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ये मौत का मंजर है जो दूर तलक जाकर मंजिल को मिला देगा.


दरवाजे पर खडा रहा था, घंटी बज रही थी लगातार और अंदर से कोई आहट नहीं........पाँव पसारने की आवाज नहीं और कोई सन्नाटे का शोर नहीं, जैसे धूप की छाया मे प्रतिकृति बन रही हो मानो.....बस यूँ ही एक युग बीत गया खड़े-खड़े और इंतज़ार करते करते.........पर दरवाजा नहीं खुला है....... शायद अब इंतज़ार भी दूसरे पाँव पर करवट लेकर कही सो रहा है और समय है कि झट से किसी सदी मे से भाप की तरह उड़ने को बेकरार है.......कही ये अपने होने की अदावत तो नहीं, कही अपनी ही दबी आवाज मे एक खराज तो नहीं, जो कही ना कही से किसी धैवत मे कोमल निषाद की तरह से तीन ताल मे निबद्ध होकर पुरे संगीत को किसी अनजान दिशा मे भटका रही है..... और ये सदियो से अटका दरवाजा खुल ही नहीं रहा और उस पार से कही आवाज गूँज रही है........लौट आओ...... ये आख़िरी पल है .......बेचैनी बढ़ रही है इस पाँव पर पूरी देह का बोझ लटक गया है और साँसों का स्पंदन भी देखते देखते बढ़ गया है ...........बस अब देखो खुला वो दरवाजा..........चरमराहट बढ़ गई है .............और वो एक धुंध जो कही थी छटने लगी है और बस ........आ जाओ साथ का सफर पूरा करते है.........आओ लौट आओ ..........

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