- चण्डीदत्त शुक्ल
वे सब के सब, जो दिल के करीब थे, एक-एक कर जाते रहे और इस वक्त के पन्नों पर दर्ज होती रहीं बस जुदाई की इबारतें। चंद महीनों में कुछ नाम महज किताबों, वेबसाइट्स और पुराने अखबारों के जर्द पन्नों में ही बचे रह जाएंगे। अपनी संपूर्ण क्रूरता केसाथ ये सत्य है कि गुजर गए लोगों के साथ कुछ भी नहीं ठहरता, पर इससे ज्यादा अफसोसनाक एक सच और भी है। हमें तब तक किसी को याद करने की फुरसत नहीं मिलती, जब तक वह दुनिया में होता है।
यह हालत हमारी ही नहीं, अदब के चौबारों की है और सरकारों की भी! इस साल कई अजीज चले गए। किसका कद कितना बड़ा था, यह बयां की बात नहीं है। सोचने लायक मुद्दा ये है कि जब तक वे हमारे आसपास थे, हमने उन्हें कितना सोचा-समझा, जाना-पहचाना और सराहा? आखिरकार, राजसत्ता ने कवियों-लेखकों-फिल्मकारों का हाल जानने की फुरसत क्यों नहीं जुटाई? क्या सरकारें भी इसी बात पर यकीन करती हैं कि मृत्यु के बाद ही व्यक्ति महान होता है!
यूं, किसी भी सृजनधर्मी को प्रसिद्धि, सम्मान और धन की प्रतीक्षा और परवाह नहीं होती। साहित्य के नोबेल पुरस्कार से अलंकृत लैटिन अमेरिकी लेखक गैब्रियल गार्सीया मार्केज कह भी चुके हैं कि प्रसिद्धि उन्हें डराती है, लेकिन यह तो रचनाकार का दृष्टिकोण है। हमारा फर्ज क्या है, यह एक दीगर सवाल है..।
उत्तरप्रदेश के गोंडा जिले में रहते हैं रामनाथ सिंह। बुजुर्ग हैं। खांटी गंवई इंसान हैं। जिस्म पर मैली धोती, खुरदुरी-बिना बनावट वाली जबान उनकी पहचान है। सीधे-सपाट, साफगो इंसान हैं, उतने ही खुद्दार भी। इन दिनों वहां के एक प्राइवेट अस्पताल में बेहद नाजुक हालत में इलाज करा रहे हैं।
रामनाथ सिंह यानी ‘अदम गोंडवी’ हिंदी गजल के जीवित शायरों में सबसे बड़े हस्ताक्षरों में से एक हैं। अदम ने अपना जीवन सामंतवादी ताकतों, भ्रष्टाचारियों, कालाबाजारियों और पाखंडियों के खिलाफ लिखते हुए बिताया है, लेकिन एक भी बड़ा, सरकारी सम्मान उनके खाते में नहीं है।
सम्मान तो दूर की बात, इलाज के लिए कोई सरकारी मदद भी उनके हिस्से में नहीं आई है। ये हालत एक ऐसे शायर की है, जिसका रचनाकर्म झिंझोड़ देने वाला है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है। ‘काजू भुनी प्लेट में, व्हिस्की गिलास में/उतरा है रामराज्य, विधायक निवास में’, ‘आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को’ सरीखी कविताएं उन्होंने ही लिखी हैं।
भारत से लेकर सुदूर रूस तक वे पढ़े जाते हैं, लेकिन प्रकाशन के नाम पर दो किताबें और कवि सम्मेलनों के सिवा उनके हिस्से में कोई राष्ट्रीय-प्रादेशिक सम्मान नहीं है, न ही अब जीवन बचा लेने के लिए सरकार से उन्हें कोई मदद मिल रही है। अदम ही क्यों, बाबा नागाजरुन, मंटो, मुक्तिबोध, निराला समेत दर्जनों ऐसे नाम हैं, जिन्हें यूं तो बहुत सम्मान मिला, लेकिन सांस रहते नहीं। जीवन में अगर हासिल हुआ भी, तो तब, जब वे सम्मान और धन का लाभ उठाने की स्थिति में नहीं रह गए थे। जिंदगी रहते हुए तो ऐसे रत्नों को महज मुफलिसी और मुकदमे ही मिले।
यह संयोग नहीं कि बहुत-से अफसर तुकबंदियां भी करें तो साहित्यिक अकादमियों के अध्यक्ष-सचिव बना दिए जाते हैं और माटी से जुड़े साहित्यकारों को सरकारी तौर पर तब स्वीकृति मिलती है, जब वे दुनिया से कूच कर चुके होते हैं। अदम का स्वास्थ्य बेहतर हो, वे खूब जिएं, कामना यही है, लेकिन ये बड़ा सवाल है कि जिस समाज की बेहतरी के लिए कलमकार तिल-तिलकर मरते रहते हैं, उन्हें जिलाने की, प्रतिष्ठा और प्यार देने की कोशिश हमारा समाज और सत्ता क्यों नहीं करते? दुनिया के कई मुल्कों में सड़कों पर कलाकारों और साहित्यकारों के बुत लगाए जाते हैं, लेकिन अपने देश के रास्ते नेताओं की मूर्तियों से कब खाली होंगे?
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अदम जी की कविताएं आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं…
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