प्रिय
मित्र, सह्रदय साथी, विभावरी संस्था के माध्यम से पानी बचाने के बाद मप्र
के पानीवाले बाबा के नाम से प्रसिद्द और वरिष्ठ भूगर्भ वैज्ञानिक Dr Sunil Chaturvedi
आज अपने जीवन के इक्कानवें वर्ष में प्रवेश कर रहे है, आज सुबह पांच बजे
उठकर उन्होंने पचास बरसों का लेखा-जोखा लिखा है एक कविता के स्वरुप में और
यह रचना मुझे और बहादुर पटेल को भेजी. जब अभी बात हुई और मैंने बधाई दी तो
कह रहे थे कि जीवन की पहली कविता लिखी है. मेरे विचार से यह एक अच्छी कविता
है, जो सिर्फ मुड़कर ही नहीं देखती वरन घर-परिवार, द्वार, यारी-दोस्ती और
हर उतार-चढ़ाव का हिसाब करते हुए अपनी अबूझ यात्रा को भी समेटती है जिसमे
कही प्रेरणाएँ है, कही गुनगुने पछतावे पर इसके बाद भी अपने आगे आने वाले
काल की पदचाप को सुनकर प्रेम के पगे हुए पलों को अपनी गठरी में बांधने को
आतुर है. आने वाले बरस की पदचाप में एक चिंता भी है कि कब यह गठरी हवा में
बिखर जाये. बहरहाल हम तो चाहते है कि यह गठरी हमेशा यूँही बढ़ती रहे
दिनों-दिन, युगों-युगों तक, सहेजती रहे हर पल, हर क्षण और हर उस लम्हे को
जो प्रेम से पगुराया हो और सनातनी परम्परा
के हिसाब से शाश्वत और अनंत आकाश वाला हो. खूब लंबी रचनात्मक उम्र जीते
रहे, सहेजते रहे, पाते रहे प्रेम की हर उस नेह को और बूँद को जो उन्होंने
कभी कहा था एक किताब में "रुको बूँद......!!!
"अपने जीवन के इक्यावनवें पड़ाव पर कदम रखते हुए"
पुरे पचास किलो की हुई गठरी
देखूं तो, इसमें क्या है.
गिल्ली डंडा,कंचे,आइस पाईस,
जैसे बचपन के खेलों की लम्बी फेहरिस्त जमा है.
कुछ कॉलेज के दिन भी बंधे हैं गठरी में
पढाई-लिखाई,लड़ाई-झगडे,जिंदाबाद- मुर्दाबाद,नाटक- नौटंकी,
ढेरों किस्से-कहानियाँ, बेबूझ सपने,
और चंद अकथ प्रेम के किस्से.
महज इतना ही नहीं ,
रोजी रोटी की भागम भाग
खाली बोतलों की गिनती ,
यारी-दोस्ती, मजा-बेमजा,आशा-निराशा
चढना-गिरना, गिरकर चढना
घर-गृहस्थी की चिक-चिक,
प्रेम-मनुहार,सुख-दुःख,
कितना कुछ बंधा है इस गठरी में.
हवाओं में तैरते बादलों से लम्हे
भीगी रातें
जो करने से छुट गया
जो होने से चुक गया
उसका अफसोस भी बंधा है इस गठरी में .
अभी कितनी और भारी होगी ये गठरी
कब गांठ खुलेगी
कब हवा में बिखरेगी
मैं नहीं जानता
बस इतना चाहता हूँ
अब तो सिर्फ और सिर्फ
प्रेम के पल बंधे इस गठरी में.
"अपने जीवन के इक्यावनवें पड़ाव पर कदम रखते हुए"
पुरे पचास किलो की हुई गठरी
देखूं तो, इसमें क्या है.
गिल्ली डंडा,कंचे,आइस पाईस,
जैसे बचपन के खेलों की लम्बी फेहरिस्त जमा है.
कुछ कॉलेज के दिन भी बंधे हैं गठरी में
पढाई-लिखाई,लड़ाई-झगडे,जिंदाबाद-
ढेरों किस्से-कहानियाँ, बेबूझ सपने,
और चंद अकथ प्रेम के किस्से.
महज इतना ही नहीं ,
रोजी रोटी की भागम भाग
खाली बोतलों की गिनती ,
यारी-दोस्ती, मजा-बेमजा,आशा-निराशा
चढना-गिरना, गिरकर चढना
घर-गृहस्थी की चिक-चिक,
प्रेम-मनुहार,सुख-दुःख,
कितना कुछ बंधा है इस गठरी में.
हवाओं में तैरते बादलों से लम्हे
भीगी रातें
जो करने से छुट गया
जो होने से चुक गया
उसका अफसोस भी बंधा है इस गठरी में .
अभी कितनी और भारी होगी ये गठरी
कब गांठ खुलेगी
कब हवा में बिखरेगी
मैं नहीं जानता
बस इतना चाहता हूँ
अब तो सिर्फ और सिर्फ
प्रेम के पल बंधे इस गठरी में.
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