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नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा



सारा दिन उपवास, हफ्ते में दो दिन, माह में इस संकष्टी चतुर्थी का एक उपवास - पर हालात तो ज्यो के त्यों बने हुए है. कही कुछ नहीं होता, ना परिवर्तन, ना कही से सुख का एक चिथड़ा मिलता है, सिवाय दुखों की पोटली के क्या है मेरे पास, अभी देख रहा हूँ आसमान में चाँद को धीरे से ऊपर चढते हुए, अन्न का एक सूखा कौर मुँह में लेते हुए उपवास छोड़ा तो लगा कि क्या ऐसे ही बीत जायेगा सब कुछ, मेरे होने का क्या प्रयोजन था और क्या प्रारब्ध ......पता नहीं पर सालों से करते हुए ऐसे ही उपवास मै ईश्वर के तो करीब अभी नहीं जा पाया पर भूख और गरीबी को बहुत करीब से देख लिया और अभावों की चादर ताने भटक रहा हूँ अपना अर्थ खोजते हुए, अपने होने की सार्थकता को ढूँढते हुए, पता नहीं हफ्ते के दो उपवास और माह का यह उपवास और साल भर के कुल मिलाकर इतने उपवास हो जाते है कि बस याद ही नहीं रहता कि खाना कब खाया था ? अब जीवन के इस समय में इस नदी के किनारे बहुत से चाँद देख लिए और अब लगता है इस चाँद का भी कोई और कुछ विकल्प होना चाहिए.......नदी के पाने में अभी अक्स देखा है इस चाँद का तो लगा कि पानी के बहते और स्थिर स्वरुप में हर बार यह चाँद अलग लगता है और हर उपवास पर, हर भूख और हर पीड़ा के समान जीवन का अर्थ भी हर बार नया लगता है फ़िर भी आज ना जाने क्यों पानी में चाँद को देखकर और अपने उप-वास को याद कर मन चीख रहा है और पूछ रहा है नदी तुम क्यों बहती हो, चाँद तुम क्यों शुक्ल और कृष्ण पक्ष में अपना अस्तित्व डुबो रहे हो.....कब तक सूरज से रोशनी लेकर अपना जीवन खपाते रहोगे और फ़िर ग्रहण पर ग्रहण............कहो ना एक बार फ़िर से चीखकर .......नर्मदे हर, हर, हर.......(नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा)

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