अब महिलायें जिस तरह स े सारे कानूनों का बेजा इस्तेमाल करके पुरुषों को येन-केन प्रकारेण फंसाने का काम कर रही है वह बेहद शोचनीय और निंदनीय है. अभी समय है आने वाले समय में इस तरह के भेदभाव से समाज में व्यापक हिंसा फैलेगी और ज्यादा हालात खराब होंगे यह तय है...........अफसोस इसमे सबसे ज्यादा यह है कि ये सब इस्तेमाल करने वाले पढ़ी-लिखी औरतें है जो खुद या तो दिमागी अवसाद से ग्रस्त है या एकल हो गई है अपनी महत्वकांक्षाओं के चलते, या सिर्फ अपने आपको पुरुषों से बढ़-चढ़कर दिखाने के चक्कर में हेकड़ी दिखाना चाहती है. मै कोई महिला सशक्तीकरण के खिलाफ नहीं पर जिस तरह से हालात देख रहा हूँ उससे तो यह लगने लगा ह

ये है मातिहास, फ्रांस के सुदूर कोने से हिन्दुस्तान आया है कुपोषण दूर करने

ये है मातिहास, फ्रांस के सुदूर  कोने से हिन्दुस्तान आया है और कुपोषण का डाक्टर है यहाँ के बच्चों के बारे में बहुत चिंतित है बहुत लंबा और गहरा काम है इसका. राजस्थान और मप्र के दूर दराज के क्षेत्रों में भरी गर्मी में घूम घूम कर लोगों को समझाता है और हर रोज दस से बीस डाक्टरों से मिलकर समझाईश देता है. मप्र में सरकारी अस्पतालों में बने पोषण पुनर्वास केन्द्रों में जाकर काम करने वालों की मदद करता है. "मै यहाँ काम करने आया हूँ, मै आंकड़े इकठ्ठे करके किसी अखबार में लेख नहीं लिखूंगा और अपनी रोजी रोटी कुपोषण से नहीं चलाउंगा, मेरे लिए दुनिया पडी है और एक लंबी उम्र भी...... ना ही मै कुपोषण की घटिया राजनीती में पडना चाहता हूँ, इस देश में मीडिया और एनजीओ ने बच्चों की मौत और वो भी कुपोषण से होने वाली मौतों को अपनी रोजी रोटी का धंधा बना लिया है और मीडिया में भी यही हो रहा है लोग बड़े-बड़े लेख लिखकर मालदार बन रहे है जो कि बहुत ही गंदी सोच का परिचायक है" मातिहास कहता है.   कितना सच कह रहा है यह बन्दा आप बताएं पर मुझे उसकी बात में कोई शक नजर नहीं आता. इसे मैंने  बुरहानपुर में पकड़ा जहां यह गरीब

पिता तुम बहुत याद आ रहे हो.........इस कड़ी होती जा रही धूप में...

माँ बताती थी कि पिताजी की पहली सरकारी नौकरी छैगांव माखन में लगी थी...........वैसे तो साठ रूपये माहवार पर सिंधिया स्टेट में गये थे मास्टर बनकर क्योकि मेट्रिक के बाद नौकरी करना जरूरी था, पर वे जल्द ही छोड़कर आ गये थे, मुरार और लश्कर में हालात ठीक नहीं थे उन दिनों. यह सरकारी नौकरी थी और नब्बे ढाई सौ के वेतनमान में वे महू से खंडवा जाते और फ़िर खंडवा से सायकल लेक र छैगांव माखन तक. आज यह गाँव कितना बदल गया है एक तरह से कहूँ तो हाई वे है और सारी सुविधाओं से लैस पर क्या बदला है यहाँ ? मै खोज रहा हूँ कि कोई तो स्मृति मिल जाये मेरे पिता की, कोई तो गंध मुझे मिल जाये, मै समझना चाहता हूँ  कि कैसे घर से दूर रहकर किन अभावों में वे यहाँ रहे होंगे, कैसे जीते होंगे, क्या खाते होंगे, यह जो चकाचौंध जो आज है वो उस समय तो नहीं थी, सिर्फ पूर्वी निमाड की तेज झुलसने वाली गर्मी और पानी का अकाल, कपास और लाल मिर्च की खेती, बेहद पिछडापन और अल्प वेतन.......घर आने में वो छः माह लगा देते थे, माँ कहती थी कि सारा वेतन दादी को देकर अपने लिए चंद रूपये रख लेते थे एक समय का खाना और जी तोड़ मेहनत करके ज

हर्ष मंदर ने जो मुद्दे उठाए है वो काबिले तारीफ़ है

आज हर्ष मंदर ने अपने कॉलम में दैनिक भास्कर में लिखा है कि एन सी सक्सेना ने भारतीय प्रशासनिक सेवा को सुधारने के लिए कई कड़े कदम उठाने की बात की थी और फ़िर 2008 में आये प्रशासनिक सुधार समिति के सुझावों का भी जिक्र किया. हर्ष ने अपने लेख के शीर्षक में इस सेवा को "इस्पात का ढांचा" कहा है इसका मतलब क्या है? लोकतंत्र में इस्पात का ढांचे का आशय है कोई इस परदे के पीछे झाँक ना सके कहते है ना अंग्रेजी में "You cant peep behind the Iron Curtains" सवाल बड़ा गंभीर है पिछले साठ बरसों में नेताओं और मक्कारों ने देश का कबाडा किया है ही, इससे ज्यादा कबाडा इस ब्यूरोक्रेसी ने किया है. आज भी यह ब्यूरोक्रेसी समाज और तंत्र का वह हिस्सा है जो अलोकतांत्रिक, घोर तानाशाह और गैर जवाबदेह है. जब एक चाय की दूकान चलेगी या नहीं से लेकर देश के राष्ट्रपति का चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से होता है तो यह नौकरशाही कैसे मनमर्जी से देश चला सकती है.............जिले में बैठा एक अधिकारी क्या इतना बड़ा खुदा है कि वह मछली से लेकर खनिज, प्रसव, शिक्षा और ना जाने कौन-कौन से मुद्दे सम्हाल ले. क