दरवाजे
पर खडा रहा था, घंटी बज रही थी लगातार और अंदर से कोई आहट
नहीं........पाँव पसारने की आवाज नहीं और कोई सन्नाटे का शोर नहीं, जैसे
धूप की छाया मे प्रतिकृति बन रही हो मानो.....बस यूँ ही एक युग बीत गया
खड़े-खड़े और इंतज़ार करते करते.........पर दरवाजा नहीं खुला है....... शायद
अब इंतज़ार भी दूसरे पाँव पर करवट लेकर कही सो रहा है और समय है कि झट से
किसी सदी मे से भाप की तरह उड़ने को बेकरार है.......कही ये अपने
होने की अदावत तो नहीं, कही अपनी ही दबी आवाज मे एक खराज तो नहीं, जो कही
ना कही से किसी धैवत मे कोमल निषाद की तरह से तीन ताल मे निबद्ध होकर पुरे
संगीत को किसी अनजान दिशा मे भटका रही है..... और ये सदियो से अटका दरवाजा
खुल ही नहीं रहा और उस पार से कही आवाज गूँज रही है........लौट आओ...... ये
आख़िरी पल है .......बेचैनी बढ़ रही है इस पाँव पर पूरी देह का बोझ लटक गया
है और साँसों का स्पंदन भी देखते देखते बढ़ गया है ...........बस अब देखो
खुला वो दरवाजा..........चरमराहट बढ़ गई है .............और वो एक धुंध जो
कही थी छटने लगी है और बस ........आ जाओ साथ का सफर पूरा करते
है.........आओ लौट आओ ..........
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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