जो शहर पहचान देते है उनको छोडने का दुःख भुलाए नहीं भूलता...........ये शहर हमेशा हमारे अंदर ज़िंदा रहकर हमें लगातार मारने का उपक्रम करते रहते है........कल महू मे था, जहां जन्मा, जहां मेरे पुरखे रहे, मेरे पिता-माता ने एक जीवन शुरू किया, सारे आज के रिश्तों की मेरी बुनियाद इस शहर के साथ जुडी है और जैसा कि कहते है कि जन्मभूमि एक बार पुनः पुकारती है तो मै जीवन के तैतीसवें साल मे पुनः गया वहाँ रहा तीन साल और शहर को नए सिरे से खोजा, अपने अंदर संस्कार खोजे उस शहर के और जीवन के स्पंदन मे ढूंढता रहा अपने होने का मतलब. इस शहर मे मेरी दादी ने लगभग पचास बरस एक स्कूल मे पढ़ाया और मै पूछता रहा कि सब बच्चों की दादी उनके घरों मे रहती है और मेरी क्यों नहीं, तब समझा नहीं पर कल जब कुछ लोगों से मिला तो पता चला कि वो मेरी ही नहीं, हजारों बच्चों की परिचायिका थी जिसकी गोद मे वे बड़े हुए, संस्कारित और मूल्यवान बने आज वे जहां भी जैसे भी है उनके होने मे मेरी दादी की भूमिका को मानते है. मेरे पिता की पढाई इस छोटे से कस्बे मे हुई जहां वे उन कौशलो और दक्षताओं को सीखे जिसने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया और फ़िर उन्होंने हमें कुछ जीवन कौशल सिखाया ताकि हम एक खुशहाल जीवन जी सके. वो सारी गालियाँ देखी, वो स्कूल, वो मोहल्लें, वो लोग, वो मंदिर देखे जहां आस्थाएं झूलती थी और सारी निराशाओं के बावजूद भी जीवन रस के प्रति आकर्षित करती थी कही कोई नैराश्य नहीं उपजने देती. मेरा पुराना मोहल्ला, और उसके लोग जो आज भी उतने ही सहज है जितनी प्रकृति होती है बगैर लाग-लपेट के अपनी बात कहने वाले और मान-मनुहार से मनवाने वाले भोले भाले लोग. अनूप के माता-पिता को देखकर बरबस अपने घर के लोग याद आ गये.....बहुत देर तक रात मे जगता रहा और संजोने लगा उस सत रास्ते की यादें वो लुनियापुरा, गुप्ता कॉलोनी, माल रोड, मालवा, आर्फियम, मोहन और ड्रीमलैंड टाकीज, अग्रवाल की कुल्फी, मेन स्ट्रीट, सांघी स्ट्रीट, उपहार होटल, आर्मी स्कूल, हर्नियाखेडी का पशु चिकित्सालय और महाविद्यालय और ना जाने क्या-क्या. बस याद रहा तो दादा-दादी के मौत, बुआओं की शादियाँ, साथ के भाई-बहनों के जन्म, रेडक्रास अस्पताल-यह एक विचित्र रात थी एक अजन्मा नास्टेल्जिया जो मुझे मथता रहा सारी रात. कब आँख लग गई पता नहीं चला, जब उठा तो एक नया महू सामने था गन्दा, चारों ओर नई कॉलोनियां, बसें भीड़ और नए लोग........बस हर शहर की तरह अपनी नियति को रोता और बिलखता महू. मेरा महू, मेरा शहर जहां से शुरू होकर मै यहाँ देवास तक पहुंचा था और फ़िर एक नए सफर की शुरुआत की थी जिसने मुझे देश का हर क्षेत्र दिखा दिया. जहां से अस्मिता और पहचान बनी. पर क्या कुछ छूट गया महू मे .....आज भी याद करता हूँ तो याद नहीं आता बस आँखों से आंसू निकल पड़ते है और शहर रेंगने लगता है मेरे सामने .......ये महू की उस देवी के मंदिर की तस्वीर है जो आज भी पुरे महू की रक्षा करती है ऐसा यहाँ के लोग मानते है.
जो शहर पहचान देते है उनको छोडने का दुःख भुलाए नहीं भूलता...........ये शहर हमेशा हमारे अंदर ज़िंदा रहकर हमें लगातार मारने का उपक्रम करते रहते है........कल महू मे था, जहां जन्मा, जहां मेरे पुरखे रहे, मेरे पिता-माता ने एक जीवन शुरू किया, सारे आज के रिश्तों की मेरी बुनियाद इस शहर के साथ जुडी है और जैसा कि कहते है कि जन्मभूमि एक बार पुनः पुकारती है तो मै जीवन के तैतीसवें साल मे पुनः गया वहाँ रहा तीन साल और शहर को नए सिरे से खोजा, अपने अंदर संस्कार खोजे उस शहर के और जीवन के स्पंदन मे ढूंढता रहा अपने होने का मतलब. इस शहर मे मेरी दादी ने लगभग पचास बरस एक स्कूल मे पढ़ाया और मै पूछता रहा कि सब बच्चों की दादी उनके घरों मे रहती है और मेरी क्यों नहीं, तब समझा नहीं पर कल जब कुछ लोगों से मिला तो पता चला कि वो मेरी ही नहीं, हजारों बच्चों की परिचायिका थी जिसकी गोद मे वे बड़े हुए, संस्कारित और मूल्यवान बने आज वे जहां भी जैसे भी है उनके होने मे मेरी दादी की भूमिका को मानते है. मेरे पिता की पढाई इस छोटे से कस्बे मे हुई जहां वे उन कौशलो और दक्षताओं को सीखे जिसने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया और फ़िर उन्होंने हमें कुछ जीवन कौशल सिखाया ताकि हम एक खुशहाल जीवन जी सके. वो सारी गालियाँ देखी, वो स्कूल, वो मोहल्लें, वो लोग, वो मंदिर देखे जहां आस्थाएं झूलती थी और सारी निराशाओं के बावजूद भी जीवन रस के प्रति आकर्षित करती थी कही कोई नैराश्य नहीं उपजने देती. मेरा पुराना मोहल्ला, और उसके लोग जो आज भी उतने ही सहज है जितनी प्रकृति होती है बगैर लाग-लपेट के अपनी बात कहने वाले और मान-मनुहार से मनवाने वाले भोले भाले लोग. अनूप के माता-पिता को देखकर बरबस अपने घर के लोग याद आ गये.....बहुत देर तक रात मे जगता रहा और संजोने लगा उस सत रास्ते की यादें वो लुनियापुरा, गुप्ता कॉलोनी, माल रोड, मालवा, आर्फियम, मोहन और ड्रीमलैंड टाकीज, अग्रवाल की कुल्फी, मेन स्ट्रीट, सांघी स्ट्रीट, उपहार होटल, आर्मी स्कूल, हर्नियाखेडी का पशु चिकित्सालय और महाविद्यालय और ना जाने क्या-क्या. बस याद रहा तो दादा-दादी के मौत, बुआओं की शादियाँ, साथ के भाई-बहनों के जन्म, रेडक्रास अस्पताल-यह एक विचित्र रात थी एक अजन्मा नास्टेल्जिया जो मुझे मथता रहा सारी रात. कब आँख लग गई पता नहीं चला, जब उठा तो एक नया महू सामने था गन्दा, चारों ओर नई कॉलोनियां, बसें भीड़ और नए लोग........बस हर शहर की तरह अपनी नियति को रोता और बिलखता महू. मेरा महू, मेरा शहर जहां से शुरू होकर मै यहाँ देवास तक पहुंचा था और फ़िर एक नए सफर की शुरुआत की थी जिसने मुझे देश का हर क्षेत्र दिखा दिया. जहां से अस्मिता और पहचान बनी. पर क्या कुछ छूट गया महू मे .....आज भी याद करता हूँ तो याद नहीं आता बस आँखों से आंसू निकल पड़ते है और शहर रेंगने लगता है मेरे सामने .......ये महू की उस देवी के मंदिर की तस्वीर है जो आज भी पुरे महू की रक्षा करती है ऐसा यहाँ के लोग मानते है.
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