गर्मी
की लंबी उंघती दोपहर कही से कोई हवा का झोंका नहीं, कोई सरसराहट नहीं, कोई
हलचल नहीं, कोई आवाज नहीं, एक लंबी चुप्पी, एक खामोश जिस्म, मिट्टी के
ढेलो से कुछ गिनने की नाकाम कोशिश और फ़िर दूर कही आसमान में प्रचंड वेग से
आती किरणों को लगातार घूरते हुई टक्कर देने की जिद्द और एक
लाचारी..........यह दोपहर क्या लेकर जायेगी........? क्या छोड़ जायेगी...?
क्या कुछ कह कर जायेगी या यूँही बस गुजर जायेगी...........जैसे बीत गई एक
पूरी सांझ और रात कल बिना किसी कोलाहल के और छूट गया इन्ही साँसों का सफर
तनहा तनहा .............
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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