पिछले दिनों अनुपम मिश्र जी को सुना उनका पानी बचाने का अभियान, राजस्थान के तालाबों पर काम समझा और "आज भी खरे है तालाब" जैसी किताब को भी पढ़ा है दर्जनों बार सन्दर्भ के रूप में इसे इस्तेमाल भी किया है. पर एक बात मुझे समझ नहीं आती कि अनुपम जी क्यों राजस्थान के जैसलमेर के माडल को सारे देश पर लादना चाहते है? जैसलमेर की परिस्थितयां चार सौ साल पहले भी देश के बाकी हिस्सों से अलग थी और आज भी बिलकुल अलग है. तालाब बनाना पानी की समस्या का स्थाई और सामान्य हल नहीं है यह बात हमें गाँठ लेनी चाहिये. आज पानी की जरूरतें ना मात्र बदली है बल्कि पानी बचाने के नए तरीकों पर भी खुलकर बात करनी होगी, और मेरी समझ में वरिष्ठता को और गांधीवादी समर्पण को छोड़ दे तो हमें अपने तईं पानी बचाने के नए माडल आधुनिक जरूरतों के हिसाब से तय करना होंगे, अब समय बदल गया है, खेती के लिए जमीन नहीं बची है, रहने के लिए आशियाने नहीं बन रहे, रेल और सडकों का जाल बुना जा रहा है, हर जगह फोर लेन - सिक्स लेन का प्रचलन बढ़ा है जो कि समय की मांग भी है और जायज भी है. कहाँ है तालाबों के लिए जगह, बेहतर होगा कि हम अतीत के गुणगान छोड़कर आज के समय की सुध ले. दूसरा मैंने कई भू वैज्ञानिकों से बात की कई साथियों ने बताया कि राजस्थान के तालाब और जमीन की बात अलग है यहाँ मप्र, उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे राज्यों में वह माडल रेप्लीकेट नहीं हो सकता. खुद अनुपम जी इस बात को जानते होंगे और सिर्फ अनुपम जी क्यों पानी वाले बाबा यानी राजेन्द्र सिंह जी भी इस बात को जानते होंगे पर अब चूँकि वे एक लम्बे समय से राजस्थान के परम्परागत माडलों का बखान कर रहे है तो नया कैसे दिखाएँगे और दर्शायेंगे ? मै इन दोनों महापुरुषों के काम में पुरी श्रद्धा रखता हूँ और उनके काम का सम्मान भी करता हूँ पर मेहरबानी करके अब बंद कीजिये और नए सन्दर्भ में नई बात कीजिये, हमारे सामने बड़े बाँध, बड़ी नहरें है जो लाख विरोध के बाद बन ही गयी है, बिजली बन ही रही है राजनैतिक इच्छा शक्ति के कारण देश के अधिकतर राज्य अब सभी जिलों में चौबीसों घंटे बिजली देने को कृत संकल्पित भी है तो मुझे लगता है की राजस्थान के अतीत का गौरव गान बंद करके नया कुछ सृजित करें। सिर्फ नर्मदा, गोदावरी या यमुना पर आधारित हमारे घर, उद्योग धंधें, और खेती के लिए पानी बचाने के नए प्रयोग करें और इन्हें जन मानस में फ़ैलाये. सिर्फ अपने भव्य आभा मंडल में बैठकर पुराने अतीत का राग गाने से काम नहीं चलेगा. दूसरा हमें यह भी देखना होगा की जमीन, चट्टानें कैसी है, क्या ये पानी को धंसने, रोकने और नई आव आने देने के लिए उपयुक्त है? अगर हाँ तो हम सामान्यीकरण करें अन्यथा हर जगह के लिए वहाँ की परिस्थिति को समझ कर हमें वैलाक्ल्पिक मार्ग खोजना होंगे . देवास जिले में सात आठ बरस पहले तत्कालीन जिलाधीश उमाकांत उमराव ने रेवा परियोजना में सभी किसानों को प्रोत्साहित किया था कि वे अपने तालाब में एक छोटा तालाब बनाए और बरसात का पानी संगृहीत करें, पुरे जिले में किसानों ने अपने पसीने की कमाई से लगभग चालीस हजार तालाब जोश में आकर बनाए थे परन्तु कालान्तर में अधिकाँश तालाब ढह गए क्योकि पुरे जिले में जमीन, चट्टान और पानी सोखने की क्षमता अलग अलग थी, आज बमुश्किल चार-पांच हजार तालाब बचे होंगे पुरे जिले मे. अगर एक जिले की जमीनी हकीकतें इतनी अलहदा है तो हम कोई माडल, वो भी राजस्थान का, कैसे पुरे देश पर लागू करने की बात कर सकते है? भावुक होकर समर्पण भाव से मूल्यों को ध्यान में रखकर सुनना बोलना अच्छा लगता है पर तालाब हर समस्या का समाधान कतई नहीं है यह हमें जल्दी समझ लेना चाहिये.
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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