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आशिक की है बारात - जरा झूमके निकले. 27 April 2017




भौंडी आवाज में गरीब बैंड वालों को गवाने वालों, ढोल और ताशों से दूसरों का चैन छिनने वालों, सड़कों पर घटिया नाच कर ट्रैफिक जाम करने वालों - जाओ तुम्हे श्राप देता हूँ कि तुम्हारे वैवाहिक जीवन मे इससे ज्यादा कलह और शोर हो, तुम्हारी जीवन गाड़ी हमेंशा किसी ट्रैफिक में दबकर सिसकती रहें और तुम अपनी घरवाली के ढोल ताशों पर ताउम्र नाचते रहो और कोई एक चवन्नी भी ना लुटाएं, तुम्हारे जीवन मे बिजली ना आये और ऐसा अंधेरा छा जाएं कि तुम एक जुगनू के लिए तरस जाओ।
शादी कर रहे हो तो क्या किसी के बाप पर एहसान कर रहे हो - साला रात रात भर पुट्ठे हिलाकर नाचते हो और दूसरों की नींद हराम करते हो, बारात में घण्टों सड़कों पर मटकते रहते हो, तुम्हारी शादी क्या इतिहास में पहली बार हो रही ? साला अपना जीवन तो नर्क बनाओगे ही शादी के बाद - उसके मातम में हम सबको क्यों लपेटे में लेते हो ?
और प्रशासन , पुलिस खींसे निपोरकर नाचते लौंडों और पसीने में नहाती औरतों को घूरकर मजे से देखती रहती है कि कही कुछ दिख जाए, सड़क पर और छतों पर खड़े लोग काल भैरव को मन्नत करते है कि कुछ सामान दिख जाए तो दिन बन जाएं - इन सब बारातियों और मुफ्तखोरों को दो डंडे लगाओ पीछे तो समझ आएगा कि नागिन की धुन पर तन कैसे डोलता है और काला कव्वा कैसे काटता है इन कमीनों को !!! बाप का रुपया उजाड़कर कैसे चैन पाओगे, और बाप भी तो हरामी है जो लड़की वालों से भीख मांगकर लाया है और सड़क पर पटाखे छोड़ रहा है वह जानता नही कि यही घोड़ी पर बैठा गधा उसके जीवन को फुस्सी बम बना देगा।
साला हद कर रखी है टेंट लगाकर जगह घेर लेंगे, रात भर ढोल बजायेंगे, अवैध लाइट पोल से लेंगे और हर्जाना टैक्स के रूप में हम भरें, नंगा नाच करते रहेंगे, हल्ला करते रहेंगे, अरे शादी कर रहे हो या आग मूत रहे हो। श्राप देता हूँ कि इनकी बीबियाँ इन्हें इससे ज्यादा तलें और पट्टे की चड्ढी वाली औकात में लाकर जीवन भर मैथी, कोथमीर पालक, जीरे, अजवाइन और खसखस साफ करवाती रहें 
जरा गम्भीरता से सोचिए हम लोग अपने जीवनकाल में काम से छुट्टी लेकर कितनी शादियां कितने दिनों तक अटेंड करते है और इस आंकड़े को पूरे देश के संदर्भ में देखें तो कितने काम के घण्टे बर्बाद करते है और देश के प्रोडक्शन का नुकसान करते है, क्या हम सच मे देश प्रेमी है, जापान, अमेरिका या विकसित देशों में लोग कम से कम इस तरह के आयोजनों पर टुकड़े तोड़ने इकट्ठे नही होते। शर्म आना चाहिए कि हम नितान्त व्यक्तिगत आयोजन में देश का और अपना भी सत्यानाश करते जा रहे है। विवाह नामक संस्था मर चुकी है इसे पुनर्परिभाषित करें मेहरबानी करके

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