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नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा


जीवन के उत्तरार्ध मे भटकते- भटकते वो इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका था कि जो भी किया वो पर्याप्त नहीं था, जीवन के उद्देश्य को पाने मे, खोजने मे, समझने मे, और आत्मसात करने मे वो निरा बेवक़ूफ़ साबित हुआ और फ़िर जब वो पहुंचा इस जगह तो पाया कि शहर भर मे भूरे रंग की बोतलों मे बंद जहर इसी नर्मदा के पवित्र किनारों पर बिका करता है. गाहे-बगाहे आने वाले संत, योगी, साधू सन्यासी और परिक्रमा करने वाले जब संसार से उब जाते, थक जाते अपनी बनाए जालों मे फंस कर खप जाते, निकालना चाहते अपने ही झंझावातों से तो एक बोतल खरीद लेते और फ़िर फांककर पुड़िया निकल लेते, दूर रेत घाट पर, जिसे इन्द्रप्रस्थ घाट भी कहा जाता था, अपने देह धरे के दंड को लेकर इंतज़ार करते और फ़िर धीरे से मौत आती दबे पाँव और दबोज ले जाती. मिट्टी की काया वही पडी रहती, गुजरते लोग और नहान के लिए आये लोग दो चार लकडियाँ लाकर जलाने का उपक्रम करते और फ़िर बची खुची अधजली देह को नदी के बीच जाकर छोड़ देते, जानवर तो थे नहीं पर देह भीगते भीगते बहते जाती एक असीम प्रवास पर सडते-गलते हुए देह का बचा हुआ हिस्सा भी क्षीण-क्षीण जर्जर होते हुए खत्म हो जाता. एक भूरी बोतल जहर की कितना सुख दे सकती है यह तब समझ आती जब देह विगलित होकर छिन्न-भिन्न हो जाती और अपने परम मे विलीन हो जाती. धन्य है, धन्य है यह सब और जीवन को मुक्त करने का यह अनूठा प्रहसन. अब तो लगता है कि सच है बाबा कबीर जो कहते है उड़ जाएगा हंस अकेला या पांच सखी मिल करे रसोई, जीमे मुनि और ज्ञानी, कहे कबीरा सुनो भाई साधों, बोवो नाम की धानी. बस तलाश है तो एक नदी की जो अंदर दूर तक बहती है उसके अंदर बहुत अंदर जहां से सिर्फ आवाजें आती है...नर्मदे हर, हर, हर........ (नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथा )

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