पंचायती
राज की कल बीसवीं वर्षगाँठ है यह समय है थोड़ा ठहर कर सोचने विचारने का समय
है कि क्या वास्तव मे पंचायतें अपनी भूमिका निभा पाई, क्या सच मे सत्ता
का विकेन्द्रीकरण हो पाया, क्या वास्तव मे महिलायें आरक्षण देने के बाद भी
काम कर पा रही है, क्या सरपंच पति की भूमिका खत्म हो गई है, क्या पंचायती
राज संस्थाओं के लिए काम करने वाले एनजीओ वास्तव मे कुछ कर रहे है या अपनी
ही गाड़ी और मदमस्त होकर बुद्धिजिवीता हांक रहे है, कंसल्टेंट के नाम पर
बूढ़े और लाचार सब्जबाग दिखाकर लूट तो नहीं रहे, सरकारों ने इसे अमलीजामा
पहनाने के लिए कितना डीवोल्युशन किया है. ज़रा सोचे और फ़िर गंभीरता से
विचारे कि क्या पंचायतें लोगो की है या सिर्फ सत्ता मे मस्त सरकारों की
एजें,ट सोचे....... और इस पर ज्यादा सोचे कि पंचायतों मे पंचायतों के लिए
कौन काम कर रहा है और उनकी नीयत क्या है, क्या है उनके चारित्रिक मूल्य, और
क्या है उनकी मंशा....चाहे एनजीओ हो, उनमे काम करने वाले लोग या उन्हें
पालने वाली संस्थाएं यानी फंडिंग एजेंसी या सरकार नाम के माईबाप...........
मप्र
मे मैंने सिर्फ और सिर्फ पंचायतों को पिछले दशक मे हाशिए पर जाते देखा है
और यह काम सबने मिल जुलकर किया है बहुत सुगठित तरीके से और लामबंद होकर.
सरकार, मीडिया, एनजीओ, फंडिंग सस्थाएं, मंत्री, पंचायती राज के पैरोकार,
न्याय पालिका और ब्यूरोक्रेटस्. किसी भी तंत्र को इतनी जल्दी विकसित और
खत्म होते दुनिया के किसी मुल्क ने नहीं देखा होगा. नित नए नवाचार, अपढ़
लोगों के सुझावों पर प्रयोग, लाचार-बूढ़े और तंत्र
से निष्कासित कर दिए गये लोगों की भीड़ जिन्हें आजकल कंसल्टेंट कहा जाता है
और ये जो पेंशन के साथ मोटी फीस और गैरवाजिब सुविधाएँ भी भकोसते है, के
उलजुलूल सुझाव और पंचायत के नाम पर धोखा करकेअपना नाम करने के लिए लिखी गई
हजारों टन की बकवास सामग्री का प्रकाशन, अफसरों की फौज द्वारा चुने हुए
प्रतिनिधियों की लगातार उपेक्षा और इससे उपजा गुस्सा दबाया जाना, यह सब
दर्शाता है कि क्या देश के हालात है आज पंचायतें सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार
का और स्थानीय स्तर पर अव्यवस्थाओं का अड्डा बनाकर रह गई है. इस दौरान कुछ
पंचायतों ने बहुत अच्छा काम किया पर अपने दम पर और अपने जज्बे पर, बाकि
शुक्र यह था कि ये तथाकथित नवाचारी लोग पहुंचे नहीं वहाँ, वरना और कबाडा
हो जाता. खैर, ग्राम सभा की हालत तो ऐसी हो गई है मानो कुत्ता फजीहत और
वहाँ कोई ऐसा दम ठोककर कहने वाला बन्दा नहीं है जो कह सके कि हाँ मै पंचायत
अधिनियम के तहत सारे काम ग्राम सभा की देखरेख मे करता हूँ.
हालात इतने
खराब है कि धारा चालीस के केस बढे है, और जन प्रतिनिधियों को अपमानित करने
और प्रताडित करने के लिए ब्यूरोक्रेसी ने नए हथियार बना लिए है. बडवानी
इसका ताजा उदाहरण है. जन प्रतिनिधियों की ना जिला पंचायत के मुख्य अधिकारी
सुनते है, ना जनपद के, ना कलेक्टर !!! विधायक, सांसदों ने तो इन्हें अपना
चार सौ बीसी का एजेंट नियुक्त कर रखा है. जिला योजना के दफ्तर मे एक बाबू
जन प्रतिनिधि को हडका देता है या अपना कमीशन सेट करता रहता है सारे समय,
बाकि तो छोडिये साहब कभी देखिये कि जिला योजना समिति की बैठक मे इनकी जो
दुर्गति प्रशासनिक अधिकारी करते है वो तो बेहद शर्मनाक है. कुल मिलाकर मुझे
लगता है कि पंचायती राज व्यवस्था मप्र मे फेल हो गई है और इसके लिए
जिम्मेदार राजनीती से लेकर पंचायत प्रतिनिधि खुद भी है. अब सवाल यह है कि
इस पुरे मकडजाल से कैसे निकला जाये और मूल भावना को बचाकर इस व्यवस्था को
फ़िर से सक्रीय, जनोन्मुखी और लाभदायक बनाया जाये. बस यह सवाल कृपया सरकारी
अधिकारियों, एनजीओ और बुद्धिजीवियों से ना पूछा जाकर सीधे उन्ही से पूछा
जाये जो सीधे-सीधे इस व्यवस्था से जुड़े है. कल बीस साल पुरे होने की खुशी
मे फ़िर जलसे होंगे, ग्रांट का उपभोग होगा, और नए विचार सुझाएंगे
जायेंगे.... पर सावधान यह सब पंचायत राज की मूल भावना के लिए बहुत घातक है,
सावधान, होशियार, खबरदार.... बचो, बचो लोकतंत्र के इन तथाकथित पहरेदारों
उर्फ भेडियों से बचो.
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