प्लास्टिक
का कव्हर होता था हलके नीले रंग का. बजरंग पुरे के मकान में जब बिजली चली
गई तो एक मोमबत्ती लगाकर रख दी उस पर फ़िर क्या था नींद लग गई थोड़ी देर बाद
कुछ जलने की बदबू आई. देखा तो सारा रेडियो जल चुका था उसके कल पुर्जे जल
चुके थे और प्लास्टिक बह रहा था. पापा से
कहने की हिम्मत नहीं पर उन्होंने कुछ नहीं किया ना दांता ना फटकारा चुपचाप मौसी के नंदोई को
सुधारने को एक सौ के नोट के साथ दे दिया, वे नंदा नगर में रहते थे. जब भी
इंदौर जाते तो मौसी के लड़कों से पूछता कि हमारा रेडियो सुधर गया क्या. पर
वो रेडियो कभी नहीं सुधरा और फ़िर घर टू इन वन आया पर उसमे ना वो मजा था ना
कुछ सुनने का मन करता था. पर आज तक मुझे अफसोस है. आज यह आशुतोष तुम्हारी
पोस्ट देखकर मन करता है कि चिल्लाकर कह दूँ और कन्फेस कर लू कि पापा जहां
कही भी सुनो वो रेडियो मेरी गलती से जला था ...............
रेडियो पर भाई Brajesh Kanungo की कविता भी जाने-अनजाने में गूँज जाती है दिमाग में अक्सर .....और Prabhu Joshi जिन्हें हम प्यार से प्रभु दा कहते है, ने जो इंदौर रेडियो पर आने के अवसर दिए उसे कैसे भूल सकता हूँ. बाद में भोपाल में मेरे विक्रम विवि उज्जैन के जूनियर राजेश भट्ट ने और छतरपुर आकाशवाणी पर भी दोस्तों ने अवसर दिए है. रेडियो अपने आप में एक पूरी परम्परा है.
रेडियो पर भाई Brajesh Kanungo की कविता भी जाने-अनजाने में गूँज जाती है दिमाग में अक्सर .....और Prabhu Joshi जिन्हें हम प्यार से प्रभु दा कहते है, ने जो इंदौर रेडियो पर आने के अवसर दिए उसे कैसे भूल सकता हूँ. बाद में भोपाल में मेरे विक्रम विवि उज्जैन के जूनियर राजेश भट्ट ने और छतरपुर आकाशवाणी पर भी दोस्तों ने अवसर दिए है. रेडियो अपने आप में एक पूरी परम्परा है.
मन में रेडियो के अनेक संस्मरण हैं.
रेडियो घर में आया होगा 71-72 में. उसके पहले 'बिनाका' या 'विशेष जयमाला' सुनने आस-पड़ोस के घर जाना पड़ता.तब पिताजी का ट्रांसफर हुआ था और जाने से पहले वे हमारे लिए रेडियो ले आए थे. मरफी का रेडियो था. एरियल वाला. उसके आने का अद्भुत रोमांच था.मुझे उसमें बजा पहला गाना तक याद है-"खिलते हैं गुल यहाँ,खिल के बिछड़ने को..."
वॉल्व वाला रेडियो. धीरे-धीरे ऑन होता. जैसे जादू का पिटारा हो. तब पूरा हिन्दुस्तान रेडियो पर समचार सुनता. 'हवामहल' की सिग्नेचर ट्यून घर-घर से सुनाई देती. इतनी दुपहरें रेडियो के साथ बीती हैं कि उसका कोई हिसाब नहीं. पिताजी की साइकिल आती दिखाई देती तो झटपट रेडियो बन्द कर किताबें खोल कर बैठ जाते. रेडियो पर वे सिर्फ समाचार और हवामहल सुनना पसंद करते थे. हम सब कुछ .
वह रेडियो बरसों साथ रहा. पर उसका वक़्त चला गया. बाद में उसे जीवित रखने की सारी कोशिशें बेकार हुईं . वह अब यादों में रखा है,और उस समय के गाने उसमें अब भी बजते हैं. उन तमाम दुपहरियों को जीवित करते हुए, जब हवा कुछ और ढंग से बहती थी और बारिश की खुशबू कुछ और थी.
रेडियो घर में आया होगा 71-72 में. उसके पहले 'बिनाका' या 'विशेष जयमाला' सुनने आस-पड़ोस के घर जाना पड़ता.तब पिताजी का ट्रांसफर हुआ था और जाने से पहले वे हमारे लिए रेडियो ले आए थे. मरफी का रेडियो था. एरियल वाला. उसके आने का अद्भुत रोमांच था.मुझे उसमें बजा पहला गाना तक याद है-"खिलते हैं गुल यहाँ,खिल के बिछड़ने को..."
वॉल्व वाला रेडियो. धीरे-धीरे ऑन होता. जैसे जादू का पिटारा हो. तब पूरा हिन्दुस्तान रेडियो पर समचार सुनता. 'हवामहल' की सिग्नेचर ट्यून घर-घर से सुनाई देती. इतनी दुपहरें रेडियो के साथ बीती हैं कि उसका कोई हिसाब नहीं. पिताजी की साइकिल आती दिखाई देती तो झटपट रेडियो बन्द कर किताबें खोल कर बैठ जाते. रेडियो पर वे सिर्फ समाचार और हवामहल सुनना पसंद करते थे. हम सब कुछ .
वह रेडियो बरसों साथ रहा. पर उसका वक़्त चला गया. बाद में उसे जीवित रखने की सारी कोशिशें बेकार हुईं . वह अब यादों में रखा है,और उस समय के गाने उसमें अब भी बजते हैं. उन तमाम दुपहरियों को जीवित करते हुए, जब हवा कुछ और ढंग से बहती थी और बारिश की खुशबू कुछ और थी.
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