आज
एक समकालीन साहित्यकार मित्र से बातें हो रही थी. बड़ा विचित्र माहौल हो
रहा है समय का प्रभाव बड़ा घातक सिद्ध होता जा रहा है अनुभवी लेखकों और
साहित्यकर्मियों पर. आज हिन्दी साहित्य मे जो नए लेखक उभर रहे है वे बहुत
ठोस जमीन से नहीं बल्कि एनजीओ, आंदोलन, मैदानी लड़ाईयों और बदलाव की
पृष्ठभूमि से परिचित होकर आ रहे है क्या रच रहे है, इसका अभी ठीक ठीक
मूल्यांकन होना बाकि है पर ठीक इसके साथ साथ साहित्य मे एक ऐसे बड़े वर्ग की
घुसपैठ बन गई है जो सत्ता संपन्न और धन धान्य से भरा हुआ है. यह वर्ग एक
इशारे पर रोज कहानी, कविता, उपन्यास और दसियों लेख एक साथ कई अखबारों मे
छपवाने की कूबत रखता है और छपवा भी रहा है. मै कोई नई बात नहीं कह रहा इस
सबसे हम वाकिफ भी है और चिंतित भी. अब सवाल यह है कि जो संपन्न है या पूंजी
का सहारा लेकर या प्रकाशकों को रूपया देकर छपवा रहे है या खुद प्रकाशक बन
गये है और माता-पिता से लेकर कुत्तों-बिल्लियों की स्मृति मे बड़े आयोजन कर
रहे है और स्मारिका से लेकर मासिक पत्र निकाल रहे है, उनका क्या ? क्या वे
नए और सच मे भाषा मे लिखने वाले और अपने नए विचारों
से इस दुनिया को बदलने का ख्वाब लेकर लिखने वालों पर कुछ करेंगे क्योकि ये
दलिदर लेखक ना ये संपन्न है, ना इतने अमीर कि एक किताब छपवा सके या किसी
वृहद आयोजन मे शिरकत कर सके, मठाधीशों की बराबरी तो दूर पर कुछ भी ना कर
सके, पर ये बेहद ईमानदार लेखक है जो भाषा मे प्रवीण और अपने विचार और
सिद्धांतों मे परिपक्व है. ये इस समय नहीं जान रहे कि ये जो पूरा "नेक्सस"
बन रहा है इन नव धनाड्य वर्ग का, कॉलज के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का,
एनजीओ और ऐसे ही कारपोरेट घरानों से आये लोगों का और मीडिया द्वारा
प्रचारित लोगों का, वे इनसे कैसे निपटे ??? सवाल काफी बड़ा है और राज्याश्रय
की बात करना भी अब बेमानी हो गया है हम जन रहे है ऐसे मे साहित्य पर
मालिकाना हक और रचनात्मकता का क्या होगा यह बड़ा प्रश्न है. मुझे नहीं पता
कि मै इस प्रश्न और मेरे मित्र की बात को यहाँ ठीक से रख पा रहा हूँ या
नहीं पर दिमाग मे एक हलचल तो हुई है. कई लेखकों से बात करके समझ आया कि इसी
दबावों के चलते वे लिखना या तो छोड़ रहे है या ऐसे किसी बुलंदी को खोज रहे
है जो केवट बनकर नैया पार लगा दें पर हर राम को केवट भी नहीं मिल रहा
क्योकि केवट आजकल बड़े समुद्रों मे बड़े स्टीमर चला रहे है और हर स्टीमर
बेहतरीन शराब, शबाब और सुविधाओं से परिपूर्ण है, अब ऐसे मे ये जो सच्चे
लेखक है, क्या करें. एक गीत है ना "जाये कहाँ, समझेगा कौन यहाँ दिल की
जुबाँ........
— with Subodh Shukla.
आज
एक समकालीन साहित्यकार मित्र से बातें हो रही थी. बड़ा विचित्र माहौल हो
रहा है समय का प्रभाव बड़ा घातक सिद्ध होता जा रहा है अनुभवी लेखकों और
साहित्यकर्मियों पर. आज हिन्दी साहित्य मे जो नए लेखक उभर रहे है वे बहुत
ठोस जमीन से नहीं बल्कि एनजीओ, आंदोलन, मैदानी लड़ाईयों और बदलाव की
पृष्ठभूमि से परिचित होकर आ रहे है क्या रच रहे है, इसका अभी ठीक ठीक
मूल्यांकन होना बाकि है पर ठीक इसके साथ साथ साहित्य मे एक ऐसे बड़े वर्ग की
घुसपैठ बन गई है जो सत्ता संपन्न और धन धान्य से भरा हुआ है. यह वर्ग एक
इशारे पर रोज कहानी, कविता, उपन्यास और दसियों लेख एक साथ कई अखबारों मे
छपवाने की कूबत रखता है और छपवा भी रहा है. मै कोई नई बात नहीं कह रहा इस
सबसे हम वाकिफ भी है और चिंतित भी. अब सवाल यह है कि जो संपन्न है या पूंजी
का सहारा लेकर या प्रकाशकों को रूपया देकर छपवा रहे है या खुद प्रकाशक बन
गये है और माता-पिता से लेकर कुत्तों-बिल्लियों की स्मृति मे बड़े आयोजन कर
रहे है और स्मारिका से लेकर मासिक पत्र निकाल रहे है, उनका क्या ? क्या वे
नए और सच मे भाषा मे लिखने वाले और अपने नए विचारों
से इस दुनिया को बदलने का ख्वाब लेकर लिखने वालों पर कुछ करेंगे क्योकि ये
दलिदर लेखक ना ये संपन्न है, ना इतने अमीर कि एक किताब छपवा सके या किसी
वृहद आयोजन मे शिरकत कर सके, मठाधीशों की बराबरी तो दूर पर कुछ भी ना कर
सके, पर ये बेहद ईमानदार लेखक है जो भाषा मे प्रवीण और अपने विचार और
सिद्धांतों मे परिपक्व है. ये इस समय नहीं जान रहे कि ये जो पूरा "नेक्सस"
बन रहा है इन नव धनाड्य वर्ग का, कॉलज के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का,
एनजीओ और ऐसे ही कारपोरेट घरानों से आये लोगों का और मीडिया द्वारा
प्रचारित लोगों का, वे इनसे कैसे निपटे ??? सवाल काफी बड़ा है और राज्याश्रय
की बात करना भी अब बेमानी हो गया है हम जन रहे है ऐसे मे साहित्य पर
मालिकाना हक और रचनात्मकता का क्या होगा यह बड़ा प्रश्न है. मुझे नहीं पता
कि मै इस प्रश्न और मेरे मित्र की बात को यहाँ ठीक से रख पा रहा हूँ या
नहीं पर दिमाग मे एक हलचल तो हुई है. कई लेखकों से बात करके समझ आया कि इसी
दबावों के चलते वे लिखना या तो छोड़ रहे है या ऐसे किसी बुलंदी को खोज रहे
है जो केवट बनकर नैया पार लगा दें पर हर राम को केवट भी नहीं मिल रहा
क्योकि केवट आजकल बड़े समुद्रों मे बड़े स्टीमर चला रहे है और हर स्टीमर
बेहतरीन शराब, शबाब और सुविधाओं से परिपूर्ण है, अब ऐसे मे ये जो सच्चे
लेखक है, क्या करें. एक गीत है ना "जाये कहाँ, समझेगा कौन यहाँ दिल की
जुबाँ........
— with Subodh Shukla.- Get link
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