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इस बार भी सैलाब का पानी...

"देर तक बैठे हुए, दोनों ने बारिश देखी...
वो दिखाती थी मुझे बिजली के तारों पे लटकती हुई बूँदें...
जो ताकुब में थी एक दुसरे के..
और एक दुसरे को छूटे ही तारो से टपक जाती थी..

मुझको ये फ़िक्र के बिजली का करेंट
छु गया नंगी किसी तार से तो..
आग के लग जाने का भय होगा..

उसने कागज़ की कई कश्तियाँ पानी में उतारी..
और ये कह के बहा दी के..समंदर में मिलेंगे...

मुझको ये फ़िक्र, के इस बार भी सैलाब का पानी...
कूद के उतरेगा कोहसार से जब..
तोड़ के ले जायेगा ये कच्चे किनारे..

ओक में भरके वो बरसात का पानी...
अधभरी झीलों को तरसाती रही..
वो बहुत छोटी थी, कमसिन थी,
वोह मासूम बहुत थी..
आविशारों के तरन्नुम पे कदम रखती थी...
और गूंजती थी..

और मैं... उम्र के इफ्कार में गूम...
तजुर्बे-हमराह लिए...
साथ ही साथ में
बहता हुआ...चलता हुआ... बहता गया...."

--- गुलज़ार

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