ये शब्द, बलात्कार, मेरी जिंदगी में
पहली बार कब आया? मैंने कब जाना कि ठीक-ठीक इसके मायने क्या हैं? ठीक-ठीक
याद नहीं. तब मैं शायद कुछ बारह साल की रही होऊंगी. शहर में एक गैंग रेप
की घटना हुई थी. अखबार में पहले पन्ने पर बड़ी-सी खबर थी. उस दिन मां ने
मुझे मेरे उठने-बैठने-चलने के तरीके पर कई बार टोका. छत पर जाने पर नाराज
हुईं, शाम को एक सहेली के यहां जाने के लिए मना कर दिया, जिसका घर थोड़ी
दूर था. बिना दुपट्टा बाजार में दूध लेने जाने के लिए जोर से डांटा भी.
हम दोनों में से किसी ने अखबार में छपी उस
घटना का कोई जिक्र नहीं किया. लेकिन उस उम्र में भी मैं ये समझ गई कि इन
आदेशों का संबंध उसी घटना से था. मैं ये भी समझ गई कि मां के हिसाब से न
चलने वाली लड़कियों के साथ बलात्कार होता है. कि बलात्कार से खुद को
बचाने के लिए दुपट्टा ओढ़ना चाहिए, सड़क पर घूमना नहीं चाहिए और दूर सहेली
के घर नहीं जाना चाहिए.
लेकिन तब भी ठीक से मालूम नहीं था कि
बलात्कार दरअसल होता क्या है? मैं बड़ी हो रही थी. जब मैं पांच साल की थी
तो एक दिन खेलने के लिए पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली को बुलाने उसके घर
गई. उसके घर में कोई नहीं था. उसके चाचा ने किसी के न होने का फायदा उठाकर
मेरे सामने अपनी नीले रंग की चेक वाली लुंगी खोल दी. मैं बुरी तरह डर गई
और वहां से भाग आई. क्या वो बलात्कार था?
उसी मुहल्ले में हमारे एक कमरे के किराए
के घर के बगल वाले कमरे में जो आदमी रहता था, वो अपनी पत्नी के न होने का
फायदा उठाकर बेटा-बेटा कहकर मुझे अपनी गोदी में बिठा लेता और फिर जो करता,
उससे मुझे डर लगता और उबकाई आती. मैंने किसी से कहा नहीं, लेकिन एक अजीब
से डर में जीने लगी. क्या वो बलात्कार था?
पहली मंजिल पर रहने वाली मारवाड़ी आंटी के
बीस साल के लड़के ने एक दिन जब छत पर मुझे गोल-गोल घुमाने के बहाने मुझे
कंधे से पकड़कर नचाते हुए मेरे पैरों के बीच अजीब तरीके से छुआ था और मैं
फिर डर गई थी तो क्या वो बलात्कार था?
फिर एक बार जब मैंने छठी क्लास में थी और
मां ने शक्कर लेने के लिए दुकान पर भेजा था और दुकान वाले ने मेरी छाती
को अजीब ढंग से छुआ था, तो क्या वो बलात्कार था?
और उसके बाद हिंदुस्तान के हिंदी प्रदेश
के इलाहाबाद शहर में बड़ी हो रही एक लड़की की जिंदगी में आए दिन पड़ोस,
मुहल्ले, परिवार, गांव, बाजार और स्कूल के रास्ते में ऐसी जाने कितनी
घटनाएं हुईं, जिन्होंने दिल में एक अजीब-सा डर बिठा दिया, तो क्या वो
सब बलात्कार था?
उन घटनाओं के बाद अंधेरे से डर लगने लगा.
सूनसान गलियों और सड़कों से डर लगने लगा.
पुरुषों से डर लगने लगा.
अपने शरीर से डर लगने लगा. तो क्या ये सब बलात्कार था?
अगर वो सब बलात्कार था तो मैंने कभी इसके बारे में किसी को बताया नहीं. मां से कभी पूछा भी नहीं कि वो क्या था ?
फिर एक साल बाद एक दिन अखबार में एक
स्त्री डाकू की तस्वीर छपी. उसके बारे में लिखा था कि उसने बहमई के 22
ठाकुरों को मार डाला था क्योंकि उन सबने मिलकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार
किया था. शायद तब उस पर लगे सारे आरोप वापस ले लिए गए थे. तो क्या
बलात्कार करने वालों को गोली मार देनी चाहिए? सोचकर अच्छा लगा. क्योंकि
मैं भी शायद मेरी सहेली के उन चाचा, बगल वाले अंकल, मारवाड़ी आंटी के बेटे
और दुकान वाले लड़के को मार ही डालना चाहती थी. हालांकि उस वक्त न हिम्मत
थी और न ठीक-ठीक ये आइडिया कि मैं क्या करना चाहती हूं. मां ने उसके बारे
में इतना ही कहा कि वो फूलन देवी थी, वो डाकू थी और उसने 22 ठाकुरों को
मार डाला था. दूर के रिश्तेदार शुक्ला जी इस बात का जिक्र करते हुए दुखी
नजर आए कि उसने 22 ठाकुरों को मार डाला. किसी ने बलात्कार का नाम भी नहीं
लिया. फूलन के लिए न इज्ज़त दिखाई, न प्यार. उस दिन छत पर भी पड़ोस के
कुछ लोग उन 22 ठाकुरों की मौत के लिए दुखी होते नजर आए. किसी ने फूलन को
मुहब्बत से सलाम नहीं किया.
उस दिन मुझे एक बात और समझ में आई.
बलात्कार बुरा होता है, लेकिन बलात्कार
करने वालों को गोली मार देना उससे भी बुरा होता है. और ठाकुरों को गोली
मारना तो उससे भी ज्यादा बुरा.
वो चाचा, बगल वाले अंकल, मारवाड़ी आंटी के
बेटे और दुकान वाले लड़के और इलाहाबाद के तमाम सारे मर्दों ने मेरे साथ और
मेरे जैसी शहर की तकरीबन हर लड़की के साथ जो किया, हो सकता है, वो बुरा
हो. लेकिन उस बात को किसी को बताना और उन्हें बदले में गोली मारने की बात
सोचना तो और भी बुरा होता है.
मैंने बुरी बातें सोचना बंद कर दिया.
लेकिन हम जो इस धरती पर, इस देश में एक
लड़की का शरीर लेकर पैदा हुए थे, बुरी बातों, बुरी घटनाओं और बुरी हरकतों
ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा.
ये बुरी बातें सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं होती थीं.
मुंबई में एक बार गर्ल्स हॉस्टल के एक
कमरे में हम 10-12 लड़कियां बैठकर रात को दो बजे बातें कर रहे थे. हमने
चोरी से वाइन की तीन बोतलों का जुगाड़ किया था और उस कमरे में उस वक्त
सिर्फ वही लड़कियां मौजूद थीं, जिन पर ये भरोसा किया जा सकता था कि वो वाइन
की खबर कमरे के बाहर लीक नहीं होने देंगी. अपनी स्टील की गिलासों में
वाइन पीते हुए हम जिंदगी के प्रतिबंधित इलाकों की बातें करते रहे. बचपन की
बुरी बातों का भी जिक्र हुआ. कुछ देर के डर, शर्म और संकोच के बाद बारहों
लडकियों ने ये स्वीकार किया कि उनके बचपन में भी डरावनी घटनाएं हुई हैं.
पड़़ोस के अंकल, दूर के रिश्तेदार, पापा के दोस्त ने सबसे पहले पुरुषों
और अपने शरीर के प्रति डर और नफरत का भाव पैदा किया.
मैं उस वक्त भी ये तय नहीं कर पाई कि क्या वो बलात्कार था ?
फिर वर्किंग वुमेन हॉस्टल में एक बार एक
लड़की नाइट आउट से लौटी तो उसके आंखों के नीचे नील पड़े थे. चेहरे पर चोट
के निशान थे. मुझे बाद में पता चला कि उसके ब्वॉयफ्रेंड ने उसके साथ
जबर्दस्ती सेक्स करने की कोशिश की थी. उसने किसी थाने में रिपोर्ट नहीं
लिखाई. दस दिन बाद उसी लड़के के साथ फिर घूमने चली गई.
क्या वो बलात्कार था ?
मुंबई में ही एक महिला संगठन में काम करने
वाली मुंबई हाइकोर्ट की वकील महिला ने कहा कि बहुत बार वो इच्छा न होने
पर भी उन्हें मजबूरन अपने पति के साथ सोना पड़ा है. उन्होंने ये बात ऐसे
कही कि मानो ये बहुत सामान्य चीज हो. ये सामान्य-सी बात क्या बलात्कार
था ?
मेरे घर बर्तन धोने वाली वो औरत, जिसका
पति उसकी बहन के साथ सोता था, लेकिन वो कुछ बोल नहीं पाई क्योंकि पति को
छोड़ देती तो जाती कहां? कहां रहती, क्या खाती, कैसे जीती ? तो क्या वो
बलात्कार था ?
इलाहाबाद की वो औरत ये जो कहती थी कि अपनी
बीस साल की शादीशुदा जिंदगी में उसने कभी बिस्तर पर पहल नहीं की. वो
लड़की, जिसे लगता था कि सेक्स में रुचि दिखाने वाली लड़कियों को उनके पति
स्लट समझते हैं, कि शादी के पहले सेक्स के लिए हामी भरने वाली औरतों के
उत्तर भारतीय पति उन पर शक करने लगते हैं, वो पढी-लिखी मॉडर्न, नौकरी करने
वाली लड़की, जो हसबैंड के साथ सुख न मिलने पर भी ऑर्गज्म होने का दिखावा
करती थी. वो ब्वॉयफ्रेंड, जो सेक्स के समय खुद प्रोटेक्शन लेने के बजाय
लड़की को पिल्स खाने के लिए कहता था, जिसके कारण उसे चक्कर आते और
उल्टियां होतीं थीं, जो पहले अबॉर्शन के समय लड़की को अकेला छोड़कर शहर से
बाहर चला गया था.
क्या वो सब बलात्कार था ?
ऑफिस के वो लड़के, जो स्कर्ट पहनने वाली,
मर्द सहकर्मियों से आंख मिलाकर तेज आवाज में बात करने वाली, सिगरेट-शराब
पीने वाली लड़की को पीठ पीछे स्लट बुलाते थे. जो अब तक तीन ब्वॉयफ्रेंड
बदल चुकी अपनी सहकर्मी लड़की के बारे में कहते थे, “उसकी तो कोई भी ले सकता
है,” और ये ले लेने के लिए आपस में शर्त लगाते थे, कि जो अपनी मर्जी और
खुशी से बिना शादी के किसी पुरुष के साथ संबंध बनाने वाली स्त्री को
“एवेलेबल” समझते थे, तो क्या वो सब बलात्कार था.
दूर के रिश्ते की वो बुआ, जिनकी 35 बरस
तक शादी नहीं हुई और जो अच्छी औरत कहलाए जाने के लिए पुरुषों की परछाईं तक
से दूर रहती थीं, जो अच्छी औरत कहलाए जाने के लिए जिंदगी में कभी किसी
पुरुष के साथ नहीं सोईं, जिनका शरीर प्रेम के बगैर मुर्दा अरमानों का मरघट
बन गया, 38 साल की उमर में जिन्हें मेनोपॉज हो गया और बदले में परिवार और
समाज ने उन्हें “अच्छी औरत” के खिताब से नवाजा तो क्या वो बलात्कार था.
आज तक ये तय नहीं हो पाया कि इसमें से कौन
सा बलात्कार था और कौन सा नहीं था ? इस देश का कानून नहीं तय कर पाया.
इंडियन पीनल कोड की धाराएं और संहिताएं नहीं तय कर पाईं, अरबों रुपए के बजट
वाली हिंदुस्तान की न्याय व्यवस्था नहीं तय कर पाई, इस देश की सबसे
ऊंची कुर्सियों पर बैठी औरतें नहीं तय कर पाईं. कोई नहीं तय कर पाया. किसी
को तय करने की जरूरत नहीं थी. तय होने या न होने से उनका कुछ बिगड़ता नहीं
था.
लेकिन अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में एक
लड़की के साथ सात लोगों ने गैंग रेप किया, उसके साथ बर्बर, अमानवीय,
अकल्पनीय हिंसा की और दिल्ली की ठिठुरती ठंड में उसे सड़क पर बिना कपड़ों
के लिए मरने को छोड़ दिया तो हजारों की संख्या में लड़के और लड़कियां
सड़कों पर उतर आए हैं. वो कह रहे हैं कि बलात्कार की सजा फांसी होनी
चाहिए.
सजा क्या होनी चाहिए, वो तो अलग से बहस
का मुद्दा है. लेकिन ये तय है कि ये जघन्य हिंसा है, ये भयानक है, ये
अमानवीयता और क्रूरता का सबसे वीभत्स रूप है. 23 साल की उस लड़की की
कुर्बानी इस रूप में सामने आई है कि स्त्री से जुड़े बहुत से जरूरी सवाल
आज दिल्ली की कुर्सी को हिला रहे हैं. औरत इस देश के मर्दवादी चिंतन और
आंदोलनों के इतिहास में पहली बार सबसे केंद्रीय सवाल बन गई है. वरना
बलात्कार तो पहले भी होते थे, घरों के अंदर और घरों के बाहर होते थे.
हिंदुस्तान की आर्मी बलात्कार करती थी, पुलिस बलात्कार करती थी, अपने और
अजनबी लोग बलात्कार करते थे, पिता, भाई, मामा, चाचा, काका, ताया
बलात्कार करते थे, लेकिन कभी ये मुख्यधारा का सवाल नहीं बना. कभी इसके
लिए लोग लाठी, वॉटर कैनन और टीयर गैस खाने सड़कों पर नहीं आए.
लेकिन अब जब आ ही गए हैं तो सिर्फ इस
सामूहिक बलात्कार के बारे में बात नहीं करेंगे. अब हम बलात्कार के समूचे
इतिहास के बारे में बात करेंगे. उस संस्कृति के बारे में, उन धर्मग्रंथों
के बारे में, उन परिवारों, उन रिश्तों के बारे में, उन पितृसत्तात्मक
नियमों और कानूनों के बारे में बात करेंगे, जिसने इस समाज में बलात्कार को
‘संस्कृति’ बनाया है. हम उस दुनिया के बारे में बात करेंगे, जिसने पुरुष को
बलात्कार करने और स्त्री को बलात्कृत होने और फिर मुंह बंद रखने का सबक
सिखाया. जिसने पुरुष को सेक्चुअल बीइंग और औरत को सेक्चुअल ऑब्जेक्ट
बनाया. जिसने पुरुषों की शारीरिक जरूरतों को महान बताया और औरत को उसे पूरा
करने का साधन. जिसने लड़कियों को ‘’बलात्कार से कैसे बचा जाए’’ के सौ पाठ
पढ़ाए, लेकिन पुरुषों को एक बार भी ये नहीं बताया कि वे किसी भी स्त्री
के साथ बलात्कार न करें. जिसने पुरुषों को बलात्कार तक करने की छूट दी,
लेकिन औरतों को अपनी सेक्चुअल डिजायर को स्वीकार तक करने की जगह नहीं दी.
जिसने औरत को हर तरह के इंसानी हक और बराबरी से अछूता रखा. जिसने उसे
पिता, भाई, पति और पुत्र की निजी संपत्ति बनाया. जिसने उसे वंश चलाने के
लिए पुत्र पैदा करने की मशीन बनाया. जिसने उसे संपत्ति के हक से, फैसलों के
हक से वंचित रखा. और जिसने ये सब करने के लिए महान धर्मग्रंथों की रचना
की. उसकी कुतार्किक व्याख्याएं गढ़ी.
कि जिस दुनिया में मांओं ने अपनी बेटियों
को बलात्कार से बचाने के लिए उनके सड़कों पर घूमने पर पाबंदी लगाई, लेकिन
अपने बेटों को बलात्कार करने के लिए सड़कों पर खुला छोड़ दिया. कि जिसने
बलात्कार से बचने के लिए लड़कियों को अपने शरीर की पवित्रता बनाए रखने का
पाठ पढ़ाया, लेकिन मर्दों के शरीर की भूख मिटाने के लिए चकलाघर खोल दिए. कि
जिसने बलात्कार की वजह लड़कियों का शरीर दिखना बताया, लेकिन लड़कों के
सडकों पर नंगे घूमने, कहीं भी अपनी पैंट की जिप खोलकर खड़े हो जाने पर सवाल
नहीं किया. कि जिसने लड़कियों के बलात्कार की वजह चार ब्वॉयफ्रेंड रखना
बताया, लेकिन मर्दों के सौ औरतें के साथ संभोग करने को मर्दानगी कहा. कि
जिसने मर्दों को जूता मारने और औरत को जूता खाने की चीज बताया.
अब जब सवाल उठ ही गया है तो इन सब पर उठेगा.
मैंने जिंदगी में जितनी बार इस ना बोले जाने वाले शब्द को, इस ‘अकथ’ को नहीं बोला उतनी बार इन दिनों बोला, इस एक आलेख में बोला है.
अब जब बात निकल ही पड़ी है तो दूर तलक जाएगी.
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