आज
हर्ष मंदर ने अपने कॉलम में दैनिक भास्कर में लिखा है कि एन सी सक्सेना ने
भारतीय प्रशासनिक सेवा को सुधारने के लिए कई कड़े कदम उठाने की बात की थी
और फ़िर 2008 में आये प्रशासनिक सुधार समिति के सुझावों का भी जिक्र किया.
हर्ष ने अपने लेख के शीर्षक में इस सेवा को "इस्पात का ढांचा" कहा है इसका
मतलब क्या है? लोकतंत्र में इस्पात का ढांचे का आशय है कोई इस परदे के पीछे
झाँक ना सके कहते है ना अंग्रेजी में "You cant peep behind the Iron
Curtains"
सवाल बड़ा गंभीर है पिछले साठ बरसों में नेताओं और
मक्कारों ने देश का कबाडा किया है ही, इससे ज्यादा कबाडा इस ब्यूरोक्रेसी
ने किया है. आज भी यह ब्यूरोक्रेसी समाज और तंत्र का वह हिस्सा है जो
अलोकतांत्रिक, घोर तानाशाह और गैर जवाबदेह है. जब एक चाय की दूकान चलेगी या
नहीं से लेकर देश के राष्ट्रपति का चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से होता
है तो यह नौकरशाही कैसे मनमर्जी से देश चला सकती है.............जिले में
बैठा एक अधिकारी क्या इतना बड़ा खुदा है कि वह मछली से लेकर खनिज, प्रसव,
शिक्षा और ना जाने कौन-कौन से मुद्दे सम्हाल ले.
कभी जिले से पूछा नहीं जाता कि आपको कौनसा अधिकारी चाहए, यह हमेशा एक
प्रमुख नौकरशाह द्वारा थोप दिया जाता है जिले पर, जो आकर सत्यानाश करता है.
इअनके कार्यों के मूल्यांकन कौन करता है वही ब्यूरोक्रेसी में बैठा दूसरा
चोर, क्या स्थाने निकायों और जिला पंचायत के प्रतिनिधियों से नहीं पूछा
जाना चाहिए कि ये क्या कर रहे है जिले में या लोगों से कभी विचार लिए जाये
कि क्या वो अपने कलेक्टर से खुश है या एसपी से नाराज?
वह
व्यवस्था जो खुद तानाशाही भरी हो वह क्या लोकतंत्र को मजबूत आधार प्रदान
करेगी? दूसरा सब इस गोरख धंधे में शामिल है. मप्र में ऐसे अनेक प्रमुख सचिव
स्तर के अधिकारी है जिनपर सात आठ सौ करोड रूपयों के आरोप तय है मामले
अदालतों में है, पर फ़िर वे पदों पर आसीन है और सरकार निठल्लों की तरह से
बैठी देख रही है और उनसे काम ले रही है. और शर्मनाक बात यह है कि दूसरे
भ्रष्ट अधिकारी जो लोकायुक्त के यहाँ चक्कर काट रहे है अब वे भी प्रमुख
सचिव बनने की बेशर्मी भरी मांग करने लगे है और तर्क दे रहे है कि "अगर
सुधीरंजन मोहंती पर केस है और वे प्रमुख सचिव है तो मै शशि कर्णावत क्यों
नहीं सचिव का अधिकार रखती हूँ. (सन्दर्भ आज का नईदुनिया और भास्कर) कितना
शर्मनाक है पर किसे पडी है.... सब एक ही खेत की मूली है, अरविंद और टीनू
जोशी को अदालत में खडा करने में सरकार को पसीना आ गया है और मुख्य सचिव ने
मामला इतना लटकाया है कि मानो वे पैरवी करने लगे हो इन महात्माओं की.
हर्ष मंदर ने जो मुद्दे उठाए है वो काबिले तारीफ़ है पर ज़रा हर्ष खुद बता
देते कि ये नौकरशाही कितनी तानाशाह है जो लोकतंत्र को मजबूती देने की बात
करती है, और खुद हर्ष भूल गये जब उन्होंने बी डी शर्मा को पिटवाया था जब
वे बस्तर कलेक्टर थे.......??? आज ज्ञान की बात कर रहे है !!!!
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