इतनी कुटिल थी कि सारी दूकान के मर्दों को अपने कब्जे में रखती थी और वो मजे से मर्दों का इस्तेमाल करती थी वह यह जानती थी कि ये मर्द बेवकूफ होते है और अगर अकेली या तलाकशुदा औरत अपनी वाली पर उतर आये तो ब्रह्मा भी कुछ नहीं कर सकते, बस इसी फार्मूले पर वो पिछले कई वर्षों से लगी हुई थी इस दूकान दूकान के खेल में. हाल ही में अपनी अयोग्यता से वो फिर वो योग्य बन गयी थी बस इस दूकान का उसे सिद्धांत मालूम है न, क्या कहू-अबला या सबला या बला(एनजीओ पुराण भाग ७३)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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