पुस्तक
समीक्षा प्रकाशनार्थ
“महामाया” के बहाने से वैज्ञानिक चेतना की खोज
(सन्दर्भ डा सुनील
चतुर्वेदी का उपन्यास)
-संदीप नाईक-
भारतीय संविधान में
वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की बात की जरुर गई है परन्तु आजादी के बाद जिस तरह से धर्म, आध्यात्म और इससे जुड़े पुरे तंत्र की
बात होती है तब यह समझ पुख्ता होती है कि यह पूरा एक
विराट और विशाल तंत्र है जो शुरू तो मानव मात्र की
उत्थान के लिए हुआ था परन्तु शनै: शनै: यह शोषण का एक प्रमुख हथियार बन गया और सारी मानव जाति
को इसने खांचों में बाँट कर रख दिया. धर्म के स्वरुप
और इससे जुडी आस्थाओं पर कई सवाल है आध्यात्म इसमे एक नई दिशा खोजकर जीवन के मूल्यों और
तथ्यों को खोजने की कोशिश करता है ताकि मनुष्य
के जीवन में एक शान्ति आ सके और वह प्रक्रिया अंततः खोजी जा सके जो कल्याणकारी और वृहद मानव समाज की भलाई
करती हो. इस हेतु समाज में कई साधू-महात्माओं का
प्रादुर्भाव हुआ, धार्मिक, सामाजिक
और यहाँ तक कि विवेकानंद जैसे
राजनैतिक लोगों ने भी इसे नए तरीके से गढने- रचने की कोशिश की,
परन्तु
कही कोई ठोस विकल्प नजर नहीं आया. खैर, यह एक लंबी बहस है पर
इस सबको जानने- बुझने में और समझने में कई
ऐसे तथ्य सामने आये जिसने धर्म और आध्यात्म की बरसों से
जमी काली करतूतें जरुर खोली है. इसलिए कमलेश्वर ने जब कहा कि ईश्वर ने आदमी के जीवन का बहुत
बड़ा हिस्सा घेर रखा है तो उनका इशारा संभवतः इस विराट कारोबार की तरफ भी था
जो धर्म के नाम पर फल-फूल रहा है. निर्मल बाबा, संत आशाराम और ना जाने ऐसे कितने नाम है
जिन्हें हाल ही में बेनकाब करने पर
पता चला है कि किस तरह से ये धर्म और आध्यात्म की आड में मानव मात्र से खेल रहे थे और जिस
तरह का पूरा शोषण से भरा और बासता दकियानूसी माहौल इस
तरह के लोगों ने बना रखा है, वह बेहद शर्मनाक और
गन्दा है. ऐसे समय में जब राजनीति अपने पतन के
चरम पर है, धर्म आध्यात्म जिन्हें रास्ता दिखाने का काम करना था वहाँ
सिवाय कीचड और गन्दगी के कुछ नहीं वहाँ कैसे
समाज में नैतिक मूल्यों की बात बनेगी?
सुनील चतुर्वेदी एक लंबे
समय से समाज सेवा और पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत है जिससे उनकी दृष्टि बहुत पैनी हुई है, साथ ही वे एक ऐसे कुशल लेखक भी है जो घटनाओं को बारीकी से पकड़ कर ज्यों-
का - त्यों रखने में माहिर है. पिछले कई बरसों से
समाज के विभिन्न घटकों और परिस्थितियों के बीच रहकर उन्होंने अपनी कलम को साधा है और इसका
इस्तेमाल वे करते रहे है. मूलतः व्यंग्यकार और पेशे
से भूगर्भ शास्त्री डा सुनील चतुर्वेदी का अंतिका प्रकाशन, नई
दिल्ली से प्रकाशित सद्य उपन्यास
"महामाया"
उनकी लेखनी का ही परिणाम है जो बार-बार
मंथन कर एक ऐसे परिदृश्य को चित्रांकित करती है जो धर्म, आध्यात्म
और शोषण के पहियों में फंसे लोगों को, आश्रमों में फ़ैल रही तानाशाही और पतन के स्वरुप को पुख्ता
ढंग से सामने लाता है. उपन्यास की भूमिका में डा
प्रकाशकांत लिखते है "इस बीच पिछले तीन चार दशकों में दर्जनों नए पुराने छोटे-बड़े अवतार
महात्मा, धर्माचार्य, बाबा, योगी, प्रवचनकार उभरे और उनके करोड़ों की
संपत्ति वाले विशाल मठ, संस्थान, प्रतिष्ठान वगैरह खड़े हुई है. उन्हें
थैलीशाहों राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त रहा है. हालांकि इन्ही महात्माओं, बाबाओं में से कई पर बलात्कार, व्याभिचार, ह्त्या, धोखाधड़ी
इत्यादि के प्रामाणिक आरोप भी लगे है. ईश्वर के इन स्वयम्भू एजेंटों ने अपने प्रभाव का
विस्तार विदेशों तक किया है और यह भी सही है कि सिर्फ
आम आदमी ही नहीं बल्कि एक बड़ा बौद्धिक वर्ग भी इनके प्रभाव क्षेत्र में रहा है ".
"महामाया" कहानी अखिल नामक एक तेज तर्रार युवा की
है, जो अपने जीवन की जिज्ञासाओं को शांत
करने और लेखन के लिए काम करता है, उसके पास दृष्टि है, और एक दिन वह हरिद्वार के महा मंडलेश्वर के एक आश्रम
में पहुंचता है और अपने अध्ययन और अखबार के लिए एक लेख आश्रम व्यवस्था और वर्तमान
समय में धर्म की प्रासंगिकता पर लिखना चाहता है, पर बाद में उस आश्रम की व्यवस्था
और ताम-झाम देखकर वहाँ कुछ दिन रुकने का मन बना लेता है. आश्रम में जिस तरह का
तंत्र है, व्यवस्था है, एक हेरारकी है, पूजा-पाठ, लेन-देन
और भक्तों के अपने सुखदे-दुखड़े है. इस
आश्रम में अखिल लंबा समय गुजारने की सोचता है और वही टिक जाता है. इस दौरान वो रोज होने वाली
आरती से लेकर आश्रम में आने जाने वाले लोगों, भक्तों पर ना मात्र निगाह रखता है बल्कि
यह जानने की कोशिश करता है कि आखिर ऐसा
क्या है इस जगह में जो सबको खींच लाती है वह वहाँ चमत्कार देखता है, ठगी देखता है, लूट देखता है और श्रद्धा देखता है कि
किस तरह से आम लोग अपनी बुद्धि को बाहर
गिरवी रखकर आश्रम में प्रवेश करते है और अगाध
श्रद्धा से अनपढ़ और बेहद कम पढे-लिखे सन्यासियों की बातें मानकर किस अंध भक्ति से उस सबका अनुसरण करते है जो कही से भी बौद्धिक या
वैज्ञानिक नहीं है. इस सारे क्रम में अपना धन और
समय गंवाकर वे क्या पाना चाहते है यह
अखिल
को समझ नहीं आता पर वो कुछ कहने के बजाय सिर्फ निरीक्षण करता है और जब उसकी जिज्ञासाएं बढ़ जाती है तो वो
आश्रम के प्रमुख और सबसे बड़े साधू बाबाजी से अपनी
शंकाओं का निराकरण करता है. मजेदार यह है कि बाबाजी भी यानी बड़े महाराज भी उसकी समझ के ही है, पर वे कहते और मानते है कि जब लोग खुद अंध भक्ति से अपना सर्वस्व न्यौछावर
करने को तैयार है या भय जो पीड़ा से उपजा है, उससे निजात नहीं पाना चाहते तो वे क्यों
इसे तोडना चाहेंगे? और बल्कि वे इसे और बढ़ाकर उन लोगों में
बाँटते है ताकि मनुष्य डर से दबा रहे
और
धर्म पर उसकी आस्था बनी रहे. अखिल की आश्रम
में मुलाक़ात डा अनुराधा से होती है जिसे आश्रम
के बड़े बाबाजी ने बचपन से मदद की है, उसकी पढाई का पूरा खर्च किया है, उसे डाक्टर बनाया है, और अपने बेटी की तरह से मानते है. अखिल और अनुराधा के कई ऐसे विवरण है
जिनमे अखिल तर्क और बुद्धि, वैज्ञानिक चेतना और समझ के आधार पर अनुराधा से बहस
करता है परन्तु अनुराधा एक डाक्टर होने के बाद भी धर्म
आध्यात्म के तर्कों को मानती है और पुनः- पुनः इस बात पर जोर देती है कि बाबाजी जो कह रहे है
या आश्रम में जो संत है जिनमें महिला पुरुष दोनों
शामिल है, सही है, भले
ही वो पढ़े ना हो, पर धर्म के रास्ते पर चलकर उनकी जो समझ है वही
प्रामाणिक और सही है. अखिल का अक्सर
अनुराधा
से तर्क वितर्क उसे अनुराधा के प्रति आकर्षित करता है, वो प्रभावित है उसकी मेधा से और इस भ्रम में में वो
भी कभी-कभी अनुराधा के साथ हो लेता है और पुनः बौद्धिक
चेतना में लौट आने पर उसे अपराध बोध सालने लगता है कि क्यों वो अंध श्रद्धा की नदी में बह गया.
आश्रम में कई घटनाओं के
बहाने सुनील ने आश्रम में धर्म आध्यात्म की आड में चल रहे धंधों की अच्छी खोज- खबर ली है, सन्यासियों की आपसी लड़ाई , गुटबाजी, चुगलखोरी, धन के प्रति आसक्ति, सेक्स, वासना, सही गलत तरीकों से की गई कमाई, संचय
की प्रवृत्ति, राजनेताओं से सम्बन्ध, जमीन-जायदाद की लड़ाईयां और धर्म आध्यात्म के बहाने से संपत्ति
और बंजर जमीन के बिकने की कई कहानियां है. समाज की
अंधश्रद्धा किस तरह से है इसका एक ठोस उदाहरण एक संत के
तीन
दिन की जमीन के अंदर समाधि लेने की घटना से बताया है और इस पुरे प्रसंग के बहाने किस तरह से हिन्दुस्तान
की भीड़ में "भीड़ तंत्र" मीडिया, प्रशासन और एनजीओ काम करते है और किस तरह से एक बंजर और
विवाद में पडी जमीन को पुण्य भूमि
बनाकर बेचा जाता है यह धर्म और आध्यात्म किस तरह का धंधा है यह इस उदाहरण से सुनील ने सिद्ध
किया है. इस पुरे वाकये का प्रामाणिक चित्रण हमारी आंखे खोलने के लिए काफी
है. आश्रम में एक विदेशी महिला को किस तरह से
भगवान से प्रत्यक्ष मिलाने की बात के भ्रम में रखकर उसकी संपत्ति को हडपा जाता है और इस काम
में सहयोग दे रहे और बाद में आधे आधे की बात पर उस
सन्यासी की ह्त्या कर किस तरह से राह का रोड़ा हटाया जाता है,
यह
भी एक रोचक और ज्वलंत प्रसंग है जो आश्रमों में चल रही कूटनिती और घटियापन की बानगी पेश करता है. . इस
सबके बावजूद भी अखिल की आस्थाएं डगमगाती नहीं है पर
कहानी में जिस तरह से अंत में डा अनुराधा के साथ आश्रम में बाबाजी द्वारा शारीरिक शोषण किया
जाता है, जो उसके पिता तुल्य थे और बेहद मानसिक
रूप से त्रस्त होकर कुछ कहती नहीं है और इस भयावह सदमे को बगैर किसी को बताए
स्वामी दिव्यानंद के साथ बाहर निकल आती है. यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि
आश्रम सिर्फ भोग, वासना और धन के बाहुबली केन्द्र है. इस घटना का चित्रण बहुत ही मार्मिक है और अखिल अनुराधा को
कमरे में पड़ा लगभग विक्षप्त अवस्था में चुपचाप पड़ा देखकर अपने कमरे में लौट आता
है, क्योकि उसे आश्रम की ही एक सन्यासिन कहती है कि क्या होगा कुछ करने से, आखिर
यह भी सब तो एक तरह का मायाजाल है, एक व्यवसाय है जिसकी ऊपर तक पहुँच है, एक
कारपोरेट है. अखिल का कमरे में लौटना एक प्रतीक है कि किस तरह से हम परिस्थितियों
से एकाकार होकर अन्याय के खिलाफ बोलना छोड़ देते है. अंत में अखिल कहता है, जो मुझे लगता है इस उपन्यास का सार है
कि, "जीवन के पार झांकने की कोशिश बेकार है. सच तो यही है कि दुखो का
समाधान किसी के सामने हाथ पसारकर नहीं
पाया
जा सकता. दुःख से लड़ना ही दुःख का समाधान है "
उपन्यास की भाषा बहुत सधी हुई
है और यह उपन्यास आपको बाँधे रखता है क्योकि इसकी शैली और कथन में जो रस है वह पाठकीयता
को लंबे समय तक बनाए रखने में सक्षम
है.
सुनील चतुर्वेदी ने इस उपन्यास को लिखने हेतु इसके कई पाठ लिखे है यह संपादन और उपन्यास की घटनाओं, प्रवाह और बदलते रोचक प्रसंगों की कसावट
से समझ आता है, साथ ही इसकी बुनावट भी इस तर्ज पर की गई
है कि यह पाठक को एक ही बैठक में पूरा
पढने के लिए प्रेरित करता रहे ताकि सारे ताने-बानों में यह रचना ना मात्र एक स्थायी प्रभाव छोड़े
बल्कि एक विराट तंत्र जो धर्म और आध्यात्म के नाम पर
बेहद गंदे तरीके से चल रहा है और सारे दृश्य-श्रव्य माध्यमों से हमारे जीवन एवं घरों में
परोसा जा रहा है, को "अनफोल्ड" कर सकें. सुनील को इस बात की बधाई दी जाना
चाहिए कि वे इसके लेखन से एक बड़े संसार से पर्दा हटाने
में कामयाब तो हुए ही है परन्तु जिस खूबी से उन्होंने एक चमत्कारिक सा संसार
"महामाया" का रचा है वह इधर हिन्दी के आये उपन्यासों में देखने को नहीं मिलता. हाँ
भाषा कही-कही जरुर कमजोर है जो उनकी पत्रकारिता के
लंबे अनुभव से उपजती है और रिफ्लेक्ट भी होती है. कही विवरण बहुत ज्यादा है जिसे वे समेट कर
कह सकते थे खास करके आश्रम में चमत्कार वाला दृश्य या बाबा का जमीन के भीतर समाधि
लेने का जो विवरण है. डा अनुराधा का
बलात्कार आश्रम में होना एक ऐसे घटना है जो अक्सर होती तो है पर इसे कही दर्ज नहीं किया जाता, आज जब देश में महिलाओं की आजादी को लेकर महिलाओं के खिलाफ हो रहे शोषण को लेकर
जो एक अभियान चल रहा है वहाँ अनुराधा
चुपचाप
अखिल के साथ निकल आती है और कोई प्रतिकार नहीं करती ना ही थाने में शिकायत दर्ज करती है यह थोड़ा मामला
गंभीर है जिस पर सुनील को अपना पक्ष
रखना
था. विदेशियों को उनकी श्रद्धा के हिसाब से उपहास का पात्र तो बनाया है पर सुनील ने यह कही नहीं कहा कि भारत
में चलने वाले अधिकाँश आश्रम इन्ही विदेशियों की काली
कमाई पर चल रहे है इसलिए भारतीय धार्मिक संत देशी के बजाय विदेशी
शिष्यों का ज्यादा सम्मान करते है. मथुरा, वृन्दावन और ऋषिकेश से लेकर हरिद्वार और हिमालय में ऐसे
शिष्यों की बहुतायत है जो अपने डालर
इन
आश्रमों पर "मेंटल पीस" के लिए कुर्बान कर देते है. हालांकि इसका जिक्र आया है पर बहुत हलके से वे उठाते है
दरअसल में सुनील का यह उपन्यास पढते
हुए
लगता है कि पाठक स्वयं किसी आश्रम में है और एक चरित्र की तरह से हर जगह सुनील के साथ आश्रम के फेरे लगा रहा
है. यह उपन्यास की सबसे खूबसूरत बात है. पठनीय और
विचारणीय उपन्यास के बहाने से एक अंधेरी दुनिया की खोज खबर लेने के लिए और उसे विस्तृत रूप से
दर्ज कंर पाठकों के सामने रखने के लिए सुनील चतुर्वेदी बधाई के पात्र तो है ही.
उपन्यास – महामाया
लेखक- सुनील चतुर्वेदी
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन,सी-56/ यूजीएफ-IV , शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन
–II, गाजियाबाद-201005 ( उ प्र)
मूल्य 300/- मात्र
__________________________________________________________________________________
संदीप नाईक
सी- 55, कालानी
बाग, देवास, मप्र, 455001
Mob No: 094 2591 9221
Mail: naiksandi@gmail.com
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