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अब जबकि जान गया हूँ --बोधिसत्व की कविता



कवि बोधिसत्व किसी परिचय के मुहताज नहीं...मेरे लिए आश्चर्य की बात है अपनी कविता को लेकर उनका संशय! उनसे कोई दो-तीन वर्षों के संपर्क में ऐसा अक्सर हुआ है कि कभी आधी रात उन्होंने एकदम से पूछा हो...क्यों एक कविता सुनोगे? ना कौन मूर्ख कहेगा...और हर कविता सुनाने के बाद मेल करके कहते हैं कि देखो...कुछ गडबड तो नहीं? कुछ सार्थक कह पा रहा हूँ? पहले मुझे लगता था कि बस ऐसे ही शायद...फिर जब थोडा खुला...तमाम कविताओं पर खुल के बात की तो पता चला कि यह अपनी कविता की सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति सावधान एक लोकतांत्रिक कवि की सहज उत्कंठा है। कितनी ही बार मुझ जैसे नौसीखुए के कहने पर उन्होंने कितना कुछ बदला...यह कविता भी उन्हीं में से एक है....


अब जबकि जान गया हूँ

जबकि जान गया हूँ
चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
तो क्या चींटियों को पिसान्न डालना रोक दूँ।

जबकि जान गया हूँ
बाझिन गाय को चारा न दूँ
खूंटे से बाँध कर रखूँ या निराजल हाँक दू दो डंडा मार कर
वध करूँ मनुष्य का या पशु का
कोई नर्क नहीं कहीं
तो क्या उठा लूँ खड्ग

जबकि जान गया हूँ कि क्या गंगा क्या गोदावरी
किसी नदी में नहाने से
सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे
तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो


जबकि जान गया हूँ आकाश से की गई प्रार्थना व्यर्थ है
मेघ हमारी भाषा नहीं समझते
धरती माँ नहीं
तो भी सुबह पृथ्वी पर खड़े होने के पहले अगर उसे प्रणाम कर लूँ तो...
यदि आकाश के आगे झुक जाऊँ तो
बादलों से कुछ बूँदों की याचना करूँ तो

जबकि जान गया हूँ
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि अपनी पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूँ तो
अपनी माँ को जगदम्बा कह दूँ तो

जबकि जान गया हूँ
अन्न कोई देव नहीं
उसे धरती को जोत-बो कर उगाते हैं लोग
किंतु यदि कौर उठाते शीश झुका दें तो

ऐसा बहुत कुछ है
जो न जानता तो पता नहीं क्या होता
लेकिन अब जो जान गया हूँ तो
क्या करूँ..... पिता
क्या करूँ गुरुदेव
क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का

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